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आज द्वार पर आ पहुँचा है जीवंत बसंत

आज द्वार पर आ पहुँचा है जीवंत बसंत
अपने अवगुंठित कुंठित जीवन में
मत करो विडंबित उसको।

आज खिलने दो ह़दय-कमल को,
आज भूलो अपना-पराया भूलो
इस संगीत-मुखरित गगन में
अपनी गंध तरंगित कर डालो
इस बहिर्जगत में खोकर दिशा
दो विखेर माधुर्य चतुर्दिक।

अति निविड़ वेदना वन के अंतर में
आज पल्‍लव पल्‍लव से मुखरित रे--
दूर गगन में किसकी राह निहार
आज व्‍याकुल वसुंधरा सजती रे।

मेरे प्राणों को सिहराए दक्षिणी हवा
किसे द्वार-द्वार पर देती दस्‍तक,
यह सौरभ-विह्वल रजनी
किन चरणों के धरणीतल में जाग रही।

ओ रे सुंदर वल्‍लभ, कांत
तेरा गंभीर आह्वान किसके लिए।

गीतांजलि

रवीन्द्रनाथ ठाकुर
Chapters
मेरा मस्तक अपनी चरणधूल तले नत कर दो मैं अनेक वासनाओं को चाहता हूँ प्राणपण से कितने अनजानों से तुमने करा दिया मेरा परिचय विपदा से मेरी रक्षा करना अंतर मम विकसित करो प्रेम में प्राण में गान में गंध में तुम नए-नए रूपों में, प्राणों में आओ कहाँ है प्रकाश, कहाँ है उजाला मुझे झुका दो, मुझे झुका दो आज द्वार पर आ पहुँचा है जीवंत बसंत अपने सिंहासन से उतर कर तुम अब तो मुझे स्वीकारो नाथ जीवन जब सूख जाए अपने इस वाचाल कवि को विश्व है जब नींद में मगन वह तो तुम्हारे पास बैठा था तुम लोगों ने सुनी नहीं क्या मान ली, मान गयी मैं हार एक-एक कर गाते-गाते गान तुम्हारा प्रेम तुम्हारा वहन कर सकूँ हे सुंदर आए थे तुम आज प्रात जब तुम्हारे साथ मेरा खेल हुआ करता था