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प्रेम तुम्हारा वहन कर सकूँ

वहन कर सकूँ प्रेम तुम्‍हारा
ऐसी सामर्थ्‍य नहीं।

इसीलिए इस संसार में
मेरे-तुम्‍हारे बीच
कृपाकर तुमने रखे नाथ
अनेक व्‍यवधान-
दुख-सुख के अनेक बंधन
धन-जन-मान।
ओट में रहकर क्षण-क्षण
झलक दिखाते ऐसे-
काले मेघों की फॉंको से
रवि मृदुरेखा जैसे।

शक्‍ति जिन्‍हें देते ढोने की
असीम प्रेम का भार
एक बार ही सारे परदे
देते हो उतार।
न रखते उन पर घर के बंधन
न रखते उनके धन
नि:शेष बनाकर पथ पर लाकर
करते उन्‍हें अकिंचन।
न व्‍यापता उन्‍हें मान-अपमान
लज्‍जा-शरम-भय।

अकेले तुम सब कुछ उनके
विश्‍व-भुवनमय।
इसी तरह आमने-सामने
सम्‍मुख तुम्‍हारा रहना,
केवल मात्र तुम्‍हीं में प्राण
परिपूर्ण कर रखना,
यह दया तुम्‍हारी पाई जिसने
उसका लोभ असीम
सकल लोभ वह दूर हटाता
देने को तुमको स्‍थान।

गीतांजलि

रवीन्द्रनाथ ठाकुर
Chapters
मेरा मस्तक अपनी चरणधूल तले नत कर दो मैं अनेक वासनाओं को चाहता हूँ प्राणपण से कितने अनजानों से तुमने करा दिया मेरा परिचय विपदा से मेरी रक्षा करना अंतर मम विकसित करो प्रेम में प्राण में गान में गंध में तुम नए-नए रूपों में, प्राणों में आओ कहाँ है प्रकाश, कहाँ है उजाला मुझे झुका दो, मुझे झुका दो आज द्वार पर आ पहुँचा है जीवंत बसंत अपने सिंहासन से उतर कर तुम अब तो मुझे स्वीकारो नाथ जीवन जब सूख जाए अपने इस वाचाल कवि को विश्व है जब नींद में मगन वह तो तुम्हारे पास बैठा था तुम लोगों ने सुनी नहीं क्या मान ली, मान गयी मैं हार एक-एक कर गाते-गाते गान तुम्हारा प्रेम तुम्हारा वहन कर सकूँ हे सुंदर आए थे तुम आज प्रात जब तुम्हारे साथ मेरा खेल हुआ करता था