अष्ठम सर्ग : भाग-2
ऊँ अमितायु!
अप्रमेय को न शब्द बाँधि कै बताइए,
जो अथाह ताहि सों न बुद्धि सों थहाइए।
ताहि पूछि औ बताय लोग भूल ही करैं,
सो प्रसंग लाय व्यर्थ वाद माहिं ते परैं।
अंधकार आदि में रह्यो पुराण यों कहै,
वा महानिशा अखंड बीच ब्र्रह्म ही रहै।
फेर में न ब्रह्म के, न आदि के रहौ, अरे!
चर्मचक्षु को अगम्य और बुद्धि के परे।
देखि ऑंखिन सों न सकिहै कोउ काहु प्रकार
औ न मन दौराय पैहै भेद खोजनहार।
उठत जैहैं चले पट पै पट, न ह्नै है अंत,
मिलत जैहैं परे पट पै पट अपार अनंत।
चलत तारे रहत पूछन जात यह सब नाहिं।
लेहु एतो जानि बस- हैं चलत या जग माहिं
सदा जीवन मरण, सुख दु:ख, शोक और उछाह,
कार्य कारण की लरी औ कालचक्र प्रवाह,
और यह भवधार जो अविराम चलति लखाति,
दूर उद्गम सों सरित चलि सिंधु दिशि ज्योंजाति,
एक पाछे एक उठति तरंग तार लगाय,
एक हैं सब, एक सी पै परति नाहिं लखाय।
तरणिकर लहि सोई लुप्त तरंग पुनि कहुँ जाय
घुवा से घन की घटा ह्नै गगन में घहराय,
आर्द्र ह्नै नगशृंग पै पुनि परति धारामार,
सोइ धार तरंग पुनि नहिं थमत यह व्यापार।
जानिबो एतो बहुत- भू स्वर्ग आदिक धाम
सकल माया दृश्य हैं, सब रूप है परिणाम।
रहत घूमत चक्र यह श्रमदु:खपूर्ण अपार,
थामि जाको सकत कोऊ नाहिं काहु प्रकार।
बंदना जनि करौ, ह्नै है कछु न वा तम माहिं,
शून्य सों कछु याचना जनि करौ, सुनि है नाहिं।
मरौ जनि पचि और हू सब ताप आप बढ़ाय
क्लेश नाना भाँति के दै व्यर्थ मनहिं तपाय।
चहौ कछु असमर्थ देवन सों न भेंट चढ़ाय
स्तवन करि बहु भाँति, बेदिन बीच रक्तबहाय।
आप अंतस् माहिं खोजौ मुक्ति को तुम द्वार।
तुम बनावत आप अपने हेतु कारागार।
शक्ति तुम्हरे हाथ देवन सों कछु कम नाहिं।
देव, नर, पशु आदि जेते जीव लोकन माहिं
कर्मवश सब रहत भरमत बहुत यह भवभार,
लहत सुख औ सहत दुख निज कर्म के अनुसार।
गयो जो ह्नै, वाहि सों उत्पन्न जो अब होत,
होयहै जो खरो खोटो सोउ ताको गोत।
देवगण जो करत नंदनवन वसंत विहार
पूर्वपुण्य पुनीत को फल कर्मविधि अनुसार।
प्रेम ह्नै जो फिरत अथवा नरक में बिललात
भोग सों दुष्कर्म को क्षय ते करत हैं जात।
क्षणिक है सब पुण्यबल हू अंत छीजत जाय।
पाप हू फलभोग सों है सकल जात नसाय।
रह्यो जो अति दीन श्रम सों पेट पालत दास
पुण्य बल सों भूप ह्नै सो करत विविध विलास।
ह्नै परी वा बनि परी नहिं बात ताके हेत
रह्यो नृप जो, भीख हित सो फिरत फेरी देत।
चलत जात अलक्ष्य जौ लौं चक्र यह अविराम
कहाँ थिरता शांति तौ लौं औ कहाँ विश्राम?
चढ़त जो गिरत औ जो गिरत सो चढ़ि जात।
रहत घूमत और थमत न एक छन, हे भ्रात!
बँधो चक्र में रहौ मुक्ति को मार्ग न पाई
ह्नै न सकत यह- अखिल सत्व नहिं ऐसो,भाई।
नित्य बद्ध तुम नाहिं बात यह निश्चय धारो,
सब दु:खन सों सबल, भ्रात! संकल्प तिहारो।
दृढ़ ह्नै कै जो चलौ, भलो जो कछु बनि ऐहै।
क्रम क्रम सों सो और भलोई होतहि जैहै।
सब बंधुन की ऑंसुन में निज ऑंसु मिलाई
हौं हूँ रोवत रह्यो कबहुँ जैसो तुम, भाई!
फाटत मेरो हियो रह्यो लखि जगदु:ख भारी,
हँसौं आज सानंद बुद्ध ह्नै बंधन टारी।
'मुक्तिमार्ग है' सुनौ मरत जो दु:ख के मारे!
अपने हित तुम आपहि दुख बिढ़वत हौ सारे।
और कोउ नहिं जन्म मरण में तुम्हैं बझावत,
और कोउ नहिं बाँधि चक्र में तुम्हैं नचावत,
काहू के आदेश सों न भेटत हौ पुनि पुनि
तापआर और अश्रनेमि और असत् नाभि चुनि।
सत्य मार्ग अब तुम्हैं बतावत हौं अति सुंदर।
स्वर्ग नरक सों दूर, नछत्रान सों सब ऊपर
ब्रह्मलोक तें परे सनातन शक्ति विराजति
जो या जग में 'धर्म' नाम सों आवति बाजति,
आदि अंत नहिं जासु, नियम हैं जाके अविचल
सत्वोन्मुख जो करति सर्गगति संचित करि फल
परस तासु प्रफुल्ल पाटल माहिं परत लखाय,
सुघर कर सों तासु सरसिजदल कढ़त छवि पाय।
पैठि माटी बीच बीजन में बगरि चुपचाप
नवल वसन वसंत को सो बिनति आपहि आप।
कला ताकी करति है घनपुंज रंजित जाय।
चंद्रिकन पै मोर की दुति ताहि की दरसाय।
नखत ग्रह में सोइ, ताही को करैं उपचार
दमकि दामिनि, बहि पवन और मेघ दै जलधार।
घोर तम सों सृज्यो मानव हृदय परम महान,
क्षुद्र अंडन में करति कलकंठ को सुविधन।
क्रिया में निज सदा तत्पर रहति, मारग हेरि
काल को जो घ्वंस ताको करति सुंदर फेरि।
तासुर् वत्ताुल निधि रखावत चाष नीड़न जाय
छात में छह पहल मधुपुट पूर्ण तासु लखाय!
चलति चींटी सदा ताके मार्ग को पहिचानि,
और श्वेत कपोत हू हैं उड़त ताको जानि।
गरुड़ सावज लै फिरत घर वेग सों जा काल
शक्ति सोई है पसारति तासु पंख विशाल।
है पठावति वृकजननि को सोइ शावक पास।
चहत जिन्हैं न कोउ तिनको करति सोइ सुपास।
नाहिं कुंठित होत कैसहु करन में व्यवहार,
होत जो कछु जहाँ सो सब तासु रुचि अनुसार।
भरति जननिउरोज में जो मधुर छीर रसाल
धारति सोइ व्यालदशनन बीच गरल कराल।
गगनमंडप बीच सोई ग्रह नक्षत्रा सजाय
बाँधि गति, सुर ताल पै निज रही नाच नचाय।
सोइ गहरे खात में भूगर्भ भीतर जाय
स्वर्ण, मानिक, नीलमणि की राशि धारति छपाय।
हरित वन के बीच उरझी रहति सो दिन राति,
जतन करि करि रहति खोलति निहित नानाभाँति।
शालतरु तर पोसि बीजन और अंकुर फोरि
कांड कोंपल, कुसुम विरचित जुगुति सों निजजोरि।
सोइ भच्छति, सोइ रच्छति, बधाति, लेति बचाय।
फलविधनहिं छाँड़ि औ कछु करन सों नहिं जाय।
प्रेम जीवन सूत ताके जिन्हैं तानतिआप,
तासु पाई और ढरकी हैं मरण औ ताप।
सो बनावति औ बिगारति सब सुधारति जाय।
रह्यो जो तासों भलो है बन्यो जो अब आय।
चलत करतब भरो ताको हाथ यों बहु काल
जाय कै तब कतहुँ उतरत कोउ चोखो माल।
कार्य हैं ये तासु गोचर होत जो जग माँहिं।
और केती हैं अगोचर वस्तु गिनती नाहिं।
नरन के संकल्प, तिनके हृदय, बुद्धि, विचार
धर्म के या नियम सों हैं बँधो पूर्ण प्रकार।
अलख करति सहाय साँचो देति है करदान।
करति अश्रुत घोष घन की गरज सों बलवान।
मनुज ही की बाँट में हैं दया प्रेम अनूप,
युगन की बहु रगर सहि जड़ ने लह्यो नररूप।
शक्ति की अवहेलना जो करै ताकी भूल।
विमुख खोवत, लहत सो जो चलत हैं अनुकूल।
निहित पुण्यहि सों निकासति शांति, सुख, आनंद।
छपे पापहिं सों प्रगट सो करति है दुखद्वंद्व।
ऑंखि ताकी रहति है नहिं रहै चहै और,
सदा देखति रहति जो कुछ होत है जा ठौर।
करौ जेतो भलो तेतो लहौ फल अभिराम।
करौ खोटौ नेकु ताको लेहु कटु परिणाम।
क्रोध कैसो? क्षमा कैसी? शक्ति करति न मान
ठीक काँटे पै तुले सब होत तासु विधन।
काल की नहिं बात, चाहे आज अथवा कालि
देतिप्रतिफल अवसिसोनिजनियम अविचलपालि।
याहि विधि अनुसार घातक मरत आपहि मारि,
क्रूर शासक खोय अपनो राज बैठत हारि,
अनृतवादिनि जीभ जड़ ह्नै रहति बात न पाय,
चोर ठग हैं हरत धन पै भरत दूनो जाय।
रहति शक्ति प्रवृत्ता सत् की लीक थापन माहिं,
थामि अथवा फेरि ताको सकत कोऊ नाहिं।
पूर्णता औ शांति ताको लक्ष्य, प्रेमहि सार।
उचित है, हे बंधु! चलिबो ताहि के अनुसार।
कहत हैं सब शो कैसी खरी चोखी बात-
होत जो या जन्म में सब पूर्व को फल, भ्रात!
पूर्व पापन सों कढ़त हैं शोक, दु:ख, विषाद।
होत जो सुख आज सो सब पूर्व- पुण्य- प्रसाद।
बवत जो सो लुनत सब, वह लखौ खेत दिखात
अन्न सों जहँ अन्न उपजत, तिलन सों तिल, भ्रात!
महाशून्य अपार परखत रहत सब संसार!
मनुज को हे भाग्य निर्मित होत याहि प्रकार।
बयो पहले जन्म में जो अन्न तिल बगराय
सोइ काटन फेरि आवत जीव जन्महिं पाय।
बेर और बबूर, कंटक झाड़, विष की बेलि
गयो जो कछु रोपि सो लहि मरत पुनि दु:ख झेलि।
किंतु, तिनको जो उखारै लाय उचित उपाय
और तिनके ठौर नीके बीज रोपत जाय
स्वच्छ, सुंदर, लहलही ह्नै जायहै भू फेरि,
प्रचुर राशि बटोरि सी सुख पायहै पुनि हेरि।
पाय जीवन लखै जो दु:ख कढ़त कित सों आय,
सहै पुनि धारि धीर तन पै परत जो कछु जाय,
पाप को वा कियो जो सब पूर्व जीवन माहिं
सत्य सम्मुख दंड पूरो भरै, हारै नाहिं,
अहंभाव निकासि होवै निखरि निर्मलकाय,
स्वार्थ सों नहिं तासु रंचक काहु को कछु जाय,
नम्र ह्नै सब सहै, कोऊ करै यदि अपकार
पाय अवसर करै ताको बनै जो उपकार,
होत दिन दिन जाय सो यदि सदय, पावन, धीर,
न्यायनिष्ठ, सुशील साँचो, नम्र औ गंभीर,
जाय तृष्णा को उखारत मूल प्रति छन माहिं
होय जीवन वासना को नाश जौ लौं नाहिं,
मरे पै तब तासु रहिहै अशुभ को नहिं चूर,
जन्म को लेखो सकल चुकि जायहै भरपूर,
जायहै शुभ मात्र रहि ह्वै सबल बाधा हीन,
पाय फल सो परम मंगल माहिं ह्वै है लीन।
जाहि जीवन कहत तुम सो नाहिं पैहे फेरि।
लगो जो कछु चलो आवत रह्यो वाको घेरि
गयो चुकि सो, भयो पूरो लक्ष्य सो गंभीर
मिलो जाके हेतु वाको रह्यो मनुज शरीर।
नाहिं ताहि सतायहै पुनि वासना को जाल
और किल्विष हू कलंक लगायहै नहिं भाल।
जगत् के सुख दु:ख न सो चिर शांति करिहै भंग,
जन्म मरण न लागिहै पुनि और ताके संग।
पायहै सो परम पद निर्वाण पूर्ण प्रकार,
नित्य जीवन माहिं मिलिहै होय जीवन पार,
होयहै नि:शेष ह्वै सो धन्य, भ्रमिहै नाहिं-
जाय मिलिहै ओसबिंदु अनंत अंबुधि माहिं।