पंचम सर्ग : भाग-1
प्रव्रज्या
जहँ राजगृह है राजधानी लसति घिरि बन सों घने
तहँ पाँच पर्वत परत पावन पास पास सुहावने-
अति सघन ताल- तमाल- मंडित एक तो 'वैभार' है,
दूजो 'विपुलगिरि', बहति जा तर पातरी सरिधार है।
पुनि सघन छाया को 'तपोवन' जहँ सरोवर हैं भरे,
प्रतिबिंब श्याम शिलान के दरसात है जिनमें परे।
ऊपर चटानन सों शिलाजतु रसत जहाँ पसीजि कै,
नीचे सलिल को परसि रहि रहि डार झूमति भीजि कै।
चलि अग्निदिशि की ओर सुंदर 'शैलगिरि' मन को हरै,
उठि 'गृधा्रकूट' सृशृंग जाको दूर ही सों लखि परै,
प्राची दिशा की ओर सोहत 'रत्नगिरि' निखरी खरो,
जो विटप बीरुधा सों हरो, बहु रूप रत्नन सों भरो।
पथ विकट पथरीलो परै जो फेर को आओ धारे,
पग धारत बाड़न में कुसुम के, आम जामुन के तरे,
पै बचत झाड़िन सों कटीली बेर की औ बाँस की
औ चढ़त टीलन पै, कढ़त पुनि भूमि पै सम पास की।
नव कलित काननकुसुम वह जो अचल अंचल ढार है,
चलि देखिए वटकुंज भीतर जो गुफा को द्वार है।
या सरिस पावन और थल नहीं सकल भूतल पाइए,
करि विमल मन सब भाँति आदर सहित सीस नवाइए।
या ठौर श्रीभगवान् बसि काटत कराल निदाघ को,
जलधारमय घनघोर पावस, कठिन जाड़ो माघ को।
सब लोक हित धारि मलिन वसन कषाय कोमल गात पै
माँगे मिलति जो भीख पलटि पसारि पावत पात पै।
तृण डासि सोवत रैन में घर बार स्वजन बिहाय कै।
हुहुँआत चहुँ दिशि स्यार, तड़पत बाघ बनहिं कँपाय कै।
या भाँति जगदाराधय बितवत ठौर या दिन रात हैं।
सुखभोग को सुकुमार तन तप सों तपावत जात हैं।
व्रत नियम औ उपवास नाना करत, धारत ध्यान हैं,
लावत अखंड समाधि आसन मारि मूर्ति समान हैं।
चढ़ि जानु ऊपर कूदि कबहूँ धाय जाति गिलाय हैं।
कन चुनत ढीठ कपोत कर ढिग कबहुँ कंठ हिलाय हैं।
खरी दुपहरी में बैठत प्रभु ध्यान लगाए!
सन सन करती धारा, धूप धाधाकति दव लाए।
गन गन नाचत परत सकल बनखंड लखाई,
पै प्रभु जानत नाहिं जात कित दिवस बिहाई।
ढरत दीप्त अंगारबिंब सम गिरितट दिनकर,
पसरति आभा अरुण खेत औ खरियानन पर।
जुगजुगात पुनि जहँ तहँ निकसत नभ में तारे।
मिलि कै मंगलवाद्य उठत बजि पुर के सारे।
छाय जाति पुनि निशा, जीव जग के सब सोवत।
केवल कौशिक रटत कहूँ, कहुँ जंबुक रोवत।
पै प्रभु ध्याननिमग्न रहत हैं आसन धारे,
या जीवन को तत्व कहा सोचत मन मारे।
आधीरात निखंड होति, जग थिरता धारत।
केवल हिंसक पशु कढ़ि कै कहुँ फिरत पुकारत- -
ज्यों मन के अज्ञानविपिन भय द्वेष पुकारत,
काम क्रोध मद लोभ घोर विचरत, नहिं हारत।
सोवत पछिले पहर घरी तेती ही प्रभुवर
अष्टमांश पथ जेती में कढ़ि जात निशाकर।
पौ फटिबे के प्रथम परत उठि प्रभु पुनि प्रतिदिन,
फटिक शिला पै आय रहत ठाढ़े नित बहु छिन।
सोवति वसुधा को नयनन भरि नीर निहारत,
सब जीवन की दशा देखि, गुनि हिय में हारत।
पुलकित पुनि लखि परत लहलहे खेत मनोहर,
चुंबन सो अनुरागवती ऊषा के सुंदर।
प्राची आशा कहन लगति दिनरात अवाई,
पहले केवल धुंधा सरीखो परत लखाई।
किंतु पुकारै अरुणचूड़ जौ लौं पुर भीतर,
आभा निखरति शुभ्र रेख सी शैलशीर्ष पर।
लागति परसन होति शुभ्रतर सो अब क्रम क्रम
देखत देखत होति स्वर्णपीताभ भार सम।
अरुण, नील औ पीत होत घनखंड मनोरम,
काहू पै चढ़ि जाति सुनहरी गोट चमाचम,
सब जग जीवन मूल प्रतापी परम प्रभाकर
दिनपति प्रगटत धारि ज्योतिपरिधन मनोहर।
ऋषि समान करि नित्यक्रिया सवितहि सिर नावत,
लै पुनि भिक्षापात्र पाँय पुर ओर बढ़ावत।
बीथी बीथी फिरत यती को बानो धारे,
जो कछु जो दै देत लेत सो हाथ पसारे।
भिक्षा सों भरि जात पात्र सो जहाँ पसारत,
'महाराज! ये लेहु' किते रहि जात पुकारत।
देखि दिव्य सो रूप सौम्य, लोचनसुखकारी
जहँ के तहँ रहि जात ठगे से पुर नरनारी।
दूर दूर सों पुत्रवती बहु धावति आवैं,
प्रभु के पाँयन पारि सिसुन, बहु बार मनावैं
लेति चरणरज कोउ, कोउ पट सीस लगावति।
अति मीठे पकवान और जल कोऊ लावति।
कबहुँ कबहुँ प्रभु जात रहत अति मधुर मंद गति।
दिव्य दया सों दीप्त, ध्यान में भए लीन अति।
रूप अनूप लुभाय लाय टक रहैं कुमारी,
प्रेम भक्ति सों भरी दीठि निज तिन पै डारी।
मानो रूप समाय रह्यो जो नयनन में अति,
सम्मुख लखि रहि जाति चाह सों ताको चितवति।
पै पकरे निज पंथ जात प्रभु सीस नवाए,
धारे वषन कषाय, भीख हित कर फैलाए।
मृदु वचनन सों करि सबको परितोष यथावत्
फिरत गिरिब्रज ओर, आय पुनि ध्यान लगावत।
जेते जोगी जती बसत तिनके ढिग बहु छिन
बैठि सुनत बहु ज्ञान, सत्यपथ पूछत प्रति दिन।
शांत कुंजन बसत तापस रत्नगिरि की ओर हैं,
गनत हैं या तनहिं जो चैतन्य को रिपु घोर हैं।
कहत इंद्रिय प्रबल पशु हैं, लाय वश में मारिए,
क्लेश दै बहु भाँति इनको दमन यों करि डारिए
क्लेश की सब वेदना मरि जाय आपहि, आपहि,
ताप सों तन नहिं तपै औ शीत सों काँपै नहीं।
करत नाना साधन योगी यती मन लाय कै,
त्यागि जनपदवास निर्जन बीच धाम बनाय कै।
कतहुँ कोऊ ऊधर्ववाहु दिनांत लौं ठाढ़े रहैं,
जोड़ तें भुजदंड दोऊ मोड़ ना कबहूँ लहैं,
सूखि कै अति छीन औ गतिहीन ह्नै तन में मढ़े
उकठि मानो रूख तें द्वै खूथ ऊपर को कढ़े।
कीलि राखे करन को कोउ काठ मारि कठोर हैं,
भालु के से बढ़ि रहे नख ऑंगुरिन के छोर हैं।
लोह कली बिछाय कोऊ बसत आसन मारि कै।
कोउ ऐंठत अंग, कोउ पंचाग्नि तापत बारि कै।
पाथरन सो मारि कोऊ जारि तन जर्जर करे,
राख माटी पोति तन पै चीथरे चीकट धारे।
जपत कोउ शिवनाम बैठि मसान पै दिनरात हैं,
स्यार जहँ शव नोचि भागत, गीधा बहु मंडरात हैं।
कोउ करि मुख भानु दिशि पग एक पै ठाढ़ो रहै,
नाहिं अथवत देव जौ लौं अन्नजल नहिं कछु लहै।
सहत साँसति सतत यों, सब मांस गलि तन की गई,
हाड़ सों सटि चाम सूखो, ताँत सी नस नस भई।
करत अनशन व्रत कोऊ, कोउ कृच्छ चांद्रायण करैं।
धूरि में कोउ जाय लोटत, राख कोउ मुँह में भरैं।
करत रसना सुन्न कोऊ जड़ी बूटी चाबि हैं,
स्वाद की सब वासना या भाँति पावत दाबि हैं।
काटि कर पग, छाँटि डारी जीभ कोऊ आपनी,
कोंचि ऑंखिन, नोचि कानन, कनक सी काया हनी,
विकल अंगविहीन, गतिहित मूक, बहरो, ऑंधारो,
जियत मृतक समान ह्नै पलपिंड सो भू पै परी।
कायदंड कठोर जो सहि लेत हैं सारे यहीं
कठिन यम की यातना रहि जाय पुनि तिनको नहीं।
क्लेश सारे जीति सुंदर देवगति ते लहत हैं।
वेद शास्त्र पुराण आगम बात ऐसी कहत हैं।
जाय बचन भगवान एक सों यों कहे
'अहो! क्लेश यह घोर आप तो सहि रहे।
बीते मास अनेक मोहिं या ठौर हैं
देखे आप समान तपत बहु और हैं।
है या जीवन माहिं दु:ख थोरो कहा
औरहु बिढ़वत आप क्लेश जो यह महा?'
बोल्यो तापस 'और कहा हम जानिहैं?
ग्रंथन में जो लिखो चलत सो मानिहैं।
जो कोउ तनहिं तपाय क्लेश ही जानिहै
और मरण विश्रामरूप करि मानिहै
क्लेशभोग सों पापलेश नसि जायहै,
निखरि जीव ह्नै शुद्ध, लोक शुभ पायहै,
निकसि घोर या तापपूर्ण भवकूप तें
लोकन बीच बिचरिहै दिव्य स्वरूप तें
भाँति भाँति सुख भोग भोगिहै बसि तहाँ
जिनको ह्याँ अनुमान सकत कोउ करि कहाँ?
कह्यो श्रीसिद्धार्थ 'वह जो शुभ्र मेघ दिखात,
इंद्र आसन को मनो पट स्वर्णमय दरसात,
वातक्षुब्धा पयोधि सों सो उठो नभ में जाय,
अश्रुबिंदु समान खसि खसि अबसि गिरिहै आय,
कीच सों सनि, धुनत सिर, बहि नदी नारन माहिं
जाय परिहै जलधि में पुनि अवसि संशय नाहिं।
कहा याही रूप को नहिं स्वर्ग को सब भोग,
जाहि अर्जन करत मुनिजन साधि तप औ योग?
चढ़त जो सो गिरत, छीजत लेत जाहि बिसाहि,
यह अटल व्यवहार जग में विदित है नहिं काहि?
रक्त तन को गारि यों क्रय करत हौ सुरधाम,
पूजिहै जब भोग सोइ भवचक्र पुनि अविराम।'
'कौन जानै होय ऐसो, सकत कहि किहि भाँति?
निशा पै पुनि दिवस आवत, श्रम अनंतर शांति।
रक्त पल की देह पै या हमें ममता नाहिं
रहति बाँधो जीव को जो विषयबंधन माहिं।
जीव के हित दाँव पै धारत देवन पास
क्षणिक जीवनक्लेश यह चिरकाल सुख की आस।'
कुँवर बोले, 'सोउ सुख की अवधि है पै भ्रात!
वर्ष कोटिन लौ रहै, पै अंत ह्वै ही जात।
अंत जो नहिं तो कहा हम लेंय ऐसो मानि
है कहूँ या रूप जीवन जासु होति न ग्लानि,
भिन्न जो सब भाँति जाको होत नहिं परिणाम?
हैं कहाँ, ये देव सारे नित्य निज धाम?
कह्यो योगिन 'देव हू नहिं नित्य या जग माहिं
नित्य केवल ब्रह्म है, हम और जानत नाहिं।'
कह्यो बुद्धभगवान् 'सुनो, हे मेरे भाई!
ज्ञानवान, दृढ़चित्त परत हौ हमैं लखाई।
क्यों तुम अपनी हाय दाँव पै देत लगाई
ऐसे सुख के हेतु स्वप्न सम जो नसि जाई?
आत्मा को प्रिय मानि देह यों अप्रिय कीनी,
ताड़न करि बहु ताकी तुम यह गति करि दीनी
धारन हू में समर्थ वा जीवहि नाहीं
खोजत जो निज पंथ, रह्यो अड़ि बीचहि माहीं।
ज्यों कोउ तीखो तुरग बढ़त जो आपहि पथ पर
खाय खाय कै एड़ भयो बीचहिं में जर्जर।
ढाहत हो क्यों भवन जीव को यह वरिआई,
पूर्व कर्म अनुसार बसे हम जामें आई,
जाके द्वारन सों प्रकाश कछु हम हैं पावत,
सूझत है यह हमैं दीठि निज जबै उठावत
सुप्रभात कब होय घोर तम पुंज नसाई,
सुंदर, सूधो सुगम मार्ग कित तें ह्नै जाई।'
योगी बोले हारि 'पंथ है यहै हमारो,
चलिहैं यापै अंत ताइँ सहिहैं दु:ख सारो।
जानत यातें सुगम मार्ग यदि होहु, बताओ
नातो बस, आनंद रहौ, इत ध्यान न लाओ।'
बढयो आगे खिन्नमन सो देखि कै यह बात,
मृत्युभय नर करत ऐसो भय करत भय खात।
प्रीति जीवन सों करत यों प्रीति करत सकात,
करत व्याकुल ताहि, तप की सहत साँसति गात।
करन चहत प्रसन्न या विधि देवगणहि रिझाय,
सकत देखि प्रसन्न मानव सृष्टि जो नहिं, हाय!
चहत नरकहि न्यून करिबो नरक आप बनाय।
माति तप उन्माद में ये रचत मुक्ति उपाय!
बोलि उठयो सिद्धार्थ 'अहो! वनकुसुम मनोहर!
जोहत कोमल खिले मुखन जो उदित प्रभाकर,
ज्योति पाय हरषाय श्वाससौरभ संचारत,
रजत, स्वर्ण, अरुणाभ नवल परिधन सँवारत,
तुम में ते कोऊ जीवत नहिं माटी करि डारत,
नहिं अपनो हठि रूप मनोहर कोउ बिगारत।
एहो, ताल! विशाल भाल जो रह्यो उठाई,
चाहत भेदन गगन, पियत सो पवन अघाई,
शीतल नीरधि नील अंक जो आवति परसति
मंजु मलयगिरि गंधाभार भरि मंद मंद गति।
जानत ऐसो भेद कौन जासों हे प्रिय द्रुम!
अंकुर तें फलकात ताइँ हौ रहत तुष्ट तुम?
पंख सरीखे पातन सों मर्मर धवनि काढ़त,
अट्ठहास सों हँसत हँसत तुम जग में बाढ़त।
तरुडारन पै बिहरनहारे, हे बिहंगगन!
शुक, सारिका, कपोत, शिखि, पिक, कोकिल, खंजन
तिरस्कार निज जीवन को नहिं तुमहुँ करत हौ,
अधिक सुखन की आस मारि तन मन न मरत हौ।
पै प्राणिन में श्रेष्ठ मनुज जो बधात तुम्हैं गहि,
ज्ञानी बोलत रक्तपात बिच पोसी मति लहि।
सोइ बुद्धि लै हैं प्रवृत्ता ये नर बहुतेरे
आत्मक्लेश दैबे में नाना भाँतिन केरे।
कहत यौं प्रभु शैलतट पथ धारे गे कछु दूरि।
खुरन के आघात सों तहँ उठति देखी धूरि।
झुंड भारी भेड़ छेरिन को रह्यो है आय,
ठमकि पाछे दूब पै कोउ देति मुखै चलाय।
जितै झलकत नीर, गूलर लसी लटकति डार
लपकि ताकी ओर धावैं छाँड़ि पथ द्वै चार,
जिन्हैं बहकत लखि गड़रियो उठत है चिल्लाय
लकुट सों निज हाँकि पथ पै फिर लावत जाय।
लखी प्रभु इक भेड़ आवति युगल बच्चन संग,
एक जिनमें ह्नै रह्यो है चोट सों अति पंग।
छूटि पाछे जात, रहि रहि चलत है लँगरात,
थके नान्हें पाँव सो है रक्त बहत चुचात।
ठमकि हेरति ताहि फिर फिर तासु जननि अधीर,
बढ़त आगे बनत है नहिं देखि शिशु की पीर।
देखि यह प्रभु लियो बढ़ि लँगरात पशुहि उठाय,
लादि लीनों कंधा पै निज करन सों सहराय
कहत यों 'हे ऊर्णदायिनि जननि! जनि घबराय,
देत हौं पहुँचाय याको जहाँ लौं तू जाय।
पशुहु की इक पीर हरिबो गुनत हौं मैं आज
योग औ तपसाधन सों अधिक शुभ को काज।'
बढ़ि चरावनहार दिशि प्रभु बहुरि बूझी बात
'जात ऐसी धूप में कित लिए इनको, भ्रात?'
दियो उत्तर सबन 'आज्ञा मिली है यह आज,
मेष अज सौ बीछि कै लै चलौ बलि के काज।
देवपूजन राति करिहैं महाराजधिराज।
होत हैं या हेतु नृप के भवन नाना साज।'
'चलत हमहूँ' बोलि यों प्रभु चले धीरज लाय
धूप में वा संग तिनके पशुहि गोद उठाय।
स्वेदकणिका धूरि छाए भाल पै दरसाति,
लगी पाछे जाति रहि रहि भेड़ सो मिमियाति।