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भाग 13

 


भूतनाथ की अवस्था ने सभों का ध्यान अपनी तरफ खींच लिया। कुछ देर तक सन्नाटा रहा और इसके बाद इंद्रदेव ने पुनः महाराज की तरफ देख के कहा –
“महाराज, ध्यान देने और विचार करने पर सभों को मालूम होगा कि आजकल आपका दरबार 'नाट्यशाला' (थियेटर का घर) हो रहा है। नाटक खेलकर जो-जो बातें दिखाई जा सकती हैं और जिनके देखने से लोगों को नसीहत मिल सकती है तथा मालूम हो सकता है कि दुनिया में जिस दर्जे तक के नेक और बद, दुखिया और सुखिया, गंभीर और छिछोरे इत्यादि पाये जाते हैं, वे सब इस समय (आजकल) आपके यहां प्रत्यक्ष हो रहे हैं, ग्रह-दशा के फेर में जिन्होंने दुःख भोगा वे भी मौजूद हैं और जिन्होंने अपने पैर मंउ आप कुल्हाड़ी मारी वे भी दिखाई दे रहे हैं, जिन्होंने अपने किए का फल ईश्वरेच्छा से पा लिया है वे भी आये हुए हैं और जिन्हें अब सजा दी जायगी वे भी गिरफ्तार किये गए हैं। बुद्धिमानों का यह कथन है कि 'जो बुरी राह चलेगा उसे बुरा फल अवश्य मिलेगा' ठीक है, परंतु कभी-कभी ऐसा भी होता है कि अच्छी राह चलने वाले तथा नेक लोग भी दुःख के चेहले में फंस जाते हैं और दुर्जन तथा दुष्ट लोग आनंद के साथ दिन काटते दिखाई देते हैं, इसे लोग ग्रह-दशा के कारण कहते हैं मगर नहीं, इसके सिवाय और भी बात जरूर है। परमात्मा की दी हुई बुद्धि और विचार-शक्ति का अनादर करने वाले ही प्रायः संकट में पड़कर तरह-तरह के दुःख भोगते हैं। मेरे कहने का तात्पर्य यही है कि इस समय अथवा आजकल आपके यहां तरह-तरह के जीव दिखाई देते हैं, दृष्टांत देने के बदले केवल इशारा करने से काम निकलता है। हां मैं यह कहना तो भूल ही गया कि इन्हीं में ऐसे भी जीव आए हुए हैं जो अपने किए का नहीं बल्कि अपने संबंधियों के किये हुए पापों का फल भोग रहे हैं और इसी से नाते (रिश्ते) और संबंध का गूढ़ अर्थ भी निकलता है। बेचारी लक्ष्मीदेवी की तरफ देखिये जिसने किसी का भी कुछ नहीं बिगाड़ा और फिर भी वह हद दर्जे की तकलीफ उठाकर ताज्जुब है कि जीती बच गई। ऐसा क्यों हुआ इसके जवाब में मैं तो यही कहूंगा कि राजा गोपालसिंह की बदौलत जो बेईमान दारोगा के हाथ की कठपुतली हो रहे थे और इस बात की कुछ भी खबर नहीं रखते थे कि उनके घर में क्या हो रहा है या उनके कर्मचारियों ने उन्हें किस जाल में फंसा रखा है। जिस राजा को अपने घर की खबर न होगी वह प्रजा का क्या उपकार कर सकता है, और ऐसा राजा अगर संकट में पड़ जाये तो आश्चर्य ही क्या है! केवल इतना ही नहीं, इनके दुःख भोगने का एक सबब और भी है। बड़ों ने कहा है कि 'स्त्री के आगे अपने भेद की बात प्रकट करना बुद्धिमानों का काम नहीं है' परंतु राजा गोपालसिंह ने इस बात पर कुछ भी ध्यान न दिया और दुष्टा मायारानी की मुहब्बत में फंसकर तथा अपने भेदों को बताकर बर्बाद हो गये। सज्जन और सरल स्वभाव से ही दुनिया का काम नहीं चलता, कुछ नीति का भी अवलंब करना ही पड़ता है। इसी तरह महाराज शिवदत्त को देखिये जिसे खुशामदियों ने मिल-जुलकर बर्बाद कर दिया। जो लोग खुशामद में पड़कर अपने ही को सबसे बड़ा समझ बैठते हैं और दुश्मन को कोई चीज नहीं समझते हैं, उनकी वैसी ही गति होती है जैसी शिवदत्त की हुई। दुष्टों और दुर्जनों की बात जाने दीजिए, उनको तो उनके बुरे कामों का फल मिलना ही चाहिए, मिला ही है और मिलेगा ही, उनका जिक्र तो मैं पीछे ही करूंगा, अभी तो मैं उन लोगों की तरफ इशारा करता हूं जो वास्तव में बुरे नहीं थे मगर नीति पर न चलने तथा बुरी सोहबत में पड़े रहने के कारण संकट में पड़ गये। मैं दावे के साथ कहता हूं कि भूतनाथ जैसा नेक, दयावान और चतुर ऐयार बहुत कम दिखाई देगा, मगर लालच और ऐयाशी के फेर में पड़कर यह ऐसा बर्बाद हुआ कि दुनिया-भर में मुंह छिपाने और अपने को मुर्दा मशहूर करने पर भी इसे सुख की नींद नसीब न हुई। अगर यह मेहनत करके ईमानदारी के साथ दौलत पैदा किया चाहता तो आज इसकी दौलत का अंदाज करना कठिन होता और अगर ऐयाशी के फेर में न पड़ा होता तो आज नाती, पोतों से इसका घर दूसरों के लिए नजीर गिना जाता। इसने सोचा कि मैं मालदार हूं, होशियार हूं, चालाक हूं, और ऐयार हूं। कुलटा स्त्रियों और रण्डियों की सोहबत का मजा लेकर सफाई के साथ अलग हो जाऊंगा, मगर इसे अब मालूम हुआ होगा कि रंडियां ऐयारों के भी कान काटती हैं। नागर वगैरह के बर्ताव को जब यह याद करता होगा तब इसके कलेजे में चोट-सी लगती होगी। मैं इस समय इसकी शिकायत करने पर उतारू नहीं हुआ हूं बल्कि इसके दिल पर से पहाड़-सा बोझ हटाकर उसे हलका किया चाहता हूं, क्योंकि इसे मैं अपना दोस्त समझता था और समझता हूं, हां, इधर कई वर्षों से इसका विश्वास अवश्य उठ गया था और मैं इसकी सोहबत पसंद नहीं करता था, मगर इसमें मेरा कोई कसूर नहीं। किसी की चालचलन जब खराब हो जाती है तब बुद्धिमान लोग उसका विश्वास नहीं करते और शास्त्र की भी ऐसी ही आज्ञा है, अतएव मुझे भी ऐसा ही करना पड़ा। मैंने इसे किसी तरह की तकलीफ नहीं पहुंचाई परंतु इसकी दोस्ती को एकदम भूल गया, मुलाकात होने पर उसी तरह बर्ताव करता था जैसा लोग नए मुलाकाती के साथ किया करते हैं। हां अब जबकि यह अपनी चालचलन को सुधारकर आदमी बना है, अपनी भूलों को सोचकर पछता चुका है, एक अच्छे ढंग से नेकी के साथ नामवरी करता हुआ दुनिया में फिर दिखाई देने लगा है और महाराज भी इसकी योग्यता से प्रसन्न होकर इसके अपराधों को (दुनिया के लिए) क्षमा कर चुके हैं, तब मैंने भी इसके अपराधों को दिल ही दिल में क्षमा कर इसे अपना मित्र समझ लिया है और फिर उसी निगाह से देखने लगा हूं जिस निगाह से पहले देखता था। परंतु इतना मैं जरूर कहूंगा कि भूतनाथ ही एक ऐसा आदमी है जो दुनिया में नेकचलनी और बदचलनी के नतीजे को दिखाने के लिए नमूना बन रहा है। आज यह अपने भेदों को प्रकट होते देख डरता है और चाहता है कि इसके भेद छिपे के छिपे रह जायं मगर यह इसकी भूल है क्योंकि किसी के ऐब छिपे नहीं रहते। सब नहीं तो बहुत-कुछ दोनों कुमारों को मालूम हो ही चुके हैं और महाराज भी जान गये हैं, ऐसी अवस्था में इसे अपना किस्सा पूरा-पूरा बयान करके दुनिया में एक नजीर छोड़ देना चाहिए और साथ ही इसके (भूतनाथ की तरफ देखते हुए) अपने दिल के बोझ को भी हल्का कर देना चाहिए। भूतनाथ, तुम्हारे दो-चार भेद तो ऐसे हैं जिन्हें सुनकर लोगों की आंखें खुल जायंगी और लोग समझेंगे कि हां, लोग ऐसे-ऐसे काम भी कर गुजरते हैं और उनका नतीजा ऐसा होता है, मगर यह तो कुछ तुम्हारे ही जैसे बुद्धिमान और अनूठे ऐयार का काम है कि इतना करने पर भी आज तुम भले-चंगे दिखाई देते हो बल्कि नेकनामी के साथ महाराज के ऐयार कहलाने की इज्जत पा चुके हो। मैं फिर कहता हूं कि किसी बुरी नीयत से इन बातों का जिक्र मैं नहीं करता बल्कि तुम्हारे दिल का खुटका दूर करने के साथ ही साथ जिनके नाम से तुम डरते हो उन्हें तुम्हारा दोस्त बनाया चाहता हूं, अस्तु तुम्हें बेखौफ अपना हाल बयान कर देना चाहिए।
भूत - ठीक है, मगर क्या करूं, मेरी जुबान नहीं खुलती। मैंने ऐसे-ऐसे बुरे काम किये हैं कि जिन्हें याद करके आज मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं और आत्महत्या करने की जी में इच्छा होती है, मगर नहीं, मैं बदनामी के साथ दुनिया से उठ जाना पसंद नहीं करता अतएव जहां तक हो सकेगा एक दफे नेकनामी अवश्य पैदा करूंगा।
इंद्र - नेकनामी पैदा करने का ध्यान जहां तक बना रहे अच्छा ही है परंतु मैं समझता हूं कि तुम नेकनामी उसी दिन पैदा कर चुके जिस दिन हमारे महाराज ने तुम्हें अपना ऐयार बनाया, इसलिए कि तुमने इधर बहुत ही अच्छे काम किये हैं और वे सब ऐसे थे कि जिन्हें अच्छे से अच्छा ऐयार भी कदाचित नहीं कर सकता था। चाहे तुमने पहले कैसी ही बुराई और कैसे ही खोटे काम क्यों न किये हों मगर आज हम लोग तुम्हारे देनदार हो रहे हैं, तुम्हारे एहसान के बोझ से दबे हुए हैं, और समझते हैं कि तुम अपने दुष्कर्मों का प्रायश्चित कर चुके हो।
भूत - आप जो कुछ कहते हैं वह आपका बड़प्पन है परंतु मैंने जो कुछ कुकर्म किये हैं, मैं समझता हूं कि उनका प्रायश्चित ही नहीं है, तथापि अब तो मैं महाराज की शरण में आ ही चुका हूं और महाराज ने भी मेरी बुराइयों पर ध्यान न देकर मुझे अपना दासानुदास स्वीकार कर लिया है। इससे मेरी आत्मा संतुष्ट है और मैं अपने को दुनिया में मुंह दिखाने योग्य समझने लगा हूं। मैं यह भी समझता हूं कि आप जो कुछ आज्ञा कर रहे हैं यह वास्तव में महाराज की आज्ञा है जिसका मैं कदापि उल्लंघन नहीं कर सकता, अस्तु मैं अपनी अद्भुत जीवनी सुनाने के लिए तैयार हूं परंतु...।
इतना कहकर भूतनाथ ने एक लंबी सांस ली और महाराज सुरेन्द्रसिंह की तरफ देखा।
सुरेन्द्र - भूतनाथ, यद्यपि हम लोग तुम्हारा कुछ-कुछ हाल जान चुके हैं मगर फिर भी तुम्हारा पूरा-पूरा हाल तुम्हारे ही मुंह से सुनने की इच्छा रखते हैं। तुम बयान करने में किसी तरह का संकोच न करो। इससे तुम्हारा दिल भी हल्का हो जायगा और दिन-रात जो तुम्हें खुटका बना रहता है वह भी जाता रहेगा।
भूत - जो आज्ञा।
इतना कहकर भूतनाथ ने सलाम किया और अपनी जीवनी इस तरह बयान करने लगा –
भूतनाथ की जीवनी
भूत - सबसे पहले मैं वही बात कहूंगा जिसे आप लोग नहीं जानते अर्थात् मैं नौगढ़ के रहने वाले और देवीसिंह के सगे चाचा जीवनसिंह का लड़का हूं। मेरी सौतेली मां मुझे देखना पसंद नहीं करती थी और मैं उसकी आंखों में कांटे की तरह गड़ा रहता था। मेरे ही सबब से मेरी मां की इज्जत और कदर थी और उस बांझ को कोई पूछता भी न था। अतएव वह मुझे दुनिया से ही उठा देने की फिक्र में लगी और यह बात मेरे पिता को मालूम हो गई इसलिए जबकि मैं आठ वर्ष का था मेरे पिता ने मुझे अपने मित्र देवदत्त ब्रह्मचारी के सुपुर्द कर दिया, जो तेजसिंह के गुरु1 थे और महात्माओं की तरह नौगढ़ की उसी तिलिस्मी खोह में रहा करते थे जिसे राजा वीरेन्द्रसिंहजी ने फतह किया। मैं नहीं जानता कि मेरे पिता ने मेरे विषय में उन्हें क्या समझाया और क्या कहा परंतु इसमें कोई संदेह नहीं कि ब्रह्मचारीजी मुझे अपने लड़के की तरह मानते-पढ़ाते, लिखाते और साथ-साथ ऐयारी भी सिखाते थे, परंतु जड़ी-बूटियों के प्रभाव से उन्होंने मेरी सूरत में बहुत बड़ा फर्क डाल दिया था जिससे मुझे कोई पहचान न ले। मेरे पिता मुझे देखने के लिए बराबर इनके पास आया करते थे।
इतना कहकर भूतनाथ कुछ देर के लिए चुप रह गया और सभों के मुंह की तरफ देखने लगा।
सुरेन्द्र - (ताज्जुब के साथ) ओफओह! क्या तुम जीवनसिंह के वही लड़के हो जिसके बारे में उन्होंने मशहूर कर दिया था कि उसे जंगल में शेर उठाकर ले गया!!
भूत - (हाथ जोड़कर) जी हां।
तेज - और आप वही हैं जिसे गुरुजी 'फिरकी' कह के पुकारा करते थे क्योंकि आप एक जगह ज्यादे देर तक बैठते न थे।
1. चंद्रकान्ता संतति के पहले भाग के छठवें बयान में तेजसिंह ने अपने गुरु के बारे में वीरेन्द्रसिंह से कुछ कहा था।
भूत - जी हां।
देवी - यद्यपि मैं बहुत दिनों से आपको भाई की तरह मानने लगा हूं परंतु आज यह जानकर मेरी खुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा कि आप वास्तव में मेरे भाई हैं, मगर यह तो बताइए कि ऐसी अवस्था में शेरसिंह आपके भाई क्योंकर हुए? वह कौन हैं?
भूत - वास्तव में शेरसिंह मेरा भाई नहीं है बल्कि गुरुभाई है और उन्हीं ब्रह्मचारीजी का लड़का है। मगर हां, लड़कपन ही से एक साथ रहने के कारण हम दोनों में भाई की-सी मुहब्बत हो गई थी।
तेज - आजकल शेरसिंह कहां है?
भूत - मुझे उनकी कुछ भी खबर नहीं है मगर मेरा दिल गवाही देता है कि अब वे हम लोगों को दिखाई न देंगे।
वीरेन्द्र - सो क्यों?
भूत - इसीलिए कि वे भी अपने को बिना छिपाये और हम लोगों से मिले-जुले रहते और साथ ही इसके ऐबों से खाली न थे।
सुरेन्द्र - खैर कोई चिंता नहीं, अच्छा तब?
भूत - अस्तु मैं उन्हीं ब्रह्मचारी के पास रहने लगा। कई वर्ष बीत गये। पिताजी मुझसे मिलने के लिए कभी-कभी आया करते थे और जब मैं बड़ा हुआ तो उन्होंने मुझे अपने से जुदा करने का सबब भी बयान किया और वे यह जानकर बहुत प्रसन्न हुए कि मैं ऐयारी के फन में बहुत तेज और होशियार हो गया हूं। उस समय उन्होंने ब्रह्मचारीजी से कहा कि इसे किसी रियासत में नौकर रख देना चाहिए तब इसकी ऐयारी खुलेगी। मुख्तसर यह कि ब्रह्मचारीजी की ही बदौलत में गदाधरसिंह के नाम से रणधीरसिंहजी के यहां और शेरसिंह महाराज दिग्विजयसिंह के यहां नौकर हो गये और यह जाहिर किया कि शेरसिंह और गदाधरसिंह दोनों भाई हैं, और हम दोनों आपस में प्रेम भी ऐसा ही रखते थे!
उन दिनों रणधीरसिंहजी की जमींदारी में तरह-तरह के उत्पात मचे हुए थे और बहुत-से आदमी उनके जानी दुश्मन हो रहे थे। उनके आपस वालों को तो इस बात का विश्वास हो गया था कि अब रणधीरसिंहजी की जान किसी तरह नहीं बच सकती क्योंकि उन्हीं दिनों उनका ऐयार श्रीसिंह दुश्मनों के हाथों से मारा जा चुका था और खूनी का कुछ पता न लगता था। कोई दूसरा ऐयार भी उनके पास न था इसलिए वे बड़े तरद्दुद में पड़े हुए थे। यद्यपि उन दिनों उनके यहां नौकरी करना अपनी जान खतरे में डालना था मगर मुझे इन बातों की कुछ भी परवाह न हुई। रणधीरसिंहजी मुझे नौकर रखकर बहुत प्रसन्न हुए। मेरी खातिरदारी में कभी किसी तरह की कमी नहीं करते थे। इसके दो सबब थे, एक तो उन दिनों उन्हें ऐयार की सख्त जरूरत थी, दूसरे मेरे पिता से और उनसे कुछ मित्रता भी थी जो कुछ दिनों के बाद मुझे मालूम हुआ।
रणधीरसिंहजी ने मेरा ब्याह भी शीघ्र ही करा दिया। संभव है कि इसे भी मैं उनकी कृपा और स्नेह के कारण समझूं, पर यह भी हो सकता है कि मेरे पैर में गृहस्थी की बेड़ी डालने और कहीं भाग जाने लायक न रखने के लिए उन्होंने ऐसा किया हो क्योंकि अकेला और बेफिक्र आदमी कहीं पर जन्म भर रहे और काम करे इसका विश्वास लोगों को कम रहता है। खैर जो कुछ हो मतलब यह है कि उन्होंने मुझे बड़ी इज्जत और प्यार के साथ अपने यहां रखा और मैंने भी थोड़े ही दिनों में ऐसे अनूठे काम कर दिखाए कि उन्हें ताज्जुब होता था। सच तो यों है कि उनके दुश्मनों की हिम्मत टूट गई और वे दुश्मनी की आग में आप ही जलने लगे।
कायदे की बात है कि जब आदमी के हाथ से दो-चार काम अच्छे निकल जाते हैं और चारों तरफ उसकी तारीफ होने लगती है तब वह अपने काम की तरफ से बेफिक्र हो जाता है, वही हाल मेरा भी हुआ।
आप जानते ही होंगे कि रणधीरसिंहजी का दयाराम नामी एक भतीजा था जिसे वह बहुत प्यार करते थे और वही उनका वारिस होने वाला था। उसके मां-बाप लड़कपन ही में मर चुके थे मगर चाचा की मुहब्बत के सबब उसे भी बाप के मरने का दुःख मालूम न हुआ। दयाराम उम्र में मुझसे कुछ छोटा था मगर मेरे और उसके बीच में हद दर्जे की दोस्ती और मुहब्बत हो गई थी। जब हम दोनों आदमी घर पर मौजूद रहते तो बिना मिले जी नहीं मानता था। दयाराम का उठना-बैठना मेरे यहां ज्यादे होता था, अक्सर रात को मेरे यहां खा-पीकर सो जाता था और उसके घर वाले भी इसमें किसी तरह का रंज नहीं मानते थे।
जो मकान मुझे रहने के लिए मिला था वह निहायत उम्दा और शानदार था। उसके पीछे की तरफ एक छोटा-सा नजरबाग था जो दयाराम के शौक की बदौलत हरदम हरा-भरा गुंजान और सुहावना बना रहता था। प्रायः संध्या के समय हम दोनों दोस्त उसी बाग में बैठकर भांग-बूटी छानते और संध्योपासन से निवृत्त हो बहुत रात गये तक गप-शप किया करते।
जेठ का महीना था और गर्मी हद दर्जे की पड़ रही थी। पहर रात बीत जाने पर हम दोनों दोस्त उसी नजरबाग में दो चारपाई के ऊपर लेटे हुए आपस में धीरे - धीरे बातें कर रहे थे। मेरा खूबसूरत और प्यारा कुत्ता मेरे पायताने की तरफ एक पत्थर की चौकी पर बैठा हुआ था। बात करते - करते हम दोनों को नींद आ गई।
आधी रात से कुछ ज्यादे बीती होगी जब मेरी आंख कुत्ते के भौंकने की आवाज से खुल गई। मैंने उस पर कुछ विशेष ध्यान न दिया और करवट बदलकर फिर आंखें बंद कर लीं क्योंकि वह कुत्ता मुझसे बहुत दूर और नजरबाग के पिछले हिस्से की तरफ था, मगर कुछ ही देर बाद वह मेरी चारपाई के पास आकर भौंकने लगा और पुनः मेरी आंख खुल गई। मैंने कुत्ते को अपने सामने बेचैनी की हालत में देखा, उस समय वह जुबान निकालते हुए जोर-जोर से हांफ रहा था और दोनों अगले पैरों से जमीन खोद रहा था।
मैं अपने कुत्ते की आदतों को खूब जानता और समझता था, अस्तु उसकी ऐसी अवस्था देखकर मेरे दिल में खुटका हुआ और मैं घबड़ाकर उठ बैठा। अपने मित्र को भी उठाकर होशियार कर देने की नीयत से मैंने उसकी चारपाई की तरफ देखा मगर चारपाई खाली पाकर मैं बेचैनी के साथ चारों तरफ देखने लगा और उठकर चारपाई से नीचे खड़े होने के साथ ही मैंने अपने सिरहाने के नीचे से खंजर निकाल लिया। उस समय मेरा नमकहलाल कुत्ता मेरी धोती पकड़कर बार-बार खींचने और बाग के पिछले हिस्से की तरफ चलने का इशारा करने लगा और जब में उसके मुताबिक चला तो वह धोती छोड़कर आगे-आगे दौड़ने लगा। कदम बढ़ाता हुआ मैं उसके पीछे-पीछे चला। उस समय मालूम हुआ कि मेरा कुत्ता जख्मी है, उसके पिछले पैर में चोट आई है इसलिए वह पैर उठाकर दौड़ता था। अस्तु कुत्ते के पीछे-पीछे चलकर मैं पिछली दीवार के पास जा पहुंचा जहां मालती और मोमियाने की लताओं के सबब घना कुंज और पूरा अंधकार हो रहा था। कुत्ता उस झुरमुट के पास जाकर रुक गया और मेरी तरफ देखकर दुम हिलाने लगा। उसी समय मैंने झाड़ी में से तीन आदमियों को निकलते हुए देखा जो बाग की दीवार के पास चले गये और फुर्ती से दीवार लांघकर पार हो गये। उन तीनों में से एक आदमी के हाथ में एक छोटी-सी गठरी थी जो दीवार लांघते समय उसके हाथ से छूटकर बाग के भीतर ही गिर पड़ी, निःसंदेह वह गठरी लेने के लिए वह भीतर लौटता मगर उसने मुझे और कुत्ते को देख लिया था इसलिए उसकी हिम्मत न पड़ी।
गठरी गिरने के साथ ही मैंने जफील बुलाई और खंजर हाथ में लिए हुए उस आदमी का पीछा करना चाहा अर्थात् दीवार की तरफ बढ़ा, मगर कुत्ते ने मेरी धोती पकड़ ली और झाड़ी की तरफ हटकर खींचने लगा जिससे मैं समझ गया कि इस झाड़ी में भी कोई छिपा हुआ है जिसकी तरफ कुत्ता इशारा कर रहा है। मैं सम्हलकर खड़ा हो गया और गौर के साथ उस झाड़ी की तरफ देखने लगा। उसी समय पत्तों की खड़खड़ाहट ने विश्वास दिला दिया कि इसमें कोई और भी है। मैं इस खयाल से जिस तरह पहले तीन आदमी दीवार लांघकर भाग गये हैं उसी तरह इसको भी भाग जाने न दूंगा, घूमकर दीवार की तरफ चला गया। उस समय मैंने देखा कि चार डंडे की सीढ़ी दीवार के साथ लगी हुई है जिसके सहारे वे तीनों निकल गये थे। मैंने वह सीढ़ी उठाकर उस गठरी के ऊपर फेंक दी जो उसके हाथ से छूटकर गिर पड़ी थी क्योंकि मैं उस गठरी की हिफाजत का भी खयाल कर रहा था।
सीढ़ी हटाने के साथ ही दो आदमी उस झाड़ी में से निकले और बड़ी बहादुरी के साथ मेरा मुकाबला किया, और मैं भी जी तोड़कर उनके साथ लड़ने लगा। अंदाज से मालूम हो गया कि गठरी उठा लेने की तरफ ही उन दोनों का ध्यान विशेष है। आप सुन चुके हैं कि मेरे हाथ में केवल खंजर था मगर उन दोनों के हाथ में लंबे-लंबे लट्ठ थे और मुकाबला करने में भी वे दोनों कमजोर न थे। अस्तु मुझे अपने बचाव का ज़्यादा खयाल था और मैं तब तक लड़ाई खत्म करना नहीं चाहता था जब तक मेरे आदमी न आ जायें जिन्हें जफील देकर मैंने बुलाया था।
आधी घड़ी से ज्यादे देर तक मेरा-उनका मुकाबला होता रहा। उसी समय मुझे रोशनी दिखाई दी और मालूम हुआ कि मेरे आदमी चले आ रहे हैं। उनकी तरफ देखकर मेरा ध्यान कुछ बटा ही था कि एक आदमी के हाथ का लट्ठ मेरे सिर पर बैठा और मैं चक्कर खाकर जमीन पर गिर पड़ा।