भाग 18
सुबह का सुहावना समय भी बड़ा ही मजेदार होता है। जबर्दस्त भी परले सिरे का है। क्या मजाल कि इसकी अमलदारी में कोई धूम तो मचावे, इसके आने की खबर दो घंटे पहले ही से हो जाती है। वह देखिए आसमान के जगमगाते हुए तारे कितनी बेचैनी और उदासी के साथ हसरत भरी निगाहों से जमीन की तरफ देख रहे हैं जिनकी सूरत और चलाचली की बेचैनी देख बागों की सुंदर कलियों ने भी मुस्कराना शुरू कर दिया, अगर यही हालत रही तो सुबह होते तक जरूर खिलखिलाकर हंस पड़ेंगी।
लीजिए अब दूसरा ही रंग बदला। प्रकृति की न मालूम किस ताकत ने आसमान की स्याही को धो डाला और इसकी हुकूमत की रात बीतते देख उदास तारों को भी विदा होने का हुक्म सुना दिया। इधर बेचैन तारों की घबराहट देख अपने हुस्न और जमाल पर भूली हुई खिलखिलाकर हंसने वाली कलियों को सुबह की ठंडी-ठंडी हवा ने खूब ही आड़े हाथों लिया और मारे थपेड़ों के उनके उस बनाव को बिगाड़ना शुरू कर दिया जो दो ही घंटे पहले प्रकृति की किसी लौंडी ने दुरुस्त कर दिया था।
मोतियों से ज्यादे आबदार ओस की बूंदों को बिगड़ते और हंसती हुई कलियों का शृंगार मिटते देख उनकी तरफदार खुशबू से न रहा गया, झट फूलों से अलग हो सुबह की ठंडी हवा से उलझ पड़ी और इधर-उधर फैल धूम मचाना शुरू कर दिया। अपनी फरियाद सुनाने के लिए उन नौजवानों के दिमागों में घुस-घुसकर उन्हें उठाने की फिक्र करने लगी जो रातभर जाग-जागकर इस समय खूबसूरत पलंगड़ियों पर सुस्त पड़ रहे थे। जब उन्होंने कुछ न सुना और करवट बदलकर रह गए तो मालियों को जा घेरा। ये झट उठ बैठे और कमर कसकर उस जगह पहुंचे जहां फूलों और उमंग भरे हवा के झपेटों से कहा-सुनी हो रही थी। कम्बख्त छोटे लोगों का यह दिमाग कहां कि ऐसों का फैसला करें, बस फूलों को तोड़-तोड़कर चगेर भरने लगे। चलो छुट्टी हुई, न रहे बांस न बजे बांसुरी। क्या अच्छा झगड़ा मिटाया है! इसके बदले में वे बड़े-बड़े दरख्त खुश हो हवा की मदद से झुक-झुककर मालियों को सलाम करने लगे जिनकी टहनियों में एक भी फूल दिखाई नहीं देता था। ऐसा क्यों न करें उनमें था ही क्या जो दूसरों को महक देते, अपनी सूरत सभों को भाती है और अपना-सा होते देख सभी खुश होते हैं।
लीजिए उन परीजमालों ने भी पलंग का पीछा छोड़ा और उठते ही आईने के मुकाबिल हो बैठीं जिनके बनाव को चाहने वालों ने रात भर में बिथोरकर रख दिया था। झटपट अपनी सम्बुली जुल्फों को सुलझा, माहताबी चेहरों को गुलाबजल से साफ कर, अलबेली चाल से अठखेलियां करती, चम्पई दुपट्टा संभालती, रविशों पर घूमने और फूलों के मुकाबिले में रुक-रुककर पूछने लगीं कि ‘कहिये आप अच्छे या हम’ जब जवाब न पाया हाथ बढ़ा तोड़ लिया और बालियों में झुमकी की जगह रख आगे बढ़ीं। गुलाब की पटरी तक पहुंची थीं, कांटों ने आंचल पकड़ा और इशारे से कहा, “जरा ठहर जाइए, आपके इस तरह लापरवाह जाने से उलझन होती है, और नहीं तो चार आंखें ही करते और आंसू पोंछते जाइए!”
जाने दीजिए ये सब घमंडी हैं। हमें तो कुछ उन लोगों की कुलबुलाहट भली मालूम होती है जो सुबह होने के दो घंटे पहले ही उठ, हाथ-मुंह धो, जरूरी कामों से छुट्टी पा बगल में धोती दबा गंगाजी की तरफ लपके जाते हैं और वहां पहुंच स्नान कर, भस्म या चंदन लगा, पटरों पर बैठ संध्या करते-करते सुबह के सुहावने समय का आनंद पतित-पावनी श्रीगंगाजी की पापनाशिनी तरंगों से ले रहे हैं। इधर गुप्ती में घुसी उंगलियों ने प्रेमानंद में मग्न मनराज की आज्ञा से गिरिजापति का नाम ले एक दाना पीछे हटाया और उधर तरनतारिनी भगवती जाह्नवी की लहरें तख्तों ही से छू-छूकर दस-बीस जन्म का पाप बहा ले गयीं। सुगंधित हवा के झपेटे कहते फिरते हैं - “जरा ठहर जाइए, अर्घा न उठाइये, अभी भगवान सूर्यदेव के दर्शन देर में होंगे, तब तक आप कमल के फूलों को खोलकर इस तरह पर श्रीगंगाजी को चढ़ाइये कि लड़ी टूटने न पावे, फिर देखिये देवता उसे खुद-ब-खुद मालाकार बना देते हैं या नहीं!!”
ये सब तो सत्पुरुषों के काम हैं जो यहां भी आनंद ले रहे हैं और वहां भी मजा लूटेंगे। आप जरा मेरे साथ चलकर उन दो दिलजलों की सूरत देखिये जो रात भर जागते और इधर-उधर दौड़ते रहे हैं और सुबह के सुहावने समय में एक पहाड़ की चोटी पर चढ़ चारों तरफ देखते हुए सोच रहे हैं कि किधर जायं, क्या करें चाहे वे कितने ही बेचैन क्यों न हों मगर पहाड़ों से टक्कर खाते हुए सुबह की ठंडी-ठंडी हवा के झोंकों के डपटने और हिलाकर जताने से उन छोटे-छोटे जंगली फूलों के पौधों की तरफ नजर डाल ही देते हैं जो दूर तक कतार बांधे मस्ती से झूम रहे हैं, उन क्यारियों की तरफ ताक ही देते हैं जिनके फूल ओस के बोझ से तंग हो टहनियां छोड़ पत्थर के ढोकों का सहारा ले रहे हैं, उन साखू और शीशम के पत्तों की घनघनाहट सुन ही लेते हैं जो दक्खिन से आती हुई सुगंधित हवा को रोके, रहे-सहे जहर को चूस, गुणकारी बना उन तक आने का हुक्म देते हैं।
इन दो आदमियों में से एक तो लगभग बीस वर्ष की उम्र का बहादुर सिपाही है जो ढाल-तलवार के इलावे हाथ में तीर-कमान लिए बड़ी मुस्तैदी से खड़ा हे, मगर दूसरे के बारे में हम कुछ नहीं कह सकते कि वह कौन या किस दर्जे और इज्जत का आदमी है। उसकी उम्र चाहे पचास से ज्यादे क्यों न हो मगर अभी तक उसके चेहरे पर बल का नाम-निशान नहीं है, जवानों की तरह खूबसूरत चेहरा दमक रहा है, बेशकीमत पोशाक और हरबों की तरफ खयाल करने से तो यही कहने को जी चाहता है कि किसी फौज का सेनापति है, मगर नहीं, इसका रोआबदार और गंभीर चेहरा इशारा करता है कि यह कोई बहुत ही ऊंचे दर्जे का है जो कुछ देर से खड़ा एकटक वायुकोण की तरफ देख रहा है।
सूर्य की किरणों के साथ ही साथ लाल वर्दी के बेशुमार फौजी आदमी उत्तर से दक्खिन की तरफ जाते दिखाई पड़े जिससे इस बहादुर का चेहरा जोश में आकर और भी दमक उठा और यह धीरे से बोला, “लो हमारी फौज भी आ पहुंची!”
थोड़ी ही देर में वह फौज इस पहाड़ी के नीचे आकर रुक गई जिस पर ये दोनों खड़े थे और एक आदमी पहाड़ के ऊपर चढ़ता हुआ दिखाई दिया जो बहुत जल्द इन दोनों के पास पहुंचकर खड़ा हो गया।
इस नये आये हुए आदमी की उम्र भी पचास से कम न होगी। इसके सिर और मूंछों के बाल चौथाई सफेद हो चुके थे। कद के साथ-साथ खूबसूरत चेहरा भी कुछ लंबा था। इसका रंग सिर्फ गोरा ही न था बल्कि अभी तक रगों में दौड़ती हुई सुर्खी इसके गालों पर अच्छी तरह उभड़ रही थी, बड़ी-बड़ी स्याह और जोश भरी आंखों में गुलाबी डोरियां बहुत भली मालूम होती थीं। इसकी पोशाक ज्यादे कीमत की या कामदार न थी, मगर कम दाम की भी न थी। उम्दे और मोटे स्याह मखमल की इतनी चुस्त थी कि उसके अंगों की सुडौल कपड़े के ऊपर से जाहिर हो रही थी। कमर में सिर्फ एक खंजर और लपेटा हुआ कमंद दिखाई देता था, बगल में सुर्ख मखमल का एक बटुआ भी लटक रहा था।
पाठकों को ज्यादे देर तक हेरानी में न डालकर साफ-साफ कह देना ही पसंद करते हैं कि यह तेजसिंह हैं और इनके पहले पहुंचे हुए दोनों आदमियों में एक राजा वीरेंद्रसिंह और दूसरे उनके लड़के कुंअर आनंदसिंह हैं, जिनके लिए हमें ऊपर बहुत कुछ फजूल बक जाना पड़ा।
राजा वीरेंद्रसिंह और तेजसिंह कुछ देर तक सलाह करते रहे, इसके बाद तीनों बहादुर पहाड़ी के नीचे उतर अपनी फौज में मिल गये और दिल खुश करने के सिवाय बहादुरों को जोश में भर देने वाले बाजे की आवाज के तालों पर एक साथ कदम रखती हुई वह फौज दक्खिन की तरफ रवाना हुई।