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जब तुम्हारे साथ मेरा खेल हुआ करता था

मेरा खेल साथ तुम्‍हारे जब होता था
तब, कौन हो तुम, यह किसे पता था.
तब, नहीं था भय, नहीं थी लाज मन में, पर
जीवन अशांत बहता जाता था
तुमने सुबह-सवेरे कितनी ही आवाज लगाई
ऐसे जैसे मैं हूँ सखी तुम्‍हारी
हँसकर साथ तुम्‍हारे रही दौड़ती फिरती
उस दिन कितने ही वन-वनांत.

ओहो, उस दिन तुमने गाए जो भी गान
उनका कुछ भी अर्थ किसे पता था.
केवल उनके संग गाते थे मेरे प्राण,
सदा नाचता हृदय अशांत.
हठात् खेल के अंत में आज देखूँ कैसी छवि--
स्‍तब्‍ध आकाश, नीरव शशि-रवि,
तुम्‍हारे चरणों में होकर नत-नयन
एकांत खड़ा है भुवन.

गीतांजलि

रवीन्द्रनाथ ठाकुर
Chapters
मेरा मस्तक अपनी चरणधूल तले नत कर दो मैं अनेक वासनाओं को चाहता हूँ प्राणपण से कितने अनजानों से तुमने करा दिया मेरा परिचय विपदा से मेरी रक्षा करना अंतर मम विकसित करो प्रेम में प्राण में गान में गंध में तुम नए-नए रूपों में, प्राणों में आओ कहाँ है प्रकाश, कहाँ है उजाला मुझे झुका दो, मुझे झुका दो आज द्वार पर आ पहुँचा है जीवंत बसंत अपने सिंहासन से उतर कर तुम अब तो मुझे स्वीकारो नाथ जीवन जब सूख जाए अपने इस वाचाल कवि को विश्व है जब नींद में मगन वह तो तुम्हारे पास बैठा था तुम लोगों ने सुनी नहीं क्या मान ली, मान गयी मैं हार एक-एक कर गाते-गाते गान तुम्हारा प्रेम तुम्हारा वहन कर सकूँ हे सुंदर आए थे तुम आज प्रात जब तुम्हारे साथ मेरा खेल हुआ करता था