भाग 14
इंद्रजीतसिंह ने दूसरे दिन पुनः नियत समय पर माधवी को जाने न दिया, आधी रात तक हंसी-दिल्लगी ही में काटी, इसके बाद दोनों अपने-अपने पलंग पर सो रहे। कुमार को तो खुटका लगा ही हुआ था कि आज वह काली औरत आवेगी इसलिए उन्हें नींद न आई, बारीक चादर में मुंह ढांके पड़े रहे, मगर माधवी थोड़ी ही देर में सो गई।
वह काली औरत भी अपने मौके पर आ पहुंची। पहले तो उसने दरवाजे पर खड़े होकर झांका, जब सन्नाटा मालूम हुआ अंदर चली आई और दरवाजा धीरे से बंद कर लिया। इंद्रजीतसिंह उठ बैठे। उससे अपने मुंह पर उंगली रख चुप रहने का इशारा किया और माधवी के पास पहुंचकर उसे देखा, मालूम हुआ कि वह अच्छी तरह सो रही है।
काली औरत ने अपने बटुए में से बेहोशी की बुकनी निकाली और धीरे से माधवी को सुंघा दिया। थोड़ी देर तक खड़ी रहने के बाद माधवी की नब्ज देखी, जब विश्वास हो गया कि वह बेहोश हो गई तब उसके आंचल से ताली खोल ली और अलमारी में से सुरंग (जिस राह से माधवी आती-जाती थी) की ताली निकाल मोम पर उसका सांचा लिया और फिर उसी तरह ताली अलमारी में रख ताला बंद कर अलमारी की ताली पुनः माधवी के आंचल में बांध इंद्रजीतसिंह के पास आकर बोली, “मैं सांचा ले चुकी, अब जाती हूं, कल दूसरी ताली बनाकर लाऊंगी, तुम माधवी को रातभर इसी तरह बेहोश पड़ी रहने दो। आज वह अपने ठिकाने न जा सकी इसीलिए सबेरे देखना कैसा घबड़ाती है।”
सुबह को कुछ दिन चढ़े माधवी की आंख खुली, घबराकर उठ बैठी। उसने अपने दिल का भाव बहुत कुछ छिपाया मगर उसके चेहरे पर बदहवासी बनी रही जिससे इंद्रजीतसिंह समझ गये कि रात इसकी आंख न खुली और रोज की जगह पर न जा सकी इसका इसे बहुत रंज है। दूसरे दिन आधी रात बीतने पर इंद्रजीतसिंह को सोता समझ माधवी अपने पलंग पर से उठी, शमादान बुझाकर अलमारी में से ताली निकाली और कमरे के बाहर हो उसी कोठरी के पास पहुंची, ताला खोल अंदर गई और भीतर से ताला बंद कर लिया। इंद्रजीतसिंह भी छिपे हुए माधवी के साथ-ही-साथ कमरे के बाहर निकले थे, जब वह कोठरी के अंदर चली गई तो यह इधर-उधर देखने लगे, उस काली औरत को भी पास ही मौजूद पाया।
माधवी के जाने के आधी घड़ी बाद काली औरत ने उसी नई ताली से कोठरी का दरवाजा खोला जो बमूजिब सांचे के आज वह बनाकर लाई थी। इंद्रजीतसिंह को साथ ले अंदर जाकर फिर वह ताला बंद कर दिया। भीतर बिल्कुल अंधेरा था इसलिए काली औरत को अपने बटुए से सामान निकाल मोमबत्ती जलानी पड़ी जिससे मालूम हुआ कि इस छोटी-सी कोठरी में केवल बीस-पचीस सीढ़ियां नीचे उतरने के लिए बनी हैं, अगर बिना रोशनी किये ये दोनों आगे बढ़ते तो बेशक नीचे गिरकर अपने सिर, मुंह या पैर से हाथ धोते।
दोनों नीचे उतरे, वहां एक बंद दरवाजा और मिला, वह भी उसी ताली से खुल गया। अब एक बहुत लंबी सुरंग में दूर तक जाने की नौबत पहुंची। गौर करने से साफ मालूम होता था कि यह सुरंग पहाड़ी के नीचे - नीचे तैयार की गई है, क्योंकि चारों तरफ सिवाय पत्थर के ईंट-चूना-लकड़ी दिखाई नहीं पड़ती थी। यह सुरंग अंदाज में दो सौ गज लंबी होगी। इसे तै करने के बाद फिर बंद दरवाजा मिला। उसे खोलने पर यहां भी ऊपर चढ़ने के लिए वैसी ही सीढ़ियां मिलीं जैसी शुरू में पहली कोठरी खोलने पर मिली थीं। काली औरत समझ गई कि अब यह सुरंग खतम हो गई और इस कोठरी का दरवाजा खुलने से हम लोग जरूर किसी मकान या कमरे में पहुंचेंगे, इसलिए उसने कोठरी को अच्छी तरह देख-भालकर मोमबत्ती गुल कर दी।
हम ऊपर लिख आये हैं और फिर याद दिलाते हैं कि सुरंग में जितने दरवाजे हैं सभी में इसी किस्म के ताले लगे हैं जिनमें बाहर-भीतर दोनों तरफ से चाभी लगती है, इस हिसाब से ताला लगाने का सूराख इस पार से उस पार तक ठहरा, अगर दरवाजे के उस तरफ अंधेरा न हो तो उस सूराख में आंख लगाकर उधर की चीज बखूबी देखने में आ सकती है।
जब काली औरत मोमबत्ती गुल कर चुकी तो उसी ताली के सुराख से आती हुई एक बारीक रोशनी कोठरी के अंदर मालूम पड़ी। उस ऐयारा ने सूराख में आंख लगाकर देखा। एक बहुत बड़ा आलीशान कमरा बड़े तकल्लुफ से सजा हुआ नजर पड़ा, उसी कमरे में बेशकीमती मसहरी पर एक अधेड़ आदमी के पास बैठी कुछ बातचीत और हंसी-दिल्लगी करती हुई माधवी भी दिखाई पड़ी। अब विश्वास हो गया कि इसी से मिलने के लिए माधवी रोज आया करती है। इस मर्द में किसी तरह की खूबसूरती न थी तिस पर भी माधवी न मालूम इसकी किस खूबी पर जी जान से मर रही थी और यहां आने में अगर इंद्रजीतसिंह विघ्न डालते थे तो क्यों इतना परेशान हो जाती थी।
उस काली औरत ने इंद्रजीतसिंह को भी उधर का हाल देखने के लिए कहा। कुमार बहुत देर तक देखते रहे। उन दोनों में क्या बातचीत हो रही थी सो तो मालूम न हुआ मगर उनके हाव-भाव में मुहब्बत की निशानी पाई जाती थी। थोड़ी देर के बाद दोनों पलंग पर सो रहे। उसी समय कुंअर इंद्रजीतसिंह ने चाहा कि ताला खोलकर उस कमरे में पहुंचें और दोनों नालायकों को कुछ सजा दें मगर काली औरत ने ऐसा करने से उन्हें रोका और कहा, “खबरदार, ऐसा इरादा भी न करना, नहीं तो हमारा बना-बनाया खेल बिगड़ जायगा और बड़े-बड़े हौसलों के पहाड़ मिट्टी में मिल जायेंगे, बस इस समय सिवाय वापस चलने के और कुछ मुनासिब नहीं है।”
काली औरत ने जो कुछ कहा लाचार इंद्रजीतसिंह को मानना और वहां से लौटना ही पड़ा। उसी तरह ताला खोलते और बंद करते बराबर चले आये और उस कमरे के दरवाजे पर पहुंचे जिसमें इंद्रजीतसिंह सोया करते थे। कमरे में अंदर न जाकर काली औरत इंद्रजीतसिंह को मैदान में ले गई और नहर के किनारे एक पत्थर की चट्टान पर बैठने के बाद दोनों में यों बातचीत होने लगी -
इंद्र - तुमने उस कमरे में जाने से व्यर्थ ही मुझे रोक दिया।
औरत - ऐसा करने से क्या फायदा होता! यह कोई गरीब कंगाल का घर नहीं है बल्कि ऐसे की अमलदारी है जिसके यहां हजारों बहादुर और एक से एक लड़ाके मौजूद हैं, क्या बिना गिरफ्तार हुए तुम निकल जाते! कभी नहीं। तुम्हारा यह सोचना भी ठीक नहीं है कि जिस राह से मैं आती-जाती हूं उसी राह से तुम भी इस सरजमीन के बाहर हो जाओगे क्योंकि वह राह सिर्फ हमीं लोगों के आने-जाने लायक है, तुम उससे किसी तरह नहीं जा सकते, फिर जान-बूझकर अपने को आफत में फंसाना कौन बुद्धिमानी थी।
इंद्र - क्या जिस राह से तुम आती-जाती हो उससे मैं नहीं जा सकता?
औरत - कभी नहीं, इसका खयाल भी न करना।
इंद्र - सो क्यों
औरत - इसका सबब भी जल्दी ही मालूम हो जाएगा।
इंद्र - खैर तो अब क्या करना चाहिए
औरत - अब तुम्हें सब्र करके दस-पंद्रह दिन और इसी जगह रहना मुनासिब है।
इंद्र - अब मैं किस तरह उस बदकारा के साथ रह सकूंगा।
औरत - जिस तरह भी हो सके!
इंद्र - खैर फिर इसके बाद क्या होगा
औरत - इसके बाद यह होगा कि तुम सहज ही में न सिर्फ इस खोह के बाहर ही हो जाओगे बल्कि एकदम से यहां का राज्य भी तुम्हारे कब्जे में आ जाएगा।
इंद्र - क्या यह कोई राजा था जिसके पास माधवी बैठी थी।
औरत - नहीं, यह राज्य माधवी का है, और वह उसका दीवान था।
इंद्र - माधवी तो अपने राज्य का कुछ भी नहीं देखती।
औरत - अगर वह इस लायक होती तो दीवान की खुशामद क्यों करती।
इंद्र - इस हिसाब से तो दीवान ही को राजा कहना चाहिए।
औरत - बेशक!
इंद्र - खैर, अब तुम क्या करोगी
औरत - इसके बताने की अभी कोई जरूरत नहीं, दस-बारह दिन बाद मैं तुमसे मिलूंगी और जो कुछ इतने दिनों में कर सकूंगी उसका हाल कहूंगी, बस अब मैं जाती हूं, दिल को जिस तरह हो सके सम्हालो और माधवी पर किसी तरह यह मत जाहिर होने दो कि उसका भेद तुम पर खुल गया या तुम उससे कुछ रंज हो, इसके बाद देखना कि इतना बड़ा राज्य कैसे सहज ही में हाथ लगता है जिसका मिलना हजारों सिर कटने पर भी मुश्किल है।
इंद्र - खैर यह तमाशा भी जरूर ही देखने लायक होगा।
औरत - अगर बन पड़ा तो इस वादे के बीच में एक-दो दफे आकर तुम्हारी सुध ले जाऊंगी।
इंद्र - जहां तक हो सके जरूर आना।
इसके बाद वह काली औरत चली गई और इंद्रजीतसिंह अपने कमरे में आकर सो रहे।
पाठक समझते होंगे कि इस काली औरत या इंद्रजीतसिंह ने जो कुछ किया या कहा-सुना किसी को मालूम नहीं हुआ, मगर नहीं, वह भेद उसी वक्त खुल गया और काली औरत के काम में बाधा डालने वाला भी कोई पैदा हो गया बल्कि उसने उसी वक्त से छिपे-छिपे अपनी कार्रवाई भी शुरू कर दी जिसका हाल माधवी को मालूम न हो सका।