Get it on Google Play
Download on the App Store

हास्य-रस -पाँच


फ़िरगी से कहा, पेंशन भी ले कर बस यहाँ रहिये
कहा-जीने को आए हैं,यहाँ मरने नहीं आये


बर्क़ के लैम्प से आँखों को बचाए अल्लाह
रौशनी आती है, और नूर चला जाता है

काँउंसिल में सवाल होने लगे
क़ौमी ताक़त ने जब जवाब दिता


हरमसरा की हिफ़ाज़त को तेग़ ही न रही
तो काम देंगी ये चिलमन की तीलियाँ कब तक ?


ख़ुदा के फ़ज़्ल से बीवी-मियाँ दोनों मुहज़्ज़ब हैं
हिजाब उनको नहीं आता इन्हें ग़ुसा नहीं आता

माल गाड़ी पे भरोशा है जिन्हें ऐ अकबर
उनको क्या ग़म है गुनाहों की गिराँबारी का?

ख़ुदा की राह में बेशर्त करते थे सफ़र पहले
मगर अब पूछते हैं रेलवे इसमें कहाँ तक है?

अकबर इलाहाबादी की शायरी

अकबर इलाहाबादी
Chapters
गांधीनामा हंगामा है क्यूँ बरपा कोई हँस रहा है कोई रो रहा है बहसें फ़ुजूल थीं यह खुला हाल देर से दिल मेरा जिस से बहलता दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार नहीं हूँ समझे वही इसको जो हो दीवाना किसी का आँखें मुझे तल्वों से वो मलने नहीं देते पिंजरे में मुनिया उन्हें शौक़-ए-इबादत भी है एक बूढ़ा नहीफ़-ओ-खस्ता दराज़ अरमान मेरे दिल का निकलने नहीं देते जो यूं ही लहज़ा लहज़ा दाग़-ए-हसरत की तरक़्क़ी है फिर गई आप की दो दिन में तबीयत कैसी कहाँ ले जाऊँ दिल दोनों जहाँ में इसकी मुश्किल है किस किस अदा से तूने जलवा दिखा के मारा कट गई झगड़े में सारी रात वस्ल-ए-यार की शक्ल जब बस गई आँखों में तो छुपना कैसा दम लबों पर था दिलेज़ार के घबराने से जान ही लेने की हिकमत में तरक़्क़ी देखी ख़ुशी है सब को कि आप्रेशन में ख़ूब नश्तर चल रहा है आपसे बेहद मुहब्बत है मुझे हिन्द में तो मज़हबी हालत है अब नागुफ़्ता बेह बिठाई जाएंगी पर्दे में बीबियाँ कब तक हस्ती के शजर में जो यह चाहो कि चमक जाओ तअज्जुब से कहने लगे बाबू साहब सूप का शायक़ हूँ यख़नी होगी क्या चश्मे-जहाँ से हालते अस्ली छिपी नहीं हास्य-रस -एक हास्य-रस -दो हास्य-रस -तीन हास्य-रस -चार हास्य-रस -पाँच हास्य-रस -छ: हास्य-रस -सात ख़ुदा के बाब में मुस्लिम का मियाँपन सोख़्त करो जिस बात को मुफ़ीद समझते हो गाँधी तो हमारा भोला है मुझे भी दीजिए अख़बार शेर कहता है बहार आई आबे ज़मज़म से कहा मैंने शेख़ जी अपनी सी बकते ही रहे हाले दिल सुना नहीं सकता हो न रंगीन तबीयत मौत आई इश्क़ में काम कोई मुझे बाकी नहीं तहज़ीब के ख़िलाफ़ है हम कब शरीक होते हैं मुँह देखते हैं हज़रत अफ़्सोस है ग़म क्या उससे तो इस सदी में ख़ैर उनको कुछ न आए जो हस्रते दिल है मायूस कर रहा है वो हवा न रही वो चमन न रहा सदियों फ़िलासफ़ी की चुनाँ जो तुम्हारे लब-ए-जाँ-बख़्श जहाँ में हाल मेरा हूँ मैं परवाना मगर ग़म्ज़ा नहीं होता के चर्ख़ से कुछ उम्मीद थी ही नहीं हर क़दम कहता है तू आया है जाने के लिए