षष्ठम सर्ग : भाग-4
बोधिद्रुम
बल पाय पायस को उठे प्रभु डारि पग वा दिशि दिए
जहँ लसत बोधिद्रुम मनोहर दूर लौं छाया किए,
कल्पांत लौं जो रहत ठाढ़ो, कबहु नहिं मुरझात है,
जो लहत पूजा लोक में चिरकाल लौं चलि जात है।
है होत आयो बुद्धगण को बोध याही के तरे।
पहिचानि प्रभु तत्काल ताकौ ओर आपहि सों ढरे।
सब लोक लोकन माहि मंगल मोद गान सुनात हैं।
प्रभु आज चलि वा अक्षय तरु की ओर, देखौं, जात हैं।
तकि वा तरु की छाँह जात जहँ उनई डार विशाल।
मंडप सम सजि रह्यो चिकनो चमकत चल- दल- जाल।
प्रभु पयान सों पुलकित पूजन करति अवनि हरषाय
चरणन तर बहु लहलहात तृण, कोमल कुसुम बिछाय।
छाया करति डार झुकि बन की, मेघ गगन में छाय।
पठवत वरुण वायु कमलन को गंधाभार लदवाय।
मृग, बराह औ बाघ आदि सब वनपशु बैर बिसारि
ठाढ़े जहँ तहँ चकित चाह भरि प्रभुमुख रहे निहारि।
फन उठाय नाचत उमंग भरि निकसि बिलन सों व्याल।
जात पंख फरकाय संग बहुरंग विहंग निहाल।
सावज डारि दियो निज मुख तें चील मारि किलकार।
प्रभु दर्शन के हेतु गिलाई कूदति डारन डार।
देखि गगन घनघटा मुदित ज्यों नाचत इत उत मोर।
कोकिल कूजत, फिरत, परेवा प्रभु के चारों ओर।
कीट पतंगहु परम मुदित लखि, नभ थल एक समान
जिनके कान, सुनत ते सिगरे यह मृदु मंगलगान-
'हे भगवान्! तुम जग के साँचे मीत उबारनहारे।
काम, क्रोध, मद, संशय, भय, भ्रम, सकल दमन करिडारे।
विकल जीव कल्याण हेतु दै जीवन अपनो सारो
जाव आज या बोधिद्रुम तर, प्रभु, हित होय हमारो।
धारती बार बार आसीसति दबी भार सों भारी।
तुम हौ बुद्ध, हरौगे सब दु:ख, जय जयमंगलकारी!
जय जय जगदाराधय! हमारी करौ सहाय दुहाई!
जुग जुग जाको जोहत आवत सो जतिनि अब आई।'