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भाग 24

 


ब्याह की तैयारी और हंसी-खुशी में ही कई सप्ताह बीत गये और किसी को कुछ मालूम न हुआ। हां कुंअर इंद्रजीतसिंह और आनंदसिंह को खुशी के साथ ही रंज और उदासी से भी मुकाबला करना पड़ा। यह रंज और उदासी क्यों शायद कमलिनी और लाडिली के सबब से हो। जिस तरह कुंअर इंद्रजीतसिंह कमलिनी से मिलकर और उसकी जुबानी उसके ब्याह का हो जाना सुनकर दुःखी हुए, उसी तरह आनंदसिंह को भी लाडिली से मिलकर दुःखी होना पड़ा या नहीं, सो हम नहीं कह सकते क्योंकि लाडिली से और आनंदसिंह से जो बातें हुर्ईं उसमें और कमलिनी की बातों में बड़ा फर्क है। कमलिनी ने तो खुद इंद्रजीतसिंह को अपने कमरे में बुलवाया था मगर लाडिली ने ऐसा नहीं किया। लाडिली का कमरा भी आनंदसिंह के कमरे के बगल में ही था। जिस रात कमलिनी और इंद्रजीतसिंह की दूसरी मुलाकात हुई थी, उसी रात को आनंदसिंह ने भी अपने बगल वाले कमरे में लाडिली को देखा था मगर दूसरे ढंग से। आनंदसिंह अपने कमरे में मसहरी पर लेटे हुए तरह-तरह की बातें सोच रहे थे कि उसी समय बगल वाले कमरे में से कुछ खटके की आवाज आई जिससे आनंदसिंह चौंके और उन्होंने घूमकर देखा तो उस कमरे का दरवाजा कुछ खुला हुआ नजर आया। इन्हें यह जरूर मालूम था कि हमारे बगल ही में लाडिली का कमरा है और उससे मिलने की नीयत से इन्होंने कई दफे दरवाजा खोलना भी चाहा था मगर बंद पाकर लाचार हो गये थे। अब दरवाजा खुला पाकर बहुत खुश हुए और मसहरी पर से उठ धीरे-धीरे दरवाजे के पास गये। हाथ के सहारे दरवाजा कुछ विशेष खोला और अंदर की तरफ झांककर देखा। लाडिली पर निगाह पड़ी जो एक शमादान के आगे बैठी हुई कुछ लिख रही थी। शायद उसे इस बात की कुछ खबर ही न थी कि मुझे कोई देख रहा है।
भीतर सन्नाटा पाकर अर्थात् किसी गैर को न देखकर आनंदसिंह बेधड़क कमरे के अंदर चले गये। पैर की आहट पाते ही लाडिली चौंकी तथा आनंदसिंह को अपनी तरफ आते देख उठ खड़ी हुई और बोली, “आपने दरवाजा कैसे खोल लिया?'
आनंद - (मुस्कराते हुए) किसी हिकमत से!
लाडिली - क्या आज के पहले वह हिकमत मालूम न थी शायद सफाई के लिए किसी लौंडी ने दरवाजा खोला हो और बंद करना भूल गई हो।
आनंद - अगर ऐसा ही हो तो क्या कुछ हर्ज है
लाडिली - नहीं हर्ज काहे का है, मैं तो खुद ही आपसे मिलना चाहती थी मगर लाचारी...।
आनंद - लाचारी कैसी क्या किसी ने मना कर दिया था?
लाडिली - मना ही समझना चाहिए जबकि मेरी बहिन कमलिनी ने जोर देकर कह दिया कि 'या तो तू मेरी इच्छानुसार शादी कर ले या इस बात की कसम खा जा कि किसी गैर मर्द से कभी बातचीत न करेगी'। जिस समय उनकी (कमलिनी की) शादी होने लगी थी उस समय भी लोगों ने मुझ पर शादी कर लेने के लिए दबाव डाला था मगर मैं इस समय जैसी हूं वैसी ही रहने के लिए कसम खा चुकी हूं, मतलब यह है कि इसी बखेड़े में मुझसे और उनसे कुछ तकरार भी हो गई है।
आनंद - (घबराहट और ताज्जुब के साथ) क्या कमलिनी की शादी हो गई?
लाडिली - जी हां।
आनंद - किसके साथ?
लाडिली - सो तो मैं नहीं कह सकती, आपको खुद मालूम हो जायगा।
आनंद - यह बहुत बुरा हुआ।
लाडिली - बेशक बहुत बुरा हुआ मगर क्या किया जाय, जीजाजी (गोपालसिंह) की मर्जी ही ऐसी थी क्योंकि किशोरी ने ऐसा करने के लिए उन पर बहुत जोर डाला था अस्तु कमलिनी बहिन दबाव में पड़ गई, मगर मैंने साफ इंकार कर दिया कि जैसी हूं वैसी ही रहूंगी।
आनंद - तुमने बहुत अच्छा किया।
लाडिली - और मैं ऐसा करने के लिए सख्त कसम खा चुकी हूं।
आनंद - (ताज्जुब से) क्या तुम्हारे इस कहने का यह मतलब लगाया जाय कि अब तुम शादी करोगी ही नहीं?
लाडिली - बेशक!
आनंद - यह तो कोई अच्छी बात नहीं!
लाडिली - जो हो, अब तो मैं कसम खा चुकी हूं और बहुत जल्द यहां से चली जाने वाली हूं, सिर्फ कामिनी बहिन की शादी हो जाने का इंतजार कर रही हूं।
आनंद - (कुछ सोचकर) कहां जाओगी?
लाडिली - आप लोगों की कृपा से अब तो मेरा बाप भी प्रकट हो गया है अब इसकी चिंता ही क्या है?
आनंद - मगर जहां तक मैं समझता हूं तुम्हारे बाप तुम्हें शादी करने के लिए जरूर जोर देंगे।
लाडिली - इस विषय में उनकी कुछ न चलेगी।
लाडिली की बातों से आनंदसिंह को ताज्जुब के साथ ही साथ रंज भी हुआ और ज्यादे रंज तो इस बात का था कि अब तक लाडिली ने खड़े ही खड़े बातचीत की और कुमार को बैठने तक के लिए नहीं कहा। शायद इसका मतलब हो कि 'मैं ज्यादे देर तक आपसे बात नहीं कर सकती'। अस्तु आनंदसिंह को क्रोध और दुःख के साथ लज्जा ने भी धर दबाया और वे यह कहकर कि 'अच्छा मैं जाता हूं' अपने कमरे की तरफ लौट चले।
आनंदसिंह के दिल में जो बातें घूम रही थीं उनका अंदाजा शायद लाडिली को भी मिल गया और जब वे लौटकर जाने लगे तब उसने पुनः इस ढंग पर कहा मानो उसकी आखिरी बात अभी पूरी नहीं हुई थी - “क्योंकि जिनकी मुझ पर कृपा रहती थी अब वे और ही ढंग के हो गये!!”
इस बात ने कुमार को तरद्दुद में डाल दिया, उन्होंने घूमकर एक तिरछी निगाह लाडिली पर डाली और कहा, “इसका क्या मतलब है?'
लाडिली - सो कहने की सामर्थ्य मुझमें नहीं है। हां जब आपकी शादी हो जायगी तब मैं साफ-साफ आपसे कह दूंगी, उस समय जो कुछ आप राय देंगे उसे मैं कबूल भी कर लूंगी!
इस आखिरी बात से कुमार को कुछ हिम्मत बंध गई मगर बैठने की या और कुछ कहने की हिम्मत न पड़ी और 'अच्छा' कहकर वे अपने कमरे में चले आये।