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भाग 38

 


कुंअर इंद्रजीतसिंह नाहरसिंह और तारासिंह को साथ लिए घर आये और अपने छोटे भाई से सब हाल कहा। वे भी सुनकर बहुत उदास हुए और सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिए। दोनों कुमार बड़े ही तरद्दुद में पड़े। अगर तारासिंह को पता लगाने के लिए भेजें तो गया में कोई ऐयार न रह जायगा और यह बात अगर उनके पिता सुनें तो बहुत रंज हों, जिसका खयाल उन्हें सबसे ज्यादा था। दो पहर दिन चढ़े तक दोनों भाई बड़े ही तरद्दुद में पड़े रहे, दोपहर बाद उनका तरद्दुद कुछ कम हुआ जब पंडित बद्रीनाथ, भैरोसिंह और जगन्नाथ ज्योतिषी वहां आ मौजूद हुए। तीनों के वहां पहुंचने से दोनों कुमार बहुत खुश हुए और समझा कि अब हमारा काम अटका न रहेगा।
कुंअर इंद्रजीतसिंह आनंदसिंह, तारासिंह, पंडित बद्रीनाथ, भैरोसिंह और ज्योतिषीजी ये सब बाग की बारहदरी में एकांत समझकर चले गये और बातचीत करने लगे।
आनंद - लीजिए साहब अब तो दुश्मन लोग यहां भी बहुत से हो गये।
ज्योतिषी - कोई हर्ज नहीं।
इंद्र - भैरोसिंह, पहले तुम अपना हाल कहो, यहां से जाने के बाद क्या हुआ
भैरो - मुझे तो रास्ते में ही मालूम हो गया था कि किशोरी वहां नहीं है।
इंद्र - यह सब हाल मुझे भी मालूम हुआ था।
भैरो - ठीक है, वह आदमी आपके पास भी आया होगा जिसने मुझे खबर दी थी।
इंद्र - खैर तब क्या हुआ
भैरो - फिर भी मैं वहां चला गया (बद्रीनाथ और ज्योतिषीजी की तरफ इशारा करके) और इन लोगों के साथ मिलकर काम करने लगा। ये लोग दो सौ बहादुरों के साथ वहां पहले से मौजूद थे। आखिर यह हुआ कि दीवान अग्निदत्त और दो-तीन उसके साथी गिरफ्तार करके चुनार भेज दिये गये। माधवी का पता नहीं कि वह कहां गई, वहां की रियाया सब अग्निदत्त से रंज थी इसलिए राजगृही अपने कब्जे में कर लेना हम लोगों को बहुत ही सहज हुआ। अब उन्हीं दो सौ आदमियों के साथ पन्नालाल को वहां छोड़ आया हूं।
बद्री - आप यहां का हाल भी कहिये। सुना है यहां बड़े-बड़े बेढब मामले हो गये हैं!
इंद्र - यहां का हाल भैरोसिंह की जबानी आपने सुना ही होगा, इसके बाद आज रात को एक अजीब बात हो गई है।
तारासिंह ने रात भर का कुल हाल उन लोगों से कहा जिसे सुन वे लोग बहुत ही तरद्दुद में पड़ गये।
इन लोगों की बातचीत हो रही थी कि एक चोबदार ने आकर अर्ज किया कि “अखंडनाथ बाबाजी बाहर खड़े हैं और यहां आना चाहते हैं।” अखंडनाथ नाम सुन ये लोग सोचने लगे कि कौन हैं और कहां से आये हैं। आखिर इंद्रजीतसिंह ने उन्हें अपने पास बुलाया और सूरत देखते ही पहचान लिया।
पाठक, ये अखंडनाथ बाबाजी वही हैं जो रामशिला के सामने फलगू के बीच भयानक टीले पर रहते थे, जिनके पास माधवी जाती थी, तथा जिन्होंने उस समय किशोरी की जान बचाई थी जब खंडहर में उसकी छाती पर सवार हो भीमसेन खंजर उसके कलेजे में भोंका ही चाहता था और जिसका कुल हाल इसी भाग के तीसरे बयान में हम लिख आये हैं। इन बाबाजी को तारासिंह भी पहचानते थे क्योंकि कल रात यह भी इंद्रजीतसिंह के साथ ही थे।
इंद्रजीतसिंह ने उठकर बाबाजी को प्रणाम किया। इनको उठते देख और सब लोग भी उठ खड़े हुए। कुमार ने अपने पास बाबाजी को बैठाया और ऐयारों की तरफ देख के कहा, “इन्हीं का हाल मैं कह चुका हूं, इन्होंने ही उस खंडहर में किशोरी की जान बचाई थी।”
बाबा - जान बचाने वाला तो ईश्वर है मैं क्या कर सकता हूं। खैर, यह तो कहिये उस मामले के बाद की भी आपको खबर है कि क्या हुआ!
इंद्रजीत - कुछ भी नहीं, हम लोग इस समय इसी सोच-विचार में पड़े हैं।
बाबा - अच्छा तो फिर मुझसे सुनिये। दो औरतें और जो उस मकान में थीं उनका हाल तो मुझे मालूम नहीं कि किशोरी की खोज में कहां गईं, मगर किशोरी का हाल मैं खूब जानता हूं।
बाबाजी की बातों ने सभों का दिल अपनी तरफ खींच लिया और सब लोग एकाग्र होकर उनकी बातें सुनने लगे। बाबाजी ने यों कहना शुरू किया -
“नाहरसिंह से जब कुमार लड़ रहे थे उस समय भीमसेन के साथियों को जो उसी जगह छिपे हुए थे मौका मिला और वे लोग किशोरी को लेकर शिवदत्तगढ़ की तरफ भागे, मगर ले न जा सके क्योंकि रास्ते ही में रोहतासगढ़1 के राजा के ऐयार लोग छिपे हुए थे जिन लोगों ने लड़कर किशोरी को छीन लिया और रोहतासगढ़ ले गये। किशोरी की खूबसूरती का हाल सुनकर रोहतासगढ़ के राजा ने इरादा कर लिया कि अपने लड़के के साथ उसे ब्याहेगा और बहुत दिन से उसके ऐयार लोग किशोरी की धुन में लगे हुए भी थे। अब मौका पाकर वे लोग अपना काम कर गये। अगर आप लोग जल्द उसके छुड़ाने की फिक्र न करेंगे तो बेचारी के बचने की उम्मीद जाती रहेगी। लड़-भिड़कर रोहतासगढ़ के किले को फतह करना बहुत मुश्किल है, चाहे फौज और दौलत में आप लोग बढ़ के क्यों न हों मगर पहाड़ के ऊपर के उस आलीशान किले के अंदर घुसना बड़ा ही कठिन है मगर फिर भी चाहे जो हो आप लोग हिम्मत न हारें। किशोरी का खयाल चाहे न भी हो मगर यह सोचकर कि आपके समीप का यह मजबूत किला आप ही के
1.रोहतासगढ़ बिहार के इलाके में मशहूर है। यह किला पहाड़ के ऊपर है। उस जमाने में इस किले की लंबाई-चौड़ाई लगभग दस कोस की होगी। बड़े-बड़े राजा लोग भी इसको फतह करने का हौसला नहीं कर सकते थे। आजकल यह इमारत बिल्कुल टूट-फूट गई है तो भी देखने योग्य है।
योग्य है, जरूर मेहनत करनी चाहिए। ईश्वर आपको विजय देगा और जहां तक हो सकेगा मैं आपकी मदद करूंगा।”
बाबाजी की जुबानी सब हाल सुनकर कुंअर इंद्रजीतसिंह बहुत प्रसन्न हुए। एक तो किशोरी का पता लगने की खुशी दूसरे रोहतासगढ़ के राजा से बड़ी भारी लड़ाई लड़कर जवानी का हौसला निकालने और मशहूर किले पर अपना दखल जमाने की खुशी से गद्गद हो गये और जोश भरी आवाज में बाबाजी से बोले -
इंद्रजीतसिंह - बड़े-बड़े वीरों की आत्माएं स्वर्ग से झांककर देखेंगी कि रोहतासगढ़ की लड़ाई कैसी होती है और किस तरह हम लोग उस किले को फतह करते हैं। रोहतासगढ़ का हाल हम बखूबी जानते हैं, मगर बिना कोई सबब हाथ लगे ऐसा इरादा नहीं कर सकते थे।
बाबा - अच्छा एक लोटा जल मंगाइये।
तुरंत जल आया। बाबाजी ने अपनी दाढ़ी नोचकर फेंक दी और मुंह धो डाला। अब तो सभों ने पहचान लिया कि ये देवीसिंह हैं।
पाठक, रामशिला पहाड़ी के सामने भयानक टीले पर रहने वाले बाबाजी से देवीसिंह का मिलना आप भूले न होंगे और आपको यह भी याद होगा कि देवीसिंह से बाबाजी ने कहा था कि 'कल इस स्थान को हम छोड़ देंगे।' बस बाबाजी के जाने के बाद देवीसिंह ही उनकी सूरत में उस गद्दी पर जा विराजे और जो कुछ काम किया आप जानते ही हैं। उस दिन बाबाजी की सूरत में देवीसिंह ही थे जिस दिन माधवी ने मिलकर कहा था कि 'हमारी मदद के लिए भीमसेन आ गया है।' असली बाबाजी भी उस पहाड़ी पर देवीसिंह से मिल चुके हैं जहां हमने लिखा है कि एक ही सूरत के दो बाबाजी इकट्ठे हुए हैं और उन्हीं बाबाजी की जुबानी रोहतासगढ़ का मामला देवीसिंह ने सुना था।
देवीसिंह ने अपना बिल्कुल हाल दोनों कुमारों से कहा और आखिर में बोले, “अब रोहतासगढ़ पर हम जरूर चढ़ाई करेंगे।”
इंद्र - बहुत अच्छी बात है, हम लोगों का हौसला भी तभी दिखाई देगा! हां यह तो कहिए नाहरसिंह से कैसा बर्ताव किया जाय
देवी - कौन नाहरसिंह
इंद्र - उस खंडहर में जो मुझसे लड़ा था बड़ा ही बहादुर है। उसने प्रण कर रखा था कि जो मुझे जीतेगा उसी का मैं ताबेदार हो जाऊंगा। अब उसने भीमसेन का साथ छोड़ दिया और हम लोगों के साथ रहने को तैयार है।
देवी - ऐसे बहादुर पर जरूर मेहरबानी करनी चाहिए मगर आज हम उसे आजमावेंगे। आज से उसके लिए एक मकान दे दें और हर तरह के आराम का बंदोबस्त कर दें।
इंद्र - बहुत अच्छा।
कुंअर इंद्रजीतसिंह ने उसी समय नाहरसिंह को अपने पास बुलाया और बड़ी मेहरबानी के साथ पेश आये। एक मकान देकर अपने सेनापति की पदवी उसे दी और भीमसेन को कैद में रखने का हुक्म दिया।
अपने ऊपर कुमार की इतनी मेहरबानी देख नाहरसिंह बहुत प्रसन्न हुआ। कुछ देर तक बातें करता रहा, तब सलाम करके अपने ठिकाने चला गया और सेनापति के काम को ईमानदारी के साथ पूरा करने का उद्योग करने लगा।
आधी रात जा चुकी है। चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ है। गलियों और सड़कों पर चौकीदारों के “जागते रहियो, होशियार रहियो” पुकारने की आवाज आ रही है। नाहरसिंह अपने मकान में पलंग पर लेटा हुआ कोई किताब देख रहा है और सिरहाने शमादान जल रहा है।
नाहरसिंह के हाथ में श्रुति स्मृति या पुराण की कोई पुस्तक नहीं है, उसके हाथ में तस्वीरों की एक किताब है जिसके पन्ने वह उलटता है और एक-एक तस्वीर को देर तक बड़े गौर से देखता है। इन तस्वीरों में बड़े-बड़े राजाओं और बहादुरों की मशहूर लड़ाइयों का नक्शा दिखाया गया है और पहलवानों की बहादुरी और दिलावरों की दिलावरी का खाका उतरा हुआ है जिसे देख-देखकर नाहरसिंह की रगें जोश मारती हैं और वह चाहता है कि ऐसी लड़ाइयों में हमें भी कभी हौसला निकालने का मौका मिले।
तस्वीरें देखते-देखते बहुत देर हो गई और नाहरसिंह की नींद भरी आंखें भी बंद होने लगीं। आखिर उसने किताब बंद करके एक तरफ रख दी और थोड़ी ही देर बाद गहरी नींद में सो गया।
इस मकान के किसी कोने में एक आदमी न मालूम कब का छिपा हुआ था जो नाहरसिंह को सोता जानकर उस कमरे में चला आया और पलंग के पास खड़ा हो उसे गौर से देखने लगा। इस आदमी को हम नहीं पहचानते क्योंकि यह मुंह पर नकाब डाले हुए है। थोड़ी देर बाद अपनी जेब से उसने एक पुड़िया निकाली और एक चुटकी बुकनी नाहरसिंह की नाक के पास ले गया। सांस के साथ धूरा दिमाग में पहुंचा और वह छींक मारकर बेहोश हो गया।
उस आदमी ने अपनी कमर से एक रस्सी खोली और नाहरसिंह के हाथ-पैर मजबूती से बांधकर उसे होशियार करने के बाद तलवार खेंच मुंह पर से नकाब हटा सामने खड़ा हो गया। होश में आते ही नाहरसिंह ने अपने को बेबस और हाथ में नंगी तलवार लिए महाराज शिवदत्त को सामने मौजूद पाया।
शिव - क्यों नाहरसिंह, एक नाजुक समय में हमारे लड़के का साथ छोड़ देना और उसे दुश्मनों के हाथ में फंसा देना क्या तुम्हें मुनासिब था
नाहर - जब तक बहादुर इंद्रजीतसिंह ने मुझ पर फतह नहीं पाई तब तक मैं बराबर तुम्हारे लड़के का साथ देता रहा, जब कुमार ने मुझे जीत लिया था तो अपने कौल के मुताबिक मैंने उनकी ताबेदारी कबूल कर ली। मेरे कौल को तुम भी जानते ही थे।
शिव - जो कुछ तुमने किया है उसकी सजा देने के लिए इस समय मैं मौजूद हूं।
नाहर - खैर ईश्वर की जो मर्जी।
शिव - अब भी अगर तुम हमारा साथ देना मंजूर करो तो छोड़ सकता हूं।
नाहर - यह नहीं हो सकता। ऐसे बहादुर का साथ छोड़ तुम्हारे ऐसे बेईमान का संग करना मुझे मंजूर नहीं।
शिव - (डपटकर और तलवार उठाकर) क्या तुम्हें अपनी जान देना मंजूर है?
नाहर - खुशी से मंजूर है मगर मालिक का संग छोड़ना कबूल नहीं है!
शिव - देखो फिर तुम्हें समझाता हूं, सोचो और मेरा साथ दो!
नाहर - बस, बहुत बकवाद करने की जरूरत नहीं, जो कुछ तुम कर सको कर लो। मैं ऐसी बातें नहीं सुनना चाहता।
शिवदत्त ने बहुत समझाया और डराया-धमकाया मगर बहादुर नाहरसिंह की नीयत न बदली। आखिर लाचार होकर शिवदत्त ने अपने हाथ से तलवार दूर फेंक दी और नाहरसिंह की पीठ ठोंककर बोला -
“शाबाश बहादुर! तुम्हारे ऐसे जवांमर्द का दिल अगर ऐसा न होगा तो किसका होगा मैं शिवदत्त नहीं हूं, कुमार का ऐयार देवीसिंह हूं, तुम्हें आजमाने के लिए आया था!”
इतना कहकर उन्होंने नाहरसिंह की मुश्कें खोल दीं और वहां से फौरन चले गये। देवीसिंह ने यह हाल दोनों कुमारों से कहकर नाहरसिंह की तारीफ की मगर बहादुर नाहरसिंह ने अपनी जिंदगी भर इस आजमाने का हाल किसी से न कहा।
दूसरे दिन देवीसिंह चुनार चले गये और कह गए कि रोहतासगढ़ की चढ़ाई का बंदोबस्त करके मैं बहुत जल्द आऊंगा।
यह जानकर कि किशोरी को रोहतासगढ़ वाले ले गये हैं कुंअर इंद्रजीतसिंह की बेचैनी हद से ज्यादे बढ़ गई। दम भर के लिए भी आराम करना मुश्किल हो गया, दो ही पहर में सूरत बदल गई। किसी का बुलाना या कुछ पूछना उन्हें जहर-सा मालूम पड़ने लगा। इनकी ऐसी हालत देख भैरोसिंह से न रहा गया, निराले में बैठे उन्हें समझाने लगा।
इंद्र - तुम्हारे समझाने से मेरी हालत किसी तरह बदल नहीं सकती और किशोरी की जान का खतरा जो मुझे लगा हुआ है किसी तरह कम नहीं हो सकता।
भैरो - किशोरी को अगर शिवदत्तगढ़ वाले ले जाते तो बेशक उसकी जान का खतरा था, क्योंकि शिवदत्त रंज के मारे बिना उसकी जान लिये न रहता, मगर अब तो वह रोहतासगढ़ के राजा के कब्जे में है और वह अपने लड़के से उसकी शादी किया चाहता है, ऐसी हालत में किशोरी की जान का दुश्मन वह क्योंकर हो सकेगा
इंद्र - मगर जबर्दस्ती किशोरी की शादी कर दी गई तब क्या होगा
भैरो - हां, अगर ऐसा हो तो जरूर रंज होगा, खैर आप चिंता न करिये, ईश्वर चाहेगा तो पांच ही सात दिन में कुल बखेड़ा तय कर देता हूं।
इंद्र - क्या किशोरी को वहां से ले आओगे
भैरो - रोहतासगढ़ के किले में घुसकर किशोरी को निकाल लाना तो दो-तीन दिन का काम नहीं, इसके अतिरिक्त क्या रोहतासगढ़ का किला ऐयारों से खाली होगा
इंद्र - फिर तुम पांच-सात दिन में क्या करोगे
भैरो - कोई ऐसा काम जरूर करूंगा जिससे किशोरी की शादी रुक जाय।
इंद्र - वह क्या
भैरो - जिस तरह बनेगा वहां के राजकुमार कल्याणसिंह को पकड़ लाऊंगा, जब हम लोगों का फैसला हो जायेगा तब छोड़ दूंगा।
इंद्र - हां अगर ऐसा करो तो क्या बात है!
भैरो - आप चिंता न कीजिए। मैं अभी यहां से रवाना होता हूं, आप किसी से मेरे जाने का हाल न कहिएगा।
इंद्र - क्या अकेले जाओगे
भैरो - जी हां।
इंद्र - वाह! कहीं फंस जाओ तो मैं तुम्हारी राह ही देखता रह जाऊं, कोई खबर देने वाला भी नहीं।
भैरो - ऐसी उम्मीद न रखिए।
कुंअर इंद्रजीतसिंह से वादा करके भैरोसिंह रोहतासगढ़ की तरफ रवाना हुए, मगर भैरोसिंह का अकेले रोहतासगढ़ जाना इंद्रजीतसिंह को न भाया। उस समय तो भैरोसिंह की जिद से चुप हो रहे मगर उसके बाद कुमार ने सब हाल पंडित बद्रीनाथ से कहकर दोस्त की मदद के लिए जाने का हुक्म दिया। हुक्म पाते ही पंडित बद्रीनाथ भी रोहतासगढ़ रवाना हुए और रास्ते में ही भैरोसिंह से जा मिले।
दो रोज चलकर ये दोनों आदमी रोहतासगढ़1 पहुंचे और पहाड़ के ऊपर चढ़ किले में दाखिल हुए। यह बहुत बड़ा किला पहाड़ पर निहायत खूबी का बना हुआ था और इसी के अंदर शहर भी बसा था जो बड़े-बड़े सौदागरों, महाजनों, व्यापारियों और जौहरियों के कारबार से अपनी चमक-दमक दिखा रहा था। इस शहर की खूबी और सजावट का हाल इस जगह लिखने की कोई जरूरत नहीं मालूम होती और इतना समय भी नहीं है, हां मौके पर दो-चार दफे पढ़कर इसकी खूबी का हाल पाठक मालूम कर लेंगे।
1. राजा शिवप्रसाद सितारेहिंद ने अपनी किताब जान-जहांनुमा में लिखा है - “आरे से करीब पचहत्तर मील के दक्खिन-पश्चिम को झुकता हुआ हजार फीट ऊंचे पहाड़ के ऊपर का एक बड़ा ही मजबूत किला “रोहतासगढ़” जिसका असल नाम “रोहताश्म” है दस मील मुरब्बा की बसअत में सोन नदी के बाएं किनारे पर उजाड़ पड़ा हुआ है। उसमें जाने के वास्ते सिर्फ एक ही रास्ता दो कोस की चौड़ाई का तंग-सा बना है बाकी सब तरफ वह पहाड़, जंगल और नदियों से ऐसा घिरा हुआ है कि किसी तौर से वहां आदमी का गुजर नहीं हो सकता। उस किले के अंदर दो मंदिर अगले जमाने के अभी मौजूद हैं बाकी सब इमारतें महल, बाग, तालाब वगैरह जिनका अब सिर्फ निशान भर रह गया है मुसलमान बादशाहों के बनाये हुए हें।”
(ग्रंथकर्ता) - मगर अकबर के जमाने में जो “बिहार” का हाल लिखा गया है उससे मालूम होता है कि यह मुकाम मुसलमानों की अमलदारी के पहले से बना हुआ है।
इस किले के अंदर एक छोटा किला और भी था जिसमें महाराज और उनके आपस वाले रहा करते थे और लोगों में वह महल के नाम से मशहूर था।
इस पहाड़ पर छोटे झरने और तालाब बहुत हैं। ऊपर जाने के लिए केवल एक ही राह है और वह भी बहुत बारीक है। उसके चारों तरफ घना जंगल इस ढंग का है कि जरा भी आदमी कूदा और राह भूलकर कई दिन तक भटकने की नौबत आई। दुश्मनों का और किसी तरह से इस पहाड़ पर चढ़ना बहुत ही मुश्किल है और वह बारीक राह भी इस लायक नहीं कि पांच-सात आदमी से ज्यादा एक साथ चढ़ सकें। भेष बदले हुए हमारे दोनों ऐयार रोहतासगढ़ पहुंचे और वहां की रंगत देखकर समझ गये कि इस किले को फतह करने में बहुत मुश्किल पड़ेंगी।
भैरोसिंह और पंडित बद्रीनाथ मथुरिया चौबे बने हुए रोहतासगढ़ में घूमने और एक-एक चीज को अच्छी तरह देखने लगे। दोपहर के समय एक शिवालय पर पहुंचे जो बहुत ही खूबसूरत और बड़ा बना हुआ था, सभामंडल इतना बड़ा था कि सौ-डेढ़ सौ आदमी अच्छी तरह उसमें बैठ सकते थे। उसके चारों तरफ खुला-सा सहन था जिस पर कई ब्राह्मण और पुजारी बैठे धूप सेंक रहे थे। उन्हीं लोगों के पास जाकर हमारे दोनों ऐयार खड़े हो गये और गरजकर बोले - “जै जमुना मैया की!”
पुजारियों ने हमारे दोनों चौबों को खातिदारी से बैठाया और बातचीत करने लगे।
एक पुजारी - कहिये चौबेजी, कब आना हुआ
बद्री - बस अभी चले ही तो आते हैं महाराज! पहाड़ पर चढ़ते-चढ़ते थक गये, गला सूख गया, कृपा करके सिल-लुढ़िया दो तो भंग छने और चित्त ठिकाने हो।
पुजारी - लीजिये, सिल-लुढ़िया लीजिये, मसाला लीजिये, चीनी लीजिये, खूब भंग छानिये।
भैरो - भंग मसाला तो हमारे साथ है, आप ब्राह्मणों का क्यों नुकसान करें।
पुजारी - नहीं, नहीं, हमारा कुछ नहीं है, यहां सब चीजें महाराज के हुक्म से मौजूद रहती हैं, ब्राह्मण परदेशी जो कोई आवे सभी को देने का हुक्म है।
बद्री - वाह-वाह, तब क्या बात है! लाइये फिर महाराज की जयजयकार मनावें!
पुजारी ने इन दोनों को सब सामान दिया और इन दोनों ने भंग बनाई, आप भी पी और पुजारियों को भी पिलाई। दोनों ऐयारों ने बातचीत और मसखरेपन से वहां के पुजारियों को अपने बस में कर लिया। बड़े पुजारी बहुत प्रसन्न हुए और बोले, “चौबेजी महाराज, बड़े भाग्य से आप लोगों के दर्शन हुए हैं। आप लोग दो-चार रोज यहां जरूर रहिये! इसी जगह आपको महाराजकुमार से भी मिलावेंगे और आप लोगों को बहुत कुछ दिलावेंगे। महाराजकुमार बहुत ही हंसमुख, नेक और बुद्धिमान हैं। आप उन्हें देख बहुत प्रसन्न होंगे!”
बद्री - बहुत खूब महाराज, आप लोगों की इतनी कृपा है तो हम जरूर रहेंगे और आपके महाराजकुमार से भी मिलेंगे। वे यहां कब आते हैं
पुजारी - प्रातः और सायंकाल दोनों समय यहां आते हैं और इसी मंदिर में संध्या-पूजा करते हैं।
भैरो - तो आज भी उनके दर्शन होंगे
पुजारी - अवश्य।
यह मंदिर किले की दीवार के पास ही था। इसके पीछे की तरफ एक छोटी-सी लोहे की खिड़की थी जिसकी राह ये लोग किले के बाहर जंगल में जा सकते थे। पुजारी के हुक्म से भंग पीने के बाद दोनों ऐयार उसी राह से जंगल में गए और मैदान होकर लौट आये, पुजारी लोग भी उसी राह से जंगल मैदान गये।
संध्या समय महाराजकुमार भी वहां आये और मंदिर के अंदर दरवाजा बंद करके घंटे भर से ज्यादे देर तक संध्या-पूजा करते रहे। उस समय केवल एक बड़ा पुजारी उस मंदिर में तब तक मौजूद रहा जब तक महाराजकुमार नित्य नेम करते रहे। दोनों ऐयारों ने भी महाराजकुमार को अच्छी तरह देखा मगर पुजारी को कह दिया था कि आज महाराजकुमार को यह मत कहना कि यहां दो चौबे आये हैं, कल सायंकाल को हम लोगों का सामना कराना।
दोनों ऐयारों ने रात भर उसी मंदिर में गुजारा किया और अपने मसखरेपन से पुजारी महाशय को बहुत ही प्रसन्न किया, साथ ही इसके उन्हें इस बात का भी विश्वास दिलाया कि इस पहाड़ के नीचे एक बड़े भारी महात्मा आये हुए हैं, आपको उनसे जरूर मिलावेंगे, हम लोगों पर उनकी बड़ी कृपा रहती है।
सबेरे उठकर इन दोनों ने फिर भंग घोटकर पी और सभों को पिलाने के बाद उसी खिड़की की राह मैदान गये। दोनों ऐयार तो अपनी धुन में थे, महाराजकुमार को यहां से उड़ाने की फिक्र-सोच में रहे थे तथा उसी खिड़की की राह निकल जाने का उन्होंने मौका तजवीजा था, इसलिए मैदान जाते समय इस जंगल को दोनों आदमी अच्छी तरह देखने लगे कि इधर से सीधी सड़क पर निकल जाने का क्योंकर हम लोगों को मौका मिल सकता है। इस काम में उन्होंने दिन भर बिता दिया और रास्ता अच्छी तरह समझ-बूझकर शाम होते-होते मंदिर में लौट आये।
पुजारी - कहिये चौबेजी महाराज! आप लोग कहां चले गये थे
बद्री - अजी महाराज, कुछ न पूछो! जरा आगे क्या बढ़ गये बस जहन्नुम में मिल गये। ऐसा रास्ता भूले कि बस हमारा ही जी जानता है।
भैरो - ईश्वर की ही कृपा से इस समय लौट आये नहीं तो कोई उम्मीद यहां पहुंचने की न थी।
पुजारी - राम-राम, यह जंगल बड़ा ही भयानक है, कई दफे तो हम लोग इसमें भूल गये हैं और दो-दो दिन तक भटकते ही रह गये हैं, आप बेचारे तो नये ठहरे। आइये, बैठिये, कुछ जलपान कीजिये।
भैरो - अजी कहां का खाना कैसा पीना! होश तो ठिकाने ही नहीं हैं, बस भंग पीकर खूब सोवेंगे। घूमते-घूमते ऐसे थके कि तमाम बदन चूर-चूर हो गया। कृपानिधान, आज भी हम लोगों की इत्तिला कुमार से ना कीजिएगा, हम लोग मिलाने लायक नहीं हैं, इस समय तो खूब गहरी छनेगी!!
पुजारी - खैर ऐसा ही सही! (हंसकर) आइये, बैठिये तो।
दोनों ऐयारों ने भंग पी और बाकी लोगों को भी पिलाई। इसके बाद कुछ देर आराम करके बाजार में घूमने-फिरने के लिए गये और अच्छी तरह देख-भालकर लौट आये। सोते समय फिर उन्हीं महात्मा का जिक्र पुजारी से करने लगे जिनसे मिलाने का वादा कर चुके थे और यहां तक उनकी तारीफ की कि पुजारीजी उनसे मिलने के लिए जल्दी करने लगे और बोले, "यह तो कहिये, कल आप उनके दर्शन करावेंगे या नहीं"
बद्री - जरूर, बस कुमार यहां से संध्या-पूजा करके लौट जायं तो चले चलिये, मगर अकेले आप ही चलिए, नहीं तो महात्मा बड़ा बिगड़ेंगे कि इतने आदमियों को क्यों ले आए। वह जल्दी किसी से मिलने वाले नहीं हैं।
पुजारी - हमें क्या गरज पड़ी है जो किसी को साथ ले जायें, अकेले आपके साथ चलेंगे।
भैरो - बस तभी तो ठीक होगा।
दूसरे दिन जब महाराजकुमार संध्या-पूजा करके लौट गए तो बद्रीनाथ और भैरोसिंह पुजारी को साथ ले वहां से रवाना हुए और पहाड़ के नीचे उतरने के बाद बोले, "बस अब यहीं बूटी छान लें तब आगे चलें इसीलिए लुटिया लेता आया हूं।"
पुजारी - क्या हर्ज है, बूटी छान लीजिए।
बद्री - आपके हिस्से की भी बनाऊं न
पुजारी - इस दोपहर के समय क्या बूटी पिलाइएगा! हमें तो इतनी आदत न थी, आप ही लोगों के सबब दो दिन से खूब पीने में आती है।
बद्री - क्या हर्ज है, थोड़ा-सा पी लीजिएगा।
पुजारी - जैसी आपकी मर्जी।
हमारे बहादुर ऐयारों ने एक पत्थर की चट्टान पर भंग घोंटकर पी और नजर बचा थोड़ी-सी बेहोशी की दवा मिला पुजारी को भी पिलाई। थोड़ी ही देर में पुजारीजी महाराज तो चीं बोल गए और गहरी बेहोशी में मस्त हो गए। दोनों ऐयार उन्हें उठाकर ले गए और एक झाड़ी में छिपा आए।
बद्री - अब क्या करना चाहिए
भैरो - आप यहां रहिए मैं उसी तरकीब से कुमार को उठा लाता हूं।
बद्री - अच्छी बात है, मैं अपने हाथ से इस पुजारी की सूरत तुम्हें बनाता हूं।
भैरो - बनाइए।
पुजारी की सूरत बना बद्रीनाथ को उसी जगह छोड़ भैरोसिंह लौटे। संध्या होने के पहले ही मंदिर में पहुंचे। लोगों ने पूछा, "कहिये पुजारीजी महात्मा से मुलाकात हुई या नहीं और अकेले क्यों लौटे, चौबेजी कहां रह गए"
नकली पुजारी ने कहा - "महात्मा से मुलाकात हुई। वाह क्या बात है, महात्मा क्या वह तो पूरे सिद्ध हैं। दोनों चौबों को बहुत मानते हैं। उन्हें तो आने न दिया मगर मैं चला आया। अब चौबेजी कल आवेंगे।"
समय पर महाराजकुमार भी आ पहुंचे और संध्या करने के लिए मंदिर के अंदर घुसे। मामूली तौर पर पुजारी के बदले में नकली पुजारी अर्थात भैरोसिंह मंदिर के अंदर रहे और कुमार के अंदर आने पर भीतर से किवाड़ बंद कर लिया। संध्या करने के समय महाराजकुमार के साथ मंदिर के अंदर घुसकर पुजारी क्या-क्या करते थे यह दोनों ऐयारों ने उनसे बातों-बातों में पहले ही दरियाफ्त कर लिया था। पुजारीजी मंदिर के अंदर बैठे कुछ विशेष काम नहीं करते थे, केवल पूजा का सामान कुमार के आगे जमा कर देते और एक किनारे बैठे रहते थे। चलती समय प्रसादी में माला कुमार को देते थे और वे उसे सूंघ आंखों से लगा उसी जगह रख चले जाते थे। आज इन सब कामों को हमारे ऐयार पुजारीजी ने ही पूरा किया।
इस मंदिर में चारों तरफ चार दरवाजे थे। आगे की तरफ तो कई आदमी और पहरे वाले बैठे रहते थे बाईं तरफ के दरवाजे पर होम करने का कुंड बना हुआ था, दाहिने दरवाजे पर फूलों के कई गमले रखे हुए थे, और पिछला दरवाजा बिल्कुल सन्नाटा पड़ता था।
मंदिर के अंदर दरवाजा बंद करके कुमार संध्या करने लगे। प्राणायाम के समय मौका जानकर नकली पुजारी ने आशीर्वाद में देने वाली फूलों की माला में बेहोशी का धूरा मिलाया। जब कुमार चलने लगे, पुजारी ने माला गले में डाली, कुमार ने उसे गले से निकाल सूंघा और माथे से लगाकर उसी जगह रख दिया।
माला सूंघने के साथ ही कुमार का सिर घूमा और वे बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़े। भैरोसिंह ने झटपट उनकी गठरी बांधी और पिछले दरवाजे की राह बाहर निकल आये, इसके बाद उसी छोटी खिड़की की राह किले के बाहर हो जंगल का रास्ता लिया और दो ही घंटे में उस जगह जा पहुंचे जहां पंडित बद्रीनाथ को छोड़ गये थे। वे दोनों कुमार कल्याणसिंह को ले गयाजी की तरफ रवाना हुए।