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अध्याय ७

बाघ और सियार में बातचीत होने लगी। सियार ने बाघ से कहा

 

“बाघ-मामा! बाघ-मामा! कल तो समझ लो कि मेरे लिए दावत है। तोतानगर की राजकुमारी जो राज-व्रण से पीडित है कल मर जाएगी। कल तो मैं खूब मौज उड़ाऊँगी।'

 

“अच्छा तो सियार, क्या इस राज-व्रण की कोई दवा ही नहीं है ?' बाघ ने पूछा ।

 

“ है क्यों नहीं ? इस मंदिर की दीवार की दरार में एक सात पत्तों वाला पौधा उगा हुआ है। अगर इन पत्तों को उस व्रण पर बाँध कर तीन दिन तक रखा जाय तो फिर राजकुमारी बिलकुल चंगी हो जाए।' सियार ने जवाब दिया।

 

बालचन्द्र ने सारी बातें सुन ली। उसने तड़के ही उठ कर दीवार की दरार के पौधे के सातों पत्ते तोड़ कर झोली में डाल लिए।

 

फिर वहाँ से चल कर पहर दिन बीतते बीतते तोतानगर में भठियारिन के घर जा पहुँचा।

 

“नानी ! मैं तुम्हें एक अशी दूंगा। जल्दी से रसोई बना कर मुझे खिला दो।' बालचन्द्र ने भठियारिन से कहा।

 

“हाय बेटा ! मैं अभी रसोई कैसे बनाऊँ ? हमारी राजकुमारी राज-व्रण से पीडित है। सुना है कि उसकी हालत बहुत न जुक है। मुझे तुरन्त वहाँ जाना है। तुम आज किसी दूसरी जगह खाने का इन्तजाम कर लो !” भठियारिन ने कहा।

 

अगर तुम मुझे रसोई बना कर खिला दो तो मैं तुम्हारी राजकुमारी को चंगी कर दूंगा!' राजकुमार ने कहा।

 

“बड़े बड़े वैद्यराज आए और निराश हो कर लौट गए। उस व्रण को तुम क्या  अच्छा करोगे? अगर तुमको उतनी भूख लग रही हो तो रात की रसोई बची है। कलेवा कर लो!”

 

भठियारिन ने कहा और राजकुमार के लिए खाना परोस दिया। खाते खाते राजकुमार ने पूछा

 

“नानी ! मैं भी तुम्हारे साथ किले में आकर राजकुमारी का इलाज करूँगा। मुझे भी ले चलो न?' भठिया रिन ने उसकी बात मान ली।

 

राजकुमार जब किले में गया तब तक राजकुमारी को ज़मीन पर लिटा दिया गया था। क्योंकि वैद्यों को नब्ज़ का पता नहीं चल रहा था। तब बालचन्द्र ने राजा से कहा कि मुझे एक बार राजकुमारी को देखने दीजिए। राजा ने पहले तो उसकी तरफ तिरस्कार-भाव से देखा। लेकिन आखिर उसने उसकी बात मान ली।

 

बालचन्द्र ने नज़दीक जाकर घाव को अच्छी तरह देखा-भाला। फिर उस पर अपनी झोली में से सियार की बताई पत्तियाँ निकाल कर बाँध दीं। धीरे धीरे राजकुमारी के मुख का तेज लौट आया। नब्ज़ चलने लगी। वैद्यों ने कहा-

 

“नब्ज़ चल रही है। आज के लिए कोई खतरा नहीं है।“ दूसरे दिन भी यही हाल रहा। वैद्यों ने कहा-

 

“आज भी कोई खतरा नहीं है।“

 

तीसरे दिन राजकुमार ने । तड़के उठ कर पट्टी खुलवा दी। घाव का कहीं निशान भी न था। देख कर सब लोग - दंग रह गए। -

 

“तुम कोई मामूली आदमी नहीं हो। भगवान ने ही तुम्हें इस रूप में भेजा है।“

 

राजा ने बालचन्द्र से कहा। सारे शहर में यह ख़बर बिजली की तरह दौड़ गई और लोग राजकुमार के दर्शन के लिए झुण्ड के झुण्ड आने लगे। राजा ने खुशी के मारे अपनी लड़की और राजकुमार को एक पालकी में चढ़ा कर नगर के बाजारों में बाजे गाजे के साथ जुलूस निकाला। पन्द्रह दिन वहाँ रहने के बाद राजकुमार ने राजा से विदा माँगी। तब राजा ने कहा-

 

“बेटा ! तुम्हीं ने मेरी लड़की की जान बचाई है। इसलिए उचित है कि तुम उससे शादी भी कर लो।“

 

तब बालचन्द्र ने अपना सारा किस्सा सुना कर कहा-

 

“मैं जब फकीर की कैद से अपनी माँ को छुड़ा कर लौटूंगा, तभी आपकी लड़की से शादी कर सकूँमा।'

 

फिर वह राजा से विदा लेकर चला और शीघ्र ही मैनानगर पहुँचा। वहाँ खा पीकर थोड़ी देर आराम किया और फिर नगवाडीह की ओर चला। थोड़ी दूर में उसे फकीर की मसजिद के गुंबज दिखाई देने लगे।

 

बालचन्द्र ने सोचा-“हाय! उसी मसजिद में मेरी माँ बंदिनी है। इसी जगह पर मेरे पिताजी पत्थर बन गए थे। इसी समय नगवाडीह की सरहद पर पहरा देने वाली भूतनी ने बालचन्द्र को आते देख लिया। तुरंत उसने सोलह वर्ष की युवती कन्या का रूप धर लिया और इठलाती, बल खाती, अनेक हाव-भाव दिखलाती बालचन्द्र के सामने आई। उसे देखते ही बालचन्द्र को तुरन्त साँप की चेतावनी याद आ गई। उसने जान लिया कि यही पहरा देने वाली भूतनी है। उसने झट कमर से कटार निकाल कर उसे मार डालना चाहा।

 

यह देख कर उस भूतनी ने थर थर काँपते हुए कहा

 

“राजकुमार! मुझे मत मारो ! मैं तुम्हारे पाँव पड़ती हूँ। अगर मुझे छोड़ दो तो मैं तुम्हें ऐसा उपाय बता हूँ जिससे तुम अपनी माँ से मिलो। अच्छा, तो झट वह उपाय बता दो!” बालचन्द्र ने कहा।

 

“नगवाडीह में एक बुढ़िया मालिन रहती है। वही फकीर के लिए फूलों के गजरे गूंथ कर ले जाया करती है। तुम उसके घर जाकर प्यास बुझाने के लिए पानी माँगो। तब वह पूछेगी कि बेटा! तुम कौन हो ? तुम बताना कि मैं वीरपाल हूँ। मेरा पिता माली शूरपाल था और मेरी माँ का नाम मुनिया था। तुम यह भी बता देना कि मेरे माँ बाप दोनों मर गए हैं। फिर तुम्हें अपनी माँ के दर्शन पाने का उपाय मिल जाएगा।“

 

यह कह कर उस भूतनी ने अपनी छड़ी बालचन्द्र को दे दी और जान बचा कर भाग गई। बालचन्द्र ने बुढ़िया मालिन के घर जाकर भूतनी के कहे अनुसार किया। तुरन्त उस बुढ़िया ने

 

'हाय ! मेरे पोते हो तुम तो!" कह कर उसको गले से लगा लिया। 'क्या तुम्हारे माँ-बाप कुशल से हैं ?' फिर उसने पूछा।

 

“दोनों कभी के चल बसे!' बालचन्द्र ने उदास चेहरा बना कर कहा।

 

यह सुन कर उस बुढ़िया ने भी थोड़ी देर तक आँसू बहाए और फिर पोते से कहा कि “बेटा ! अब तुम यहीं रह जाओ।“

 

बालचन्द्र तो यह चाहता ही था। एक दिन वुढ़िया मालिन फकीर के लिए गजरे गूंथ रही थी। तब बालचन्द्र ने कहा

“नानी ! मैं भी फूलों के अच्छे अच्छे गजरे बना सकता हूँ। 'तो बेटा! तुम भी गूंथो!”

उसकी नानी ने कहा। तब बालचन्द्र ने बड़ी चतुराई से तरह तरह के बड़े-बड़े गजरे गूंथे जिससे उन्हें देखते ही फकीर का मन खुश हो जाए। फिर उसने अपनी माँ नागवती के के लिए एक भद्दा सा गजरा बनाया और उसके बीच में अपनी अँगूठी पिसे कर छिपा दी। बुढ़िया मालिन उन गजरों को लेकर फकीर के पास गई। उन गजरों को देख कर फकीर ने खुश होकर पूछा

 

“बुढ़िया! ये गजरे आज किसने गूंथे हैं ?”

 

 बुढ़िया ने जवाब दिया “मेरे नाती ने गूंथे हैं। वह दो तीन दिन हुए पच्छिम से आया है।“

 

तब फकीर ने मालिन का वेतन बढ़ा दिया और कहा

 

'जा! अपने नाती की अच्छी तरह देख-भाल कर! लड़का होनहार मालूम पड़ता है।“ तव मालिन ने नागवती के पास जाकर उसका गजरा उसे दे दिया।

 

“मैं गजरा लेकर क्या करूँगी?” यह कह कर उसने गजरे को दूर फेंक दिया। गजरा टूट गया और अँगूठी नीचे गिर पड़ी। उस अंगूठी को नागवती ने देखते ही पहचान लिया। उसे ऐसा लगा जैसे उसने अँगूठी को नहीं, अपने लड़के, को, ही देखा हो। उसे आनन्द हुआ और साथ साथ दुख भी उसने सिसक कर रोते हुए कहा-

 

“हाय ! ।बेटा! तो यह अँगूठी तुमने भेजी है ? तुम मुझे ढूँढ़ते यहाँ तक पहुँच गए ? बेटा! तुम यहाँ क्यों आए ? इस पापी के हाथों से तुम कैसे बचोगे? यह तो तुम्हारे पिता और उनकी सारी सेना को हड़प गया है।“

 

रोते हुए उसने अंगूठी अपनी उँगली में पहन ली। अब बालचन्द्र रोज़ रोज़ नए ढंग के गजरे गूंथ कर फकीर को खुश करने लगा। एक दिन फकीर ने मालिन से कहा

 

“बुढ़िया ! तू अपने नाती को यहाँ एक बार लाकर मुझे दिखा दे !”

 

दूसरे दिन गजरे लाते वक्त बुढ़िया ने बालचन्द्र को अपने साथ लाकर फकीर से मिला दिया। फकीर ने उसे देख कर बहुत ही खुश होकर कहा

 

“अरे छोकरे! तू गजरे तो बहुत अच्छे गूंथता है ! मैं तुझसे बहुत खुश हूँ। बोल, तु क्या चाहता है? हीरे-जवाहरात कि हाथी घोड़े?”

 

“हुजूर! मैं हाथी-घोडे और सोना- जवाहिरात लेकर क्या करूँगा? मैंने सुना है कि आपकी एक बारह खंभों वाली बहुत ही सुन्दर मसजीद है। अगर आप मुझे एक बार उसे देखने दीजिए तो बड़ी कृपा होगी। मुझे और कुछ नहीं चाहिए।“ बालचन्द्र ने कहा।

 

“अरे! उस मसजिद में तो श्रीनगर की नागवती रहती है। वह व्रत कर रही है। इसलिए बारह बरस तक मैं उस मसजिद में कदम भी नहीं रख सकता। इसलिए तू और कुछ माँग ले !” फकीर ने जवाब दिया।

 

'हुजूर! आपके वहाँ आने की क्या जरूरत है ? इजाजत हो तो मैं ही खुद जाकर देख आऊँ।“ बालचन्द्र ने कहा।

 

“अरे! उस मसजिद के दरवाजे तो मन्तर से. बँधे हुए हैं। तू वहाँ अकेले कैसे जाएगा? अच्छा ले, तुझे दरवाजा खोलने का मन्तर बताए देता हूँ। तू जाकर मसजिद देख आ।“

यह कह कर फकीर ने राजकुमार को मसजिद का दरवाजा खोलने और बन्द करने का मन्तर बता दिया! थोड़ी ही देर में बालचन्द्र ने मसजिद में प्रवेश किया तो उसने अशोक-वन में सीता की तरह उदास बैठी हुई अपनी माँ को देखा। वह हलके हलके पग धरता हुआ उसके निकट गया।

 

अब तक नागवती ने सिर उठा कर उसकी तरफ़ देखा भी न था। क्योंकि उसका विश्वास था कि फकीर के सिवा वहाँ और कोई नहीं आ सकता? इसलिए उसने पैरों की आहट नजदीक आते देख कड़क कर कहा

 

“फकीर! रुक जा वहीं! ख़बरदार! अगर एक कदम भी आगे बढ़ाया तो तेरा सिर सौ टूक हो जाएगा।“

 

तब बालचन्द्र ने कहा “माँ! मैं फकीर नहीं हूँ। मैं तुम्हारा बेटा हूँ। देख ! मेरी ओर सिर उठा कर देख तो? मैं बालचन्द्र हूँ।“

 

नागवती ने सन्देह के साथ सिर उठा कर देखा और कहा-

 

“मैं कैसे विश्वास करूँ ? हो सकता है, यह फकीर की ही कोई चाल हो!'

 

“नहीं माँ! मैं तुम्हारा बालचन्द्र हूँ। इस दुष्ट पापी फकीर का संहार करके तुम्हारी रक्षा करने के लिए मैं अनेकों कष्ट झेल कर बड़ी दूर से आया हूँ। मैंने बुढ़िया मालिन के हाथों अपनी अंगूठी भी भेजी थी। माँ, तुम त्यर्थ सन्देह में समय नष्ट न करो। अगर मैं जल्दी नहीं लौटूंगा तो फकीर को शक हो जायगा। मुझे तुमसे बहुत सी बातें करनी हैं।“ बालचन्द्र ने दीन-स्वर में कहा।

 

अब नागवती का सारा सन्देह दूर हो गया। उसने तुरन्त अपने लाड़ले लड़के को गले से लगा लिया। माथा सूंघा। उसे चूमते हुए उसका मन भरता ही न था। उसकी आँखों से आँसू की धारा बह चली।

 

“बेटा! तू अभी दुधमुँहा बच्चा है। बारह हजार सेना को कंकड़-पत्थर बना देने वाले फकीर से तू कैसे जीतेगा ? अब तू चुपके से घर लौट जा! मेरी बात मान ले! मुझे भूल जा ! समझ ले कि तेरे माँ नहीं है; तेरी माँ कभी की मर गई है। जा, उनके पास लौट जा जिन्होंने तुझे पाल पोस कर बड़ा किया है। जा बेटा, जा! मैंने आँख भर कर तुझे एक बार देख लिया। यही काफी है।“

 

यह कह कर वह रोने लगी। बालचन्द्र ने बड़ी मुश्किल से उसको धीरज बँधाया और उसके कानों में एक उपाय बतलाया। फिर वह उससे विदा लेकर मसजिद के किवाड़ बन्द कर फकीर के पास लौट आया जैसे वह कुछ जानता ही न हो।

 

“क्यों रे छोकरे! कैसी है मेरी मसजिद ?' फकीर ने पूछा ।

 

“हुजूर, उस मसजिद की सुन्दरता देख कर मैं भूख-प्यास भी भूल गया हूँ। वह जगह छोड़ कर आने का मन ही न चाहता था। बड़ी मुश्किल से यहाँ आया हूँ।“

 

बालचन्द्र ने जवाब दिया। तब फकीर ने ठठा कर हँसते हुए कहा

 

“पगले कहीं के! कहीं मसजिद देखने से भी पेट भरता है ! अरे, पेट भरता है पकवान खाने से और मन को सुख होता है नए-नए राज जीतने से।“ तब बालचन्द्र फकीर से छुट्टी लेकर मालिन के साथ घर गया।

 

दूसरे दिन नागवती ने सबेरे उठ कर नहा धो लिया। फिर रेशमी कपड़े और तरह तरह के गहने पहने। पान लगाया। उसने फकीर के लिए तरह तरह के पकवान बनाए ! सज-धज कर राह देखने लगी कि फकीर अपने बाग में सैर करने का आता है?

 

उसके वहाँ आते ही उसने भोजन करने का न्योता दिया। फकीर ने भर-पेट खाया-पिया। फिर उसने शराब पी, अफ़्रीम खाई और तीन मन गाँजा चिलम में डाल कर फूंकने लगा। उसका मन सातवें आसमान में उड़ने लगा।

 

इसी समय मालिन गजरे लाकर वहाँ रख गई। तब नागवती चूड़ियाँ खनकाती, पायल झनकाती, हीरे-जवाहरात की चमक से आँखों में चकाचौंध पैदा करती, धीरे धीरे चल कर फकीर के निकट आई और मुसकुराती हुई वहाँ खड़ी हो गई।