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पराभवसुत्तं 1

पराभवसुत्तं

एवं मे सुतं | एकं समयं भगवा सावत्थियं विहरति
जेतवने अनाथपिण्डिकस्स आरामे || अथ खो अञ्ञतरा
देवता अभिक्कन्ताय रत्तिया अभिक्कन्तवण्णा केवलकप्पं
जेतवनं ओभासेत्वा येन भगवा तेन उपसंकमि | उपसंकमित्वा
भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं अट्ठासि || एकमन्तं ठिता
खो सा देवता भगवन्तं गाथाय अज्झभासि- -


असे मी ऐकलें आहे | एके समयीं भगवान् श्रीवस्ती येथें जेतवनांत अनाथपिण्डिकाच्या आरामांत राहत होता || तेव्हां रात्र संपत आली असतां एक अत्यंत सुंदर देवता सर्व जेतवनं प्रकाशित करून भगवान् होता तेथें आली | तेथें येऊन भगवन्ताला नमस्कार करून एका  बाजूस उभी राहिली|| एका बाजूस उभी राहून ती देवता भगवन्ताला पद्यांत म्हणाली -

पराभवन्तं पुरिसं मयं पुच्छाम गोतमं|
भगवन्तं पुठ्ठमागम्म, किं पराभवतो मुखं||१||

आम्ही भगवान् गोतमाला विचारण्यासाठीं आलों आहोंत व पराभव पावणारा पुरूष कोणता हें वाचारतों | पराभवाचें कारण काय ||१||

सुविजानो भवं होति, सुविजानो पराभवो|
धम्मकामो भव होति, धम्मदेस्सी पराभवो ||२||

(भगवान् म्हणाला) वृद्धिंगत होणारा पुरूष सहज जाणतां येतो | पराभव पावणाराहि सहज जाणता येतो || वृद्धिंगत होणारा धर्मपरायण असतो | पराभव पावणारा धर्माचा द्वेष करितो ||२||

इति हेतं विजानामं, पठमो सो पराभवो|
दुतियं भगवा ब्रुहि, किं पराभवतो मुखं ||३||

(देवता) हा पहिला पराभव आम्हांस समजला | भगवन् दुसरें पराभवाचें कारण कोणतें हें सांग ||३||