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ख़ुशी है सब को कि आप्रेशन में ख़ूब नश्तर चल रहा है

ख़ुशी है सब को कि आप्रेशन में ख़ूब नश्तर[1] चल रहा है
किसी को इसकी ख़बर नहीं है मरीज़ का दम निकल रहा है

फ़ना[2] उसी रंग पर है क़ायम, फ़लक वही चाल चल रहा है
शिकस्ता-ओ-मुन्तशिर[3] है वह कल, जो आज साँचे में ढल रहा है

यह देखते ही जो कासये-सर[4], गुरूरे-ग़फ़लत[5] से कल था ममलू[6]
यही बदन नाज़ से पला था जो आज मिट्टी में गल रहा है

समझ हो जिसकी बलीग़[7] समझे, नज़र हो जिसकी वसीअ[8] देखे
अभी तक ख़ाक भी उड़ेगी जहाँ यह क़ुल्जुम[9] उबल रहा है

कहाँ का शर्क़ी[10] कहाँ का ग़र्बी[11] तमाम दुख-सुख है यह मसावी[12]
यहाँ भी एक बामुराद ख़ुश है, वहाँ भी एक ग़म से जल रहा है

उरूजे-क़ौमी ज़वाले-क़ौमी, ख़ुदा की कुदरत के हैं करिश्मे
हमेशा रद्द-ओ-बदल के अन्दर यह अम्र पोलिटिकल रहा है

मज़ा है स्पीच का डिनर में, ख़बर यह छपती है पॉनियर में
फ़लक की गर्दिश[13] के साथ ही साथ काम यारों का चल रहा है

अकबर इलाहाबादी की शायरी

अकबर इलाहाबादी
Chapters
गांधीनामा हंगामा है क्यूँ बरपा कोई हँस रहा है कोई रो रहा है बहसें फ़ुजूल थीं यह खुला हाल देर से दिल मेरा जिस से बहलता दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार नहीं हूँ समझे वही इसको जो हो दीवाना किसी का आँखें मुझे तल्वों से वो मलने नहीं देते पिंजरे में मुनिया उन्हें शौक़-ए-इबादत भी है एक बूढ़ा नहीफ़-ओ-खस्ता दराज़ अरमान मेरे दिल का निकलने नहीं देते जो यूं ही लहज़ा लहज़ा दाग़-ए-हसरत की तरक़्क़ी है फिर गई आप की दो दिन में तबीयत कैसी कहाँ ले जाऊँ दिल दोनों जहाँ में इसकी मुश्किल है किस किस अदा से तूने जलवा दिखा के मारा कट गई झगड़े में सारी रात वस्ल-ए-यार की शक्ल जब बस गई आँखों में तो छुपना कैसा दम लबों पर था दिलेज़ार के घबराने से जान ही लेने की हिकमत में तरक़्क़ी देखी ख़ुशी है सब को कि आप्रेशन में ख़ूब नश्तर चल रहा है आपसे बेहद मुहब्बत है मुझे हिन्द में तो मज़हबी हालत है अब नागुफ़्ता बेह बिठाई जाएंगी पर्दे में बीबियाँ कब तक हस्ती के शजर में जो यह चाहो कि चमक जाओ तअज्जुब से कहने लगे बाबू साहब सूप का शायक़ हूँ यख़नी होगी क्या चश्मे-जहाँ से हालते अस्ली छिपी नहीं हास्य-रस -एक हास्य-रस -दो हास्य-रस -तीन हास्य-रस -चार हास्य-रस -पाँच हास्य-रस -छ: हास्य-रस -सात ख़ुदा के बाब में मुस्लिम का मियाँपन सोख़्त करो जिस बात को मुफ़ीद समझते हो गाँधी तो हमारा भोला है मुझे भी दीजिए अख़बार शेर कहता है बहार आई आबे ज़मज़म से कहा मैंने शेख़ जी अपनी सी बकते ही रहे हाले दिल सुना नहीं सकता हो न रंगीन तबीयत मौत आई इश्क़ में काम कोई मुझे बाकी नहीं तहज़ीब के ख़िलाफ़ है हम कब शरीक होते हैं मुँह देखते हैं हज़रत अफ़्सोस है ग़म क्या उससे तो इस सदी में ख़ैर उनको कुछ न आए जो हस्रते दिल है मायूस कर रहा है वो हवा न रही वो चमन न रहा सदियों फ़िलासफ़ी की चुनाँ जो तुम्हारे लब-ए-जाँ-बख़्श जहाँ में हाल मेरा हूँ मैं परवाना मगर ग़म्ज़ा नहीं होता के चर्ख़ से कुछ उम्मीद थी ही नहीं हर क़दम कहता है तू आया है जाने के लिए