पंचम सर्ग : भाग-3
यज्ञबलिदर्शन
पशुपालन संग प्रवेश कियो पुर में प्रभु देखत देखत जाय,
ढरि कंचन सी किरनैं रवि की जहँ सोन को नीर रहीं झलकाय
सब बीथिन में पुर की परिकै परछाई रही अति दीरघ नाय,
पुरद्वार के पार जहाँ प्रतिहार खड़े बहु दीरघ दंड उठाय।
पशु लै प्रभु को तिन आवत देखि दयो पथ सादर मौनहिं धारि।
सब हाट की बाट में बैठनहार लई बगरी निज वस्तुन टारि!
झगरो निज रोकि कै गाहक औ बनियाहु रहे मृदु रूप निहारि।
कर बीच हथौड़ो उठाय लुहार गयो रहि नाहिं सक्यो घनमारि।
तनिबो तजि ताकि जुलाह रहे, बहु लेखक लेखनि हाथ उठाय।
गनिबो निज पैसन को चकराय गयो सुधि खोय सराफ भुलाय।
नहिं अन्न की राशि पै काहुकी ऑंखि, रहे सुखसों मिलिसाँड़ चबाय।
मटकी पर धार चली पय की बहि, ग्वाल रहे प्रभु पै टक लाय।
पुरनारि जुरी बहु बूझति हैं 'बलि हेतु लिए पशु को यह जात?
शुचि शांतिभरी मृदुता मुख पै, अति कोमल मंजु मनोहर गात।
कहु जाति कहा इनकी? इन पाए कहाँ अति सुंदर नैन लजात?
तन धारि अनंग किधौ मघवा यह जात चलो गति मंद ललात?
कोउ भाखत 'सिद्धसोई यह जो तिन योगिन संग बसै गिरि पार'।
प्रभु जात चले निज पंथ गहे मन माहिं बिचारत याहिं प्रकार-
'भटकैं नर भेड़ समान, अहो! इनको नहिं कोउ चरावनहार,
सब जात चले उत अंधा भए बलि हेतु खिंची जित है जमधार।'
आय नृपति सों कही एक प्रभु को आवत सुनि
'आवत हैं तव यज्ञ माहिं, प्रभु! एक महा मुनि।'
यज्ञशाला में बसत नृप, बँधो बंदनवार,
शुभ्र पट धारि करत ब्राह्मण मंत्र को उच्चार।
देत आहुति जात हैं मिलि सकल बारंबार।
मध्यवेदी बीच धाधाकति अग्नि धुऑंधार।
गंधाकाठन सो उठति लौ जासु जीभ लफाय,
खाति बल, धुधुआति रहि रहि धार घृत की पाय,
भखति बलि सह सोमरस जो पाय इंद्र अघात,
अंश देवन को सकल तिन पास पहुँचत जात।
बधो बलिपशु के रुधिर की लाल गाढ़ी धार
बिछी बालू बीच थमि थमि बहति वेदी पार।
लखौ अज इक बड़े सींगन को खड़ो मिमियात,
मूँज सों गर कसो जाको यूप में दरसात।
तानि ताके कंठ पै करवाल अति खरधार
एक ऋत्विज् लग्यो बोलन मंत्र विधि अनुसार-
'ग्रहण याको करौ तुम, हे देवगण, सब आय
यज्ञबलि शुभ बिंबसार नरेश को हरषाय।
होहु आज प्रसन्न लखि जो रक्त रहे बहाय।
जरत पल तें वपा की यह गंधा लेहु अघाय।
भूप को मम अशुभ याके सीस पै सब जाय।
हनत हौ अब याहि, लेवैं भाग सुरगण आय।'
आय ठाढ़े भए नृप ढिग बुद्ध प्रभु तत्काल
बरजि बोले 'याही मारन देहु ना, नरपाल!
जाय बलिपशु पास बंधन तुरत दीनो खोलि,
तेज सों दबि रहे सब, नहिं सक्यो कोऊ बोलि।
कहन पुनि भगवान् लागे 'गुनौ, नृप! मन माहिं,
लै सकत हैं प्राण सब, पै दै सकत कोउ नाहिं।
क्षुद्र कैसउ होय प्यारो होत सबको प्रान।
नाहिं ताको तजन चाहत कोउ अपनी जान।
है अमूल्य प्रसाद जीवन, यदि दया को भाव,
सबल निर्बल दोउ पै है विदित जासु प्रभाव।
अबल हित करि देति कोमल जगत की गति घोर,
सबल को लै जाति है सो श्रेष्ठ पथ की ओर।
चहत देवन सों दया नर होत निर्दय आप,
देव सम ह्नै पशुन हित इन, देत इन को ताप।
जगत में हैं जीव जेते सबै एकहि गोत,
श्रेष्ठ है सो जीव जाको ज्ञान ऐसो होत।
रहत जो विश्वास पै, ऊन दै तृण खात,
दीन जीवन संग ऐसे करत हैं नर घात!
शास्त्र सारे कहत केते नर शरीर बिहाय
भोगि पशु खग योनि पुनि नरदेह पावत आय।
अग्निकण सम जीव परि भवचक्र फेरो खात,
कबहुँ दमकत निखरि कै औ कबहुँ लपटि झ्रवात।
यज्ञ में पशुहनन निश्चय पाप है, नरराय!
जीव की गति रोकिबो या भाँति है अन्याय।
जीव शुद्ध न ह्नै सकत है रक्त सों जग माहिं।
देवगण हू भले हैं यदि तुष्ट ह्नै हैं नाहिं!
क्रूर हैं यदि, सकत कैसे तिन्हैं हम बहराय
दीन गूँगे पशुन को इन मारि रक्त बहाय?
करत नर जो पाप नाना भाँति कर्म कमाय
तासु फल तिल भर न सकिहै पशुन के सिर जाय।
करत जो हैं सोइ भोगत और कोऊ नाहिं।
विश्व को लेखो भरत सब रहत जीवन माहिं,
होत जीवन माहिं जैसे कर्म, वचन, विचार
गति भली वा बुरी पावत ताहि के अनुसार।
नित्य है यह नियम अंतररहित औ अविराम।
कहत भावी जाहि सो है कर्म को परिणाम।'
सुनत दया सों भरी खरी बानी प्रभु केरी
रक्तरँगे कर ढाँपि रहे द्विज इकटक हेरी।
सादर सहमि नृपाल खड़े कर जोरि अगारी।
लगे कहन प्रभु फेरि सबन की ओर निहारी-
'धाराधाम यह कैसो सुंदर होतो, भाई!
जो रहते सब जीव प्रेम में बँधि गर लाई,
एक एक धारि खात न जो करि जतन घनेरो,
होत निरामिख रक्तहीन भोजन सब केरो।
अमृतोपम फल, कनक सरिस कन, साग सलोने
सब हित उपजत जो, देखौ, सब थल सब कोने।'
सुनि यह सारी बात सहमि सबही सिर नायो,
दया धर्म को भाव सबन पै ऐसो छायो
ऋत्विज् हू सब दई अग्नि इत उत बगराई,
बलि को खाँड़ो दियो हाथ सों दूर बहाई।
दूजे दिन नृप देश माहिं डौंड़ी फिरवाई,
शिला पटल औ खंभन पै यह दियो खुदाई-
महाराज हैं करत आज या विधि अनुशासन-
यज्ञन में बलि हेतु और करिबे हित भोजन
होत रहयो वधा विविध पशुन को अबलौं घर घर,
पै अब सों नहिं रक्त बहावै कतहुँ कोउ नर।
जीव सबै को एक, ज्ञान हित जीवन सारो।
दयावान् पै दया होति निश्चय यह धारो।'
थल थल पै शुभ शिलालेख यह सोहत सुंदर।
वा दिन सों उत गंगातट के रम्य देश भर,
जहाँ जहाँ प्रभु घूमि दया को मंत्र सुनायो,
पशु, पंछी, नर बीच शांति सुख पूरो छायो।
प्रभु की ऐसी दया रही तिन सब पै भारी
प्राणवायु जो खैंचि रहे चल जीवन धारी,
सुख दु:ख के जो एक सूत्र में बँधो बेचारे,
जग में नाना जतन करत जो पचि पचि हारे।
जातक में है लिखी कथा यह एक पुरानी-
पूर्व जन्म में रहे बुद्ध इक ब्राह्मण ज्ञानी।
बसत बीच दालिद्द ग्राम के मुंडशिला पर।
भारी सूखो एक बार परि गयो देश भर।
ढँपे न ढेले, खेत बीच ही धन गए मरि,
घास, पात, तृण, लता गुल्म मुरझाय गए जरि।
ताल तलैयन को सारो जल गयो सुखाई।
पशु पंछी जो बचे विकल ह्नै गए पराई।
सूखे नारे के तट पै प्रभु जाय एक दिन
परी काँकरिन पै देखी इक भूखी बाघिन।
धाँसे नयन ह्नै ज्योतिहीन, हाँफति मुँह बाई,
दाढ़न सों बढ़ि जीभ दूर कढ़ि बाहर आई।
पसुरिन सों सटि रह्यो चर्म चित्रित, ज्यों छप्पर
बाँसन बिच धाँसि रहत होय वर्षा सों जर्जर।
विकल क्षुधा सों शावक द्वै थन पै मुँह लाई।
खैंचि खैंचि रहे हारि, बूँद नहिं मुख में जाई
छटपटात निज शिशुन देखि जननी सिर नाई
सरकि और तिन ओर नेह सों चाटति जाई।
रही भूलि निज भूख नेह के आगे सारी!
गर्जन नहिं रहि गयो, बिलखि हुँकरत गर फारी।
देखि दशा यह तासु भूलि प्रभु अपनो तन मन
करुणा की निज सहज बानि वश लागे सोचन
'कैसे बन की हत्यारिन की करौ सहाई?
केवल एक उपाय परत है मोहिं लखाई।
मांस बिना दिन डूबत ही ये तीनो मरिहैं,
ऐसे मिलिहैं कौन दया जो इन पै करिहैं।
जिन्हैं रक्त की प्यास, मांस की भूख सतावति
तिनपै जग में दया नाहिं काहू को आवति।
याके सम्मुख डारि देहुँ जो मैं अपनो तन
मोहिं छाँड़ि नहिं हानि और काहू की या छन।
अपनी हू तो हानि नहिं कछु मोहिं दिखाती
जीवन प्रति निज नेह निबाहौ जो या भाँती।
यों कहि अपनो उत्तरीय उष्णीष बिहाई।
उतरि करारे सों बाघिन ढिग पहुँचे जाई।
बोले 'लै यह, मातु! मांस तेरे हित आयो।'
भूखी बाघिन झपटि तिन्हैं तहँ तुरत गिरायो।
कुटिल नखन सों तन बिदारि, मुँह दियो लगाई,
बोरि रक्त में दाँत मांस सब गई चबाई।
हिंसातप्त कराल, श्वास वा पशु की जाई
प्रभु के अंतिम प्रेम उसासन माहिं समाई।
रह्यो प्रभु को सदा याही भाँति हृदय उदार।
बरजि पशुबलि बुद्ध कीनो दयाधर्म प्रचार।
जानि प्रभु को राजकुल औ त्याग अमित अपार
बिंबसार नरेश कीनी विनय यों बहु बार-
'राजकुल पलि, रहे ऐसे कठिन नियम निबाहि।
धारत जो कर राजदंड न भीख सोहति ताहि।
रहौ मेरे पास चलि, नहिं मोहिं कोउ संतान।
जिऔं जब लौं तुम सिखाओ प्रजा को मम ज्ञान।
करौ तुम मम भवन सुंदरि बधू सहित निवास।'
कह्यो दृढ़ संकल्प निज सिद्धार्थ होय उदास-
'रही मोको वस्तु ये सब सुलभ, नृपति उदार!
सत्य पथ की खोज में हौं तज्यो सब घर बार।
खोज हौं और रहिहों ताहि की चित लाय,
नाहिं थमिहौं इंद्रहू को भवन जो मिली जाय।
लेन आवौ अप्सरा मोहिं रत्नमंडित द्वार
किंतु निज संकल्प तें ना टरौं काहु प्रकार।
जात हौं मैं धर्मभवन उठायबे हित जोहि
गया के घन बनन में जहँ बोध ह्नैहै मोहिं।
ऋषिन को करि संग देख्यो छानि शास्त्र पुरान,
किए नाना भाँति के व्रत और क्लेश विधन,
सत्य की पै ज्योति मोकों मिली अब लौं नाहिं,
ज्योति ऐसी है अवसि यह उठत है मन माहिं।
लह्यो जो मैं ताहि तो पुनि पलटि या थल आय
प्रेम को फल अवसि दैहौं तुम्हैं, हे नरराय!'
तीन बार प्रदक्षिणा प्रभु की करी नरपाल,
विदा दिनी फेरि सादर पाँव पै धारि भाल।
चले प्रभु उरुविल्व दिशि संतोष ना कछु पाय,
परो पीरो वदन तप सों, देह रही झुराय।
पंचवर्गी भिक्षु सुनि यह पास प्रभु के आय
बहुत चाह्यौ रोकिबो बहु भाँति यों समझाय-
'बात है सब लिखी क्यों नहिं पढ़त शास्त्र उठाय।
सुनौ, श्रुति के ज्ञान सों बढ़ि सकैं मुनिहुँ न जाय।
ज्ञान भाखत जो हमारो ज्ञानकांड महान्
क्षुद्र मानुष पायहै बढ़ि कहाँ तासों ज्ञान?
ब्रह्म निष्क्रिय, सर्वगत, सत् और चित् आनंद,
अपरिणामी, निर्विकार, निरीह, अज, निर्द्वंद्व।
कहत श्रुति यों, राग तजि औ कर्म को करि नाश,
अहंकार विमुक्त ह्नै निरुपाधि स्वयंप्रकाश,
जीव बंधन काटि क्रमश: ब्रह्म में मिलि जात।
ब्रह्मविद्या पढ़ौ तो तुम जानिहौं सब बात,
असत् ते सत् ओर कैसे जीव यह चलि जाय
लहत पुनि चिर शांति कैसे विषयद्वंद्व विहाय।'
सुनी तिन की बात प्रभु चुपचाप सीस नवाय
भयो पै परितोष नहिं, चट दिए पाँव बढ़ाय।