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अष्ठम सर्ग : भाग-1

उपदेश

वा रोहिणी के तीर ख्रड़हर आज लौं फैलो परो
जहँ दूब सों छायो गयो बहु दूर लौं पटपर हरो।
ईशान दिशि वाराणसी सों शकट चढ़ि जो जाइए
तो पाँच दिन को मार्ग चलि वा रम्य थल को पाइए,

लखि परत जहँ सों धावल हिमगिरिशृंग, जो फूलोफरो
है रहत बारह मास, सिंचित सरस बागन सों भरो,
जहँ लसत ढार सुढार शीतल छाँह मृदु सौरभ लिए।
है अजहुँ भावपुनीत बरसत ठौर वा जो जाइए।

नित बहत सांधय समीर ह्नै अति शांत झाड़न पैहरे,
जहँ ढेर चित्रित पाथरन के ढूह ह्नै कारे परे,
अश्वत्थ जिनको भेदि फैले मूलजाल बिछाय कै,
जो लसत चारों और तृणदल- तरल- पट सों छायकै।

कढ़ि कतहुँ कारुज काठ के बहु साज सों जो नसि धँसो।
चुपचाप फेंटी मारि कारो नाग फलकन पै बसो।
ऑंगनन में जिन नृपति टहरत फिरत गिरगिट हैं तहाँ
अब स्यार बेदी तर बसत तहँ सजत सिंहासन जहाँ।

बस शृंग, सरित, कछार और समीर ज्यों के त्यों रहे
नसि और सब शोभा गई, वे दृश्य जीवन के बहे।
नृप शाक्य शुद्धोदन बसत ह्याँ राजधानी यह रही।
भगवान् जहँ उपदेश भाख्यो एक दिन सो थल यही।

पूर्वकाल में कबहुँ रह्यो यह थल अति सुंदर।
याके चहुँ दिशि लसत रम्य आराम मनोहर।
बाटैं बिच बिच कटीं, सेतु नारिन पै सोहत,
चलत रहत जलयंत्रा, सरोवर जनमन मोहत।

पाटल के परिमंडल भीतर चमकत चत्वर।
लसत अनेक अलिंद, खंभ बहु सोहत सुंदर।
इत उत तोरण राजभवन के कहुँ बढ़ि आए।
चमकत जिनके कलश दूर सों रविकर पाए।

याही थल भगवान् एक दिन बैठे आई,
भक्ति भाव सों घेरि लोग प्रभु दिशि टक लाई
जोहत मुख सुनिबे को बाणी ज्ञान भरी अति,
जाको लहि जग शांत वृत्ति गहि तजी क्रूरमति,
नर पंचाशत् कोटि आज लौं जाके अनुगत,
काटन हित भवपाश आस करि होत धर्मरत।
 
बीच में भगवान् सोहत शाक्य भूपति तीर।
घेरि चारों ओर सों सामंत बैठे धीर-
देवदत्ता अनंद आदिक सभा के सब लोग
धर्म दीक्षा राय दीनो 'संघ' में जो योग।
 
मौद्गल, मन सारिपुत्रहु बसे प्रभु पश्चात्
'संघ' माहिं प्रधन सब सों शिष्य जे कहि जात।
रह्यो राहुल हू हँसतमुख गहे प्रभु- पट- कोर,
बाल चख सों चकित चितवत भव्य मुखकीओर।
 
चरण ढिग भगवान् के बसि रही गोपा जाय,
आज तन- मन- पीर ताकी गई सकल नसाय।
भयो साँचे प्रेम को वा बोध अंतस् माहिं।
क्षणिक इंद्रियवेग पै अवलंब जाको नाहिं।
 
भयो भासित नयो जीवन जरा जाहि न खाति
और अंतिम मृत्यु जासों मृत्यु ही मरि जाति।
भई भागिनी या विजय की सोउ प्रभु के संग
मानि आपहि धन्य फूलि समाति ना निज अंग।

भगवान् के काषाय पट को छोरि सिर पैडारि,
शुचि वाम कर पै तासु सादर रही निज कर धारि।
निकटस्थ अति या भाँति ताकी परति सो दरसाय
त्रौलोक्य वाणी जासु जोहत रह्यो अति अकुलाय।
 
भगवान् के मुख सों कढ़यो जो ज्ञान परम नवीन
कहि सकौं तासु शतांश हू मैं नाहिं अति मतिहीन।
या काल में बसि बात सब मैं सकौं कैसे जानि?
हिय धारौं बस कछु भक्ति प्रभु के प्रेम को पहिचानि।
 
आचार्यगण जो लिखि गए प्राचीन पोथिन माहिं
हौं कहौं तासों बढ़ि कछू सामर्थ्य एती नाहिं।
भगवान् ने जो दियो वा उपदेश को कछु सार
जो कछू थोरो बहुत जानत कहत मति अनुसार
 
उपदेश केते सुनन आए करै गिनती कौन?
प्रत्यक्ष जे लखि परे तहँ बसि सुनत धारे मौन
कहुँ रहे तिनसो लाख और करोरगुन अधिकाय।
सब देव पितर अदृश्य ह्नै तहँ रहे भीर लगाय।
 
सब लोक ऊपर के भए सूने निपट वा काल।
छुटि नरक हू के जीव आए तोरि साँसति जाल।
बिलमी रही बढ़ि अवधि सों रविज्योति परम ललाम
अनुराग सों अति झाँकते गिरिशृंग पै अभिराम।
 
रैन मानो घाटिन में, बासर पहारन पै
       ठमकि सुनत बानी प्रभु की सुधाभरी।
बीच में सलोनी साँच अप्सरा सो मानो कोउ,
       मति गति खोय थकी मोहित सी जो खरी।
छिटके घुवा से घन कुंतलकलाप मानो,
       तारावलि मोतिन की लरी बिखरी परी।
अर्ध्दचंद्र सोइ मानो बेंदी बिलसति भाल,
       तम को पसार मानो नील सारी पातरी।
 
सुरभित मंद मंद बहत समीर, सोई
       मानो थामि थामि साँस छाँड़ति बिसारि गात।
सुंदर समय पाय बसि याही ठौर शुचि
       करि रहे प्रभु उपदेश अति अवदात।
जाने जाने सुने जाने सुने अनजाने सब-
       ऊँच, नीच, आर्य, म्लेच्छ, कोल, भील औ किरात-
       परति सुनाय तिन्हैं बोलिन में निज निज
       भाखत जो जात भगवान् ज्ञानभरी बात।
 
नर, देव, पितरन की कहा जो रहे भीर लगाय
सब, कीट, खग, मृग आदि हु को परत कछुकजनाय
वा प्रेम को आभास जो प्रभु हृदय माहिं अपार।
बँधि रही आशा तिन्हैं प्रभु के वचन के अनुसार।
 
जे बँधो सारे जीव नाना रूप देहन संग-
वृक, बाघ, मर्कट, भालु, जंबुक, श्वान, मृग सारंग,
बहु रत्नमंडित मोर, मोतीचूर नयन कपोत,
सित कंक, कारे काग आमिष भोज जिनको होत,
 
अति प्लवनपटु मंडूक, गिरगिट, गोह, चित्र भुजंग,
झष चपल उछरत झलकि जो छलकाँय सलिलतरंग,
सब जोरि नातो मनुज सों, जो शुद्ध तिन सम नाहिं,
अब कटन बंधन चहत गुनि यह मुदित हैं मनमाहिं।
 
नृप को सुनाय सब धर्मसार
उपदेश कियो प्रभु या प्रकार