षष्ठम सर्ग : भाग-5
मारविजय
बैठे प्रभु वा रैन ध्यान धारि जाय विटप तर।
किन्तु मुक्तिपथ बाधाक नर को मार भयंकर
शोधि घरी चट पहुँचि गयो तहँ विघ्न करन को,
जानि बुद्ध को करनहार निस्तार नरन को।
तृष्णा, रति औ अरति आदि को आज्ञा कीनी,
सेना अपनी छाँड़ि तामसी सारी दीनी।
भय, विचिकित्सा, लोभ, अहंता, मक्ष आदि अरि,
ईर्षा, इच्छा, काम, क्रोध सब संग दिए करि।
प्रबल शत्रु ये प्रभुहि डिगावन हित बहुतेरे
करत राति भर रहे विघ्न उत्पात घनेरे।
ऑंधी लै घनघोर घटा कारी घहराई
प्रबल तमीचर अपनी अनी घरी चारौं दिशि छाई।
गर्जन तर्जन करति, मेदिनी कड़कि कँपावति,
तमकि करति चकचौंधा चमाचम वज्र चलावति।
कबहुँ कामिनी परम मनोहर रूप सजाई,
चहति लुभावन मन भावन मृदु बैन सुनाई।
डोलत धीर समीर सरस दल परसि सुहावन,
लगत रसीले गीत कान में रस बरसावन।
कबहुँ राजसुख विभव सामने ताके लावत।
संशय कबहूँ लाय 'सत्य' को हीन दिखावत।
दृश्य रूप में भईं किधौ ये बातें बाहर,
कैधौ अनुभव कियो बुद्ध इनको अभ्यंतर,
आपहि लेहु बिचारि, सकल हम कहि कछु नाहीं।
लिखी बात हम, जैसी पाई पोथिन माहीं।
चले साथी मार के दस महापातक घोर।
प्रथम 'हम हम' करत पहुँच्यो 'आत्मवाद' कठोर,
विश्व भर में रूप अपनो परत जाहि लखाय।
चलै ताकी जो कहूँ यह सृष्टि ही नसि जाय।
आय बोल्यो "बुद्ध हौ यदि करो तुम आनंद।
जाय भटकन देहु औरन, फिरौ तुम स्वच्छंद।
गुनौं तुम हौ तुमहि, उठि कै मिलौ देवन माहिं,
अमर हैं, निर्द्वंद्व हैं, जे करत चिंता नाहिं।"
बुद्ध बोले "कहत उत्तम जाहि तू, है नीच,
स्वार्थ में रत होयँ जे बकु जाय तिनके बीच।"
पुनि 'विचिकित्सा' आई जो नहिं कछू सकारति।
बोली प्रभु के कानन लगि हठि संशय डारति
"हैं असार सब वस्तु- सकल झूठो पसार है-
औ असारता को तिनकी ज्ञानहु असार है।
धावत है तू गहन आपनी केवल छाया।
चल, ह्याँ ते उठ! 'सत्य' आदि सबही हैं माया।
मानु न कछु, करु तिरस्कार, पथ है, यह बाँको।
कैसो नर उद्धार और भवचक्र कहाँ को?"
बोले श्री भगवान् "शत्रु तू रही सदा ही,
हे विचिकित्से! काज यहाँ तेरो कछु नाहीं।"
'शीलव्रतपरमार्ष' परम मायावी आयो,
देश देश में जाने बहु पाखंड चलायो,
कर्मकांड औ स्तवन माहिं जो नरन बझावत,
स्वर्गधाम की कुंजी बाँधो फिरत दिखावत।
बोल्यो प्रभु सों "लुप्त कहा तू श्रुतिपथ करिहै?
देवन को करि विदा यज्ञमंडपन उजरिहै?
लोप धर्म को करन चहत तू बसि या आसन,
याजक जासों पलत, चलत देशन को शासन
बोले प्रभु तू कहत जाहि अनुसरन मोहिं है,
क्षणभंगुर है रूप मात्र, नहिं विदित तोहि है?
किंतु सत्य है नित्य, एकरस, अचल सनातन।
अंधकार में भागु, न ह्याँ तू रहै एक छन।
दर्प सहित कंदर्प चढ़यो पुनि प्रभु के ऊपर,
जो सुरगण वश करत, बापुरो रहत कहाँ नर?
हँसत कुसुम धनुशायक लै पहुँच्यो वा तरु तर,
बेधात हिय विषविशिखहु सों बढ़ि जासु पंच शर।
चहुँ ओर चढ़ीं पुनि चंद्रमुखी अति चोप सों चंचल नैन चलाय।
रसरंगतरंग उठाय रहीं, मधुरो सुर साज के संग मिलाय।
सुर सो सुनि मानहुँ, मोहित ह्नै रजनी थिर सी परती दरसाय,
नभ में थमि तारक चंद रहे, नवनागरि गाय रहीं समझाय-
धिक! खोय रह्यो निज जीवन तू तरुनीन को हास विलासविहाय
यहि सों बड़िकै सुख और नहीं कोउ तीनहु लोकन माहिं लखाय,
बिगसे नव पीन पयोधर को परसै सरसे रस सौरभ पाय,
भरि भाव सों भामिनि भौहँ मरोरि, चितै, मुँह मोरि रहै मुसकाय।
कुछ ऐसी लुनाई लखाति लली ललनान के अंगन माहिं ललाम।
कहि जाति न जो मन जाय ढरै उत आप उमंग भरो अभिराम।
सुख जो यह भोगत हैं जग में तिनको यहि लोकहि में सुरधाम।
यहि के हित सिद्ध सुजान अनेक सिझावत हैं तन आठहु याम।
फटकै दु:ख पास कहाँ जब कामिनि राखति है भुजपाश में लाय?
यहि जीवन को सब सार हुलास उसास में दोउन के मिलि जाय।
मृदु चुंबन पै इक चाह भरे सिगरो जग होत निछावर आय।
यही भाँति अनेकन भाव बताय रहीं सब सुंदरि गाय रिझाय।
मद की दुति नैनन में दरसै, अधारान पै मंद लसै मुसकान।
फिरि नाचत में सुठि अंग सुढार छपैं उधारैं ललचावत प्रान,
खिलि कै कछु मानहुँ कंजकली लहि बात झकोर लगै लहरान,
दरसावति रंग, छपाचति पै मकरंद भरो हिय आपनी जान।
यहि रंग की रूपछटा की घटा उनई कबहूँ नहिं देखि परीं
तरु पास कढ़यो दल पैदल आय नवेलिन को निशि में निखरी।
बढ़ि एक सों एक रसीली कहैं प्रभु सों प्रिय! हेरहु जाति मरी।
अधारान को पान करौं इन, लै यहि यौवन को रस एकघरी।"
डिगे नहिं भगवान् जब करि ध्यान नेकहु भंग,
तब चढ़ायो दाप सों उठि चाप आप अनंग।
लखि परयो चट कामिनीदल दूसरो चितचोर।
रही जो सब माहिं रूरी बढ़ी प्रभु की ओर।
रुचिर रूप यशोधरा को धारे पहुँची आय,
सजल नयनन में बिरह को भाव मृदु दरसाय
ललकि दोऊ भुजन को भगवान् ओर पसारि
मंद मृदु स्वर सहित बोली, भरि उसास निहारि-
'कुँवर मेरे! मरति हौं मैं बिनु तिहारे, हाय!
स्वर्गसुख सो कहाँ, प्यारे! सकत हौ तुम पाय
लहत जो रसधाम में वा रोहिणी के तीर,
जहँ पहार समान दिन मैं काटि रही अधीर।
चलौ फिरि, पिय! भवन, परसौ अधार मेरे आय,
फेरि अपने अंक में इक बेर लेहु लगाय।
भूलि झूठे स्वप्न में तुम रहे सब कुछ खोय।
जाहि चाहत रहे एतो, लखो हौं मैं सोय।
कह्यो प्रभु 'हे असत् छाया! बस न आगे और।
व्यर्थ तेरे यत्न और उपाय हैं या ठौर।
देत हौं नहिं शाप वा प्रिय रूप को करि मान।
कामरूपिनि! जाहिं धारि तू हरन आई ज्ञान।
किंतु जैसी तू, जगत् को दृश्य सब दरसाय।
कढ़ी जहँ सों भागु वाही शून्य में मिलु जाय।'
कढ़त ही ये वचन छायारूप सब छन माँहिं
उड़ि गयो चट धूम ह्नै, तहँ रहि गयो कछु नाहिं।
अंधाड़ घना उठाय, ऍंधोरा नभ में छाए,
भारी पातक और और सब प्रभु पै आए।
आई 'प्रतिघा, कटि में कारे अहि लपटाई,
देति शाप जो तिनके बहु फुफकार मिलाई।
सौम्य दृष्टि से प्रभु की मारि ताकी बोली,
मुख में कारी जीभ कीलि सी उठि न डोली।
प्रभु को कछु करि सकी नाहिं सब विधि सों हारी।
कारे नागहु रहे सिमिटि फन नीचे डारी।
'रूपराग' पुनि आयो जाके वश नरनारी
जीवन को करि लोभ देत जीवनहिं बिगारी।
पाछे लगो 'अरूपराग' हूँ पहुँच्यो आई
देतर् कीत्ति की लिप्सा जो मन माहिं जगाई,
बुधाजन हू परि जात जाल में जाके जाई,
बहु श्रम साहस करत, लरत रणभूमि कँपाई।
आयो तनि अभिमान, चल्यो 'औद्धत्य' फेरि बढ़ि
जासों धर्मी गनत लोग आपहि सब सों बढ़ि।
चली 'अविद्या' अपनो दल बीभत्स संग करि,
कुत्सित और विरूप वस्तु सों गई भूमि भरि।
परम घिनौनी बढ़ी डोकरी बूढ़ी सो जब
अंधकार अति घोर छाय सब ओर गयो तब।
विचले भूधार, उठी प्रभंजन सों हिलि यामिनि,
छाँड़ी मूसलधार दरकि घन, दमकि दामिनि।
भीषण उल्कापात बीच महि काँपी सारी
खुले घाव पै ताके मानो परी अंगारी।
वा ऍंधियारी माहिं भयो पंखन को फरफर,
चीत्कार सुनि परयो, रूप लखि परे भयंकर।
प्रेतलोक तें दल की दल चढ़ि सेना आई,
प्रभुहि डिगावन हेतु रही सौ ठट्ट लगाई।
किंतु डिगे नहिं नेकु बुद्ध भगवान् हमारे।
ज्यों के त्यों तहँ रहे अचल दृढ़ आसन मारे।
लसत धर्म सों रक्षित चारों दिशि सों प्रभुवर,
खाईं, कोटन बीच बसत ज्यों निडर कोउ नर।
बोधिदु्रम हू अचल रह्यो वा अंधाड़ माहीं,
हिल्यो न एकौ पात, ढरे हिमबिंदुहु नाहीं।
बाहर सब उत्पात विघ्न ह्नै रहे भयंकर
किंतु शांति अति छाय रही ताकी छाया तर।