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अध्याय ८

इस तरह सोलहों सिंगार करके नागवती जब उसके पास जाकर खड़ी हो गई तो उसे देख कर फकीर को और भी नशा चढ़ गया।

 

“क्यों मेरी जान! आज तो तुम पर आँख ठहरती ही नहीं!” उसने कहा।

 

“मेरा बारह साल का व्रत पूरा होने को आया है।“ नागवती ने जवाब दिया।

 

यह सुनते ही फकीर खुशी से उछल पड़ा और चाहा कि उसे अपनी गोद में उठा ले। लेकिन नागवंती ने उसे रोकते हुए कहा

 

”ठहरोजरा ठहरो! अगर तुमने मुझे छुआ भी तो तुम्हारा सिर टूक-टूक हो जाएगा। व्रत पूरा होने में अभी नौ दिन की हैं। इसलिए इन नौ दिनों तक तुम किसी तरह सब्र  करो। उसके बाद मैं कहीं भागी तो नहीं जा रही हूँ।“

 

“तो क्या व्रत के बाद तुम मेरी इच्छा पूरी करोगी?” फकीर ने पूछा।

 

“हाँ! लेकिन उसके पहले एक बात पूछना चाहती हूँ।“ नागवती ने कहा।

 

“पूछो! खुशी से पूछो! तुम्हें कौन रोकता है?' फकीर ने कहा।

 

“तो मुझे बता दो कि तुम्हारी जान कहाँ रखी है? क्योंकि अगर तुमको किसी ने मार डाला तो फिर कौन मेरी खबर लेगा?”नागवती ने कहा।

 

तब फकीर ने हँसते हुए कहा

 

“अरी पगली ! मुझे कोई नहीं मार सकता। क्योंकि मेरी जान ऐसी जगह छिपी है कि किसी को उसका पता नहीं लग सकता। मेरी जान के बारे में तुम कुछ फिक्र न करो! मैंने उसकी खूब अच्छी हिफाजत कर रखी है।“ फकीर ने उसे धीरज बँधाया।

 

नागवती ने मुँह फुला कर कहा “मुझे कैसे विश्वास हो कि तुम्हारी जान को कोई खतरे में नहीं डाल सकता ! हाँ, तुम अगर मुझे बता दो कि तुम्हारी जान कहाँ छिपी है, तो मुझे भरोसा हो जाए।“

 “वह ऐसी जगह छिपी है जहाँ किसी इन्मान की तो बात ही क्या, देवताओं तक की पहुँच नहीं हो सकती। क्यों, अब तुमको विश्वास होता है कि नहीं?" फकीर ने जवाब दिया।

 

“अगर वह ऐसी जगह रखी है तो फिर बता देने में हर्ज क्या है।" नागवती ने गुस्सा दिखा कर कहा।

 

तब उस को राजी करने के ख्याल से फकीर ने अपने प्राणों का रहस्य बताना शुरू कर दिय

 

“सात सागर पार पत्थरों का देश है। पत्थरों के उस देश में पत्थरों का एक किला है। उस किले के बीच लोहे का किला है। उस किले में पाँच सौ बेल के पेड़, तीन सौ कटहल के पेड़, नौ सौ साल के पेड़ और सात सौ नीम के पेड़ हैं। इन पेड़ों के बीचों-बीच एक कलमी आम का पेड़ है। उस पेड़ के खोखले में सात बरों के छत्ते हैं। सब से आखिरी छत्ते में सोने का पिंजड़ा है। पिंजड़े में पाँच रंगों वाला सुग्गा है। उस सुग्गे की गर्दन में मेरी जान छिपी है। जब तक उस तोते के तन में प्राण रहेंगे, मैं भी नहीं मरूँगा।“

 

फकीर ने नागवती को समझाया। यह सुन कर नागवती ने बहुत खुशी जताई। लेकिन मन में उसके सारे मनसूबों पर पाला पड़ गया। उसका दुधमुँहा बच्चा सातों सागर पार कर, सभी क़िले लाँघ कर उस सुग्गे को कैसे पकड़ लाएगा? वह फकीर को मार कर उसको कैद से कैसे छुड़ाएगा ! तिस पर व्रत पूरा होने में सिर्फ आठ ही दिन बाकी हैं। तो भी फकीर ने जो कुछ बताया वह एक पुरजे पर लिख कर नागवती ने बुढ़िया मालिन के द्वारा अपने लड़के को पहुंचा दिया। वह पुरजा देखते ही बालचन्द्र ने बुढ़िया से कहा

 

“नानी ! पिताजी ने बहुत लोगों को उधार दिया था। उसकी मोहलत बीती जा रही है। इसलिए मैं जाता हूँ। रुपए वसूल कर लाऊँगा । खाना पका कर मुझे कुछ कलेवा दे दो!”

 

मालिन ने उसकी बात सच मान ली। उसने तुरन्त खाना पका कर उसे खिला दिया और कलेवा भी गठरी में बाँध दिया। बालचन्द्र झट वहाँ से चल दिया और चलते चलते दो तीन दिनों में तीन चार नगरों को पीछे छोड़ कर समुन्दर के किनारे पहुँच गया। वह वहाँ जाकर बारह शाख वाले एक बड के नीचे बैठ कर आराम करते हुए इस तरह सोचने लगा

 

“हाय! आठ दिन की अवधि में दो तीन दिन तो यों ही बीत गए। मैं बिना किसी नाव के यह भयङ्कर समुद्र कैसे पार करूँ? कहीं बाकी दिन भी बीत गए तो फिर सब कुछ चौपट हो जाएगा। हाय ! अब मैं क्या करूँ ?” बालचन्द्र गहरी चिंता में पड़ गया।

 

इतने में उसे पेड़ पर चिड़ियों की चीख-पुकार सुनाई पड़ी तो उसने सिर उठा कर देखा। उसे एक बहुत बड़ा काला नाग पेड़ पर चढ़ता दिखाई दिया। तब उसने अपनी तलवार निकाल कर साँप पर वार किया। उस साँप ने उस पर लपक कर उसे डसा और वार के कारण खुद भी तड़प कर जान दे दी। थोड़ी देर में जहर  बालचन्द्र के खून में फैल गया। उसके अङ्ग ऐंठ गए। फेन उगलते हुए वह वहीं ठण्डा हो गया।

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बालचन्द्र के मरते ही श्रीनगर में उसके लगाए हुए बेले के पौधे सूख गए। तुरन्त नागवती की छहों बहनों ने जान लिया कि अब बालचन्द्र संसार में नहीं रहा। वे धाड मार मार कर रोने लगीं।

 

थोड़ी देर बाद दो बहुत बड़े पंछी अपनी चोंचों से एक हाथी को उठाए, समुन्दर पर से उड़ते हुए उस वट-वृक्ष के पास आए। बालचन्द्र ने इन्हीं पंछियों के बच्चों को बचाने के लिए अपने प्राण अर्पण किए थे। वे पंछी अब तक कई बार बच्चे जन चुके थे। लेकिन बार बार वह महासर्प उन्हें निगल कर भाग जाता था। लेकिन इस बार उनके बच्चे बच गए। पंछियों ने पेड़ के नीचे मरे पड़े हुए भयङ्कर साँप को देखा। बगल में बालचन्द्र की लाश पड़ी थी और उसकी खून से लथ पथ तलवार भी दिखाई दी। बस, सारा किस्सा समझ में आ गया।

 

तब नर पक्षी तुरन्त उड़ कर सञ्जीवन-पर्वत पर पहुँच गया। दूसरे दिन सबेरा होते होते वह सञ्जीवनी जड़ी ले आया। उसने वह जड़ी जब मरे हुए बालचन्द्र की नाक पर धर दी तो वह झट आँख मलते हुए उठ बैठा।

 

उसके उठते ही श्रीनगर में बेले के पौधे भी लहलहाने लग गए। नागवती की बहनों के आनन्द का ठिकाना न रहा। सारे शहर में उत्सव मनाया गया। तब उन पंछियों ने बालचन्द्र से पूछा

 

“हे वीर पुरुष ! तुमने हमारे बच्चों की जान बचाई है। बताओ, इसके बदले तुम्हारे लिए हम क्या करें?'

 

“मुझे सात सागर पार पत्थरों के देश में जाना है।“ बालचन्द्र ने जवाब दिया।

 

“तो आओ, हम तुम्हें वहाँ पहुँचा देते हैं। हम तो रोज़ वहाँ आया-जाया करते हैं।“ पंछियों ने कहा।

 

यह कह कर वे पंछी एक ताड़ का पेड़ उखाड़ लाए। उन्होंने अपनी चोंच से उस पेड़ के बीच तने में खोखला बना दिया और बालचन्द्र को उसमें लेट जाने को कहा। फिर दोनों पंछी उसके दोनों सिरे चोंच से पकड़ कर उड़ने लगे। वे इस तरह उड़ते उड़ते सातों सागर पार कर पत्थरों के देश में, पत्थरों के किले लाँध कर लोहे के किले के बीच जंगल में पहुँचे और वहाँ बालचन्द्र को जमीन पर रख दिया। वह जंगल बहुत घना था।

 

बालचन्द्र अपनी माँ का नाम लेते हुए, तलवार के एक एक वार से एक एक पेड़ को काटता हुआ मुश्किल से आगे बढ़ा और किसी न किसी तरह कलमी आम के पेड़ के पास पहुँचा। उसने उसे भी एक ही बार में काट डाला। तब उसे बरों के छत्ते दिखाई दिए। लेकिन इतने में उन पंछियों ने जो यह सब देखते वहीं खड़े थे, उसे मना करते हुए कहा-

 

'ठहरो! क्या कर रहे हो? तुमने वह पेड़ क्यों काट डाला ! उसी में भुतहे फकीर की जान रखी है। अगर उसका बाल भी बाँका हुआ तो फकीर तुम्हें जीता न छोड़ेगा।'

 

'मैं फकीर के ही कहने से यहाँ आया हूँ। फकीर ने ही मुझे अपनी जान लाने के लिए भेजा है।“ बालचन्द्र ने जवाब दिया।

 

“तुम उसकी जान ले कैसे जाओगे? उन छत्तों में जहरीले बरे हैं। उनके डङ्क की चोट खाकर कोई भी नहीं जी सकता।“ उन पंछियों ने कहा।

 

“मैं उन्हें अपनी तलवार से मार ड.लँगा।' बालचन्द्र ने जवाब दिया।

 

“उन लाखों बरों को तुम कैसे मारोगे? यह काम तुमसे होने वाला नहीं। क्यों बेकार जान गंवाते हो? चलो, चुपचाप लौट चलें।' उन पंछियों ने सलाह दी।

 

“तो मैं यहीं अपनी जान दे दूंगा। लेकिन फकीर की जान वाला सुग्गा लिए बिना यहाँ से नहीं,लौटूंगा। अगर चाहो तो तुम दोनों लौट जाओ।' बालचन्द्र ने हठ किया।

तब उन पंछियों ने थोड़ी देर तक आपस में कानाफूसी करके एक अच्छा सा उपाय सोचा। नर पक्षी ने बालचन्द्र को ले जाकर एक घनी झाड़ी में छिपा दिया। उसके बाद उसने उस आम के पेड़ को एक लात मारी। तुरन्त छत्तों को धक्का लगा और बरें सन्न की आवाज करते हुए उड़ने लगे। तब मादा पक्षी ने पूरी ताकत लगा कर अपने पंख फड़फड़ाए। उसके इस तरह पंख फड़फड़ाने से ऐसी जोर की हवा चली कि उससे वे सब ऐसी जोर की हवा चली कि उससे वे सब बरें मीलों दूर तक उड़ गए। तब नर पक्षी अपनी चोंच से उस खोखले में का पिंजड़ा उठा लाया। उसने उसे झाड़ी में बैठे हुए बालचन्द्र के हाथ में दे दिया और कहा-

 

“बाबा ! अब तक फकीर को मालूम हो गया होगा कि उसकी जान किसी की मुट्ठी में पड़ गई है। इसलिए वह तुरन्त यहाँ आ जाएगा। गर अब जरा भी देर करोगे तो हमारी जान भी खतरे में पड़ जाएगी। इसलिए उस सुग्गे को तुरन्त अपने काबू में कर लो!” उन्होंने उसे चेता दिया।

 

तुरन्त बालचन्द्र ने सुग्गे को पिंजड़े से निकाल लिया। उसने अपने दोनों कानों के कुण्डल निकाल कर उनसे उसके दोनों पैरों में बेड़ी सी पहना दी। बस, वहाँ नगवाडीह में फकीर के दोनों पैर निकम्मे हो गए। उसने सोचा

 

“या तो किसी दुश्मन ने मेरी जान चुरा ली है, या मेरा सुगा छूट कर वाहर उड़ते हुए किन्हीं लता-बेलों में फँस गया है।“

 

इसके बाद वे पंछी बालचन्द्र को फिर ताड़ के खोखले में बिठा कर घर की ओर उड़ चले। सातों सागर पार कर वे वट-वृक्ष के पास आ पहुँचे। वहाँ उन्होंने अपने बच्चों को चारा चुगाया।

 

फिर बालचन्द्र से कहा- “आओ, अब हम तुम्हें घर पहुँचा दें !'

 

लेकिन बालचन्द्र ने कहा कि मैं पैदल ही चला जाऊँगा और उनसे कृतज्ञता जता कर बिदा ली। चार दिन तक लगातार चलने के बाद बालचन्द्र नगवाडीह में बुढ़िया मालिन के घर जा पहुँचा

 

“क्यों, रुपए वसूल कर आए बेटा?” बुढ़िया ने पूछा।

 

“नहीं, मुझे देखते ही कर्जदार सब जहाँ के तहाँ भाग गए। इसलिए मैंने कागज-पत्र सब फाड़ दिए और चुपके से लौट आया।“बालचन्द्र ने जवाब दिया यह सुन कर बुढ़िया रोने-धोने लगी।

 

तब बालचन्द्र ने उसे दिलासा देते हुए कहा ”रोओ नहीं, नानी! भगवान की कृपा से हम कुछ ही दिनों में मालामाल होने वाले हैं।“

 

इसके बाद बालचन्द्र हाथ में पिंजड़ा लिए प्यारी बाई के घर जा पहुंचा। बाहर एक नौकरानी कोल्हू में तेल र रही थी। बालचन्द्र पिंजड़ा हाथ में लिए उछल कर कोल्हू पर चढ़ गया और बैल के साथ साथ चक्कर लगाने लगा। बालचन्द्र ने बैल को और भी जल्दी जल्दी चलाया।

 

वहाँ फकीर भी वेग से चक्कर मारने लगा।

 

उसके बाद बालचन्द्र सुग्गे को हाथ में लेकर बाग में फकीर के नजदीक गया।

 

“अरे! तू मेरी जान चुरा लाया है। ला, वह मुझे दे दे!' फकीर ने कहा।“

 

“अच्छा, अच्छा, देता हूँ, जरा ठहर ! पहले यह तो बता कि नागवती तेरे क्या होती है?” बालचन्द्र ने पूछा।

 

“वह तो मेरी बीबी है।“ फकीर ने जवाब दिया।

 

यह सुन कर बालचन्द्र को बहुत गुस्सा आ गया। उसने सुग्गे का गला पकड़ कर दबाया। तब फकीर

 

“हाय ! हाय!” करता दोनों हाथ जोड़ कर बोला—

 

“अरे, मुझे न मार ! नागवती मेरी माँ होती है।“

 

तब बालचन्द्र ने कहा,“फकीर | मैंने सुना है कि तुम बहुत से मंतर-तंतर जानते हो। मुझे भी एकाध मन्तर बता दो न!”

 

“मैं अपने मंतर किसी को नहीं बताता।“ फकीर ने कहा।

 

“तब मैं इस सुग्गे की गरदन मरोड़े देता हूँ।' बालचन्द्र ने तोते का टेटुआ पकड़ा। तब लाचार होकर फकीर ने अपने सारे मंतर बालचन्द्र को बता दिए। उसने अपनी जादू की लकड़ी, छड़ी वगैरह बालचन्द्र को दे दी और इस्तेमाल भी सिखा दिया। फिर उसने पत्थर बने हुए बालचन्द्र के पिता को और सारी सेना को जिन्दा किया।

नागवती कैद से छूट गई। बालचन्द्र ने उसे पालकी में बिठाया। एक ओर फकीर और दूसरी ओर प्यारीबाई से उसे ढोकर ले चलने के लिए कहा। बेचारों को लाचार होकर वैसा ही करना पड़ा। आख़िर बुढ़िया मालिन को भी साथ लेकर सभी वहाँ से चल दिए।

 

वे नयन-नगर से होते हुए तोतानगर जा पहुँचे। वहाँ बालचन्द्र ने अपने माँ-बाप की इजाजत लेकर उस नगर की राजकुमारी से जिसे उसी ने जिलाया था बड़ी धूम-धाम के साथ ब्याह कर लिया। वहाँ से गंगा-नगर जाकर उसने वहाँ की राजकुमारी से भी ब्याह कर लिया।

 

इसके बाद सभी श्रीनगर जा पहुंचे। उन को देख कर नागवती की बहनें खुशी के मारे पागल सी हो गईं। सिर्फ नागवती ही कैद से नहीं छूटी; बल्कि उनके पति भी फिर से जी कर घर लौट आए। छहों बहनों ने फिर हाथों में चूड़ियाँ पहन ली और माँग में सिंदूर लगा उनका खोया हुआ सुहाग उन्हें मिल गया।

 

लेकिन इस आनन्द के समय भी एक बखेड़ा उठ खड़ा हुआ। नागवती के पति ने कहा

 

“यह इतने दिन तक फकीर की कैद में थी। कैसे विश्वास करूँ कि इसका पातिव्रत्य बना हुआ है। मैं इसे स्वीकार नहीं कर सकता।' तब बालचन्द्र ने लिया।

 

खौलते हुए तेल में अपनी अंगूठी डाल दी और माँ से निकालने को कहा। नागवती ने वैसा ही किया।

 

तब उसके पति ने कहा “न जाने, यह फकीर के निकट कौन कौन से मंतर सीख आई है! मैं इस पर विश्वास नहीं कर सकता।“

 

तब बालचन्द्र ने एक बहुत बड़ा गढ़ा खुदवाया और उसमें धधकती आग जलवा दी। नागवती उस आग में कूद पड़ी। पर उसका बाला भी बाँका न हुआ। न उसका आँचल ही जला; न उसका सिंदूर ही मिटा। बहुत देर तक उस आग में रह कर नागवती हँसती हुई बाहर निकली। तब उसके पति को विश्वास हो गया। उसे बहुत आनंद हुआ। सारे नगर में खुशियाँ मनाई जाने लगीं।

 

बड़े बड़े जुलूस निकाले गए। चार पाँच दिन इसी तरह बिता कर बालचन्द्र फकीर के साथ फिर नगवाडीह गया। उसने वहाँ का सारा कीमती सामान गाड़ियों पर लाद कर श्रीनगर रवाना कर दिया।

 

तब फकीर ने कहा-“अब मेरा सुग्गा मुझे दे दो न?”

 

लेकिन बालचन्द्र ने नहीं दिया। तब फकीर ने उतावली से झपट कर छीन लेना चाहा। नतीजा यह हुआ कि सुग्गे का सिर तो बालचन्द्र के हाथ में रह गया और धड़ फकीर के हाथ आ गया।

 

तुरन्त भुतहे फकीर ने “या अल्ला!' 'या खुदा!” कहते हुए जान छोड़ दी।

 

तब बालचन्द्र ने फकीर की लाश को दफनवा दिया और उसकी कब्रगाह के चारों ओर एक सुन्दर बगीचा लगवा दिया। वहीं उसने एक कोठी बनवा कर उसमें फकीर की सारी जायदाद रखवा दी। उसके बाद उसने बहुत से साधु सन्यासियों और फकीरों को बुला कर दान धर्म किया।

 

फिर उसने फकीर की कब्र पर दिया बालने के लिए तीन फकीरों को नियुक्त किया और उन्हें फकीर की सारी जायदाद दे दी। इसके बाद बालचन्द्र श्रीनगर लौट कर सुख से राज करने लगा। वह अपने माँ-बाप के साथ बहुत दिन तक जीता रहा।