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रामलीला

मैंने उन्हीं अपने मित्र पंडितजी को बुलाया कि मुझे रामलीला दिखा दीजिये। उनसे पता चला कि रामलीला एक दिन नहीं होती, वह पन्द्रहियों और कहीं-कहीं तो महीनों चलती है। अच्छा यह है कि शाम को ही यह होती है।

पंडितजी से मैंने कहा जो विशेष दिन हों, जिस दिन कोई विशेषता हो, उस दिन मुझे ले चलिये। पहले दिन मैं रामलीला देखने पहुँचा। मैंने समझा था कि किसी विशेष हाल या मंच पर यह लीला होती होगी। किन्तु भारवासी बड़े विद्वान होते हैं। उन्होंने सोचा कि व्यर्थ धन के अपव्यय से क्या लाभ। सड़कें तो जनता की हैं ही, इनका उपयोग सब लोग कर सकते हैं। जो चीज सबकी है उसका सभी को उपयोग तथा उपयोग करने का अधिकार होना चाहिये।

सड़क पर बड़ी भीड़ थी। कुछ लोग एक ओर से जाते थे, कुछ लोग दूसरी ओर से। सवारियों का आना-जाना बन्द था। इतनी भली बात इन लोगों ने की कि रेल की लाइन या रेलवे स्टेशन पर यह कृत्य नहीं आरम्भ किया, नहीं तो सात आठ घण्टे रेलें बन्द रहतीं।

कार तो बहुत दूर छोड़ देनी पड़ी।

मुझे सब ठीक-ठीक देखना था, इसलिये भीड़ में जाना आवश्यक था। भीड़ में देखा कि कुछ लोग कन्धे पर, कुछ लोग सड़क के किनारे किसी वस्तु पर बड़ी-बड़ी थालियाँ रखे हुए हैं। उनमें उजली-उजली छोटी-छोटी टिकिया रखी हुई हैं। मैंने समझा भारत में मलेरिया का प्रकोश अधिक होता है। सम्भवतः कुनैन की टिकिया सरकार की ओर से सार्वजनिक ढंग से बिक रही हो। किन्तु पीछे पता चला कि यह मिठाई है। इसे रेवड़ी कहते हैं। मुझे आश्चर्य हुआ कि हंटले पामर या जेकब कंपनियों ने अभी इन्हें बनाकर भेजना आरम्भ नहीं किया।

कुछ और बड़ी थालियाँ थीं, जिन पर चावल चिपटा करके बिक रहा था। रेवड़ी वाली तथा इन चिपटे चावल की थालियों के किनारे एक छोटा-सा डब्बा लगा था जिसमें से दो मोटी-मोटी बत्तियाँ निकली जल रही थीं। इस लैंप पर कोई चिमनी नहीं थी। इसमें से धुएँ का काला बादल निकल रहा था।

भारतवासी काले रंग के होते हैं, इनके देवता और महापुरुष काले होते हैं। सुना जाता है कि राम और कृष्ण जो इनके यहाँ महान पुरुष हो गये हैं, काले थे। इसलिये काले धुएँ को यह लोग प्यार करते हैं। मेरा तो दम घुटने लगा। म्युनिस्पैलिटी स्वास्थ्य विभाग ने भी इसे उपयोगी समझा होगा, क्योंकि इतनी बड़ी भीड़ में लोगों की साँसों से जो जर्म निकलते हैं उनका विध्वंस करने के लिये कुछ तो प्रबन्ध होना आवश्यक है।

सड़क के किनारे पटरी पर कई आदमी बैठे हुए थे। उनमें कुछ लोगों के हाथों में बाजे थे, ढोल थे और एक पुस्तक में से पढ़कर बड़े ऊँचे स्वर में गा रहे थे। सिर भी उनके झूम रहे थे। पूछने पर पता लगा कि जिस पुस्तक में से वह गा रहे हैं उसी में राम की कहानी लिखी है।

कब लीला होगी और उसमें क्या होगा, इसकी मुझे बड़ी उत्सुकता थी। भारतवासी आरम्भ से ही योग में बड़े पक्के हैं, इसलिये देश और काल से रहित होते हैं। समय को तुच्छ समझते हैं, काल पर इन्होंने विजय पा ली है। छः बजे और दस बजे में उन्हें कोई अन्तर नहीं जान पड़ता। बारह बजने के लगभग हो रहा था और जन समूह रेवड़ी, चिपटे चावल और कुछ खिलौना बेचनेवालों के सिवाय वहाँ कुछ दिखायी नहीं पड़ता था। पंडित जी ने कहा कि अब नाक कटने ही वाली है। मैं डरा कि हम लोगों की नाक काट ली जायेगी। और यदि यहाँ कट गयी तो हम लोग कुछ कर भी नहीं सकते, क्योंकि ब्रिटिश सरकार ने धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप न करने का सिद्धांत बना लिया है। पुस्तकों में लिखा है कि एक बार ऐसी ही किसी बात में सन् 1857 में हस्तक्षेप किया गया तो गदर हो गया।

फिर पंडितजी ने मुझे रामायण की कहानी सुनायी। मुझे यह तो बड़ी अच्छी कहानी जान पड़ती है। हिन्दू लोग भी ऐसी कहानियाँ लिख सकते हैं! उन्होंने कहा, 'यह कहानी नहीं है। ऐसी घटना हुई थी।'

दूसरे ही दिन मैंने रामायण की एक पोथी बाजार से मँगवायी। अभी तक अंग्रेजी में इसका कोई संस्करण नहीं निकला। सुना है कि किसी अंग्रेज ने इसका अनुवाद किया है। उसे मँगाने का विचार है। अंग्रेज लोग भारतीय साहित्य और संस्कृति का कितना उद्धार करते हैं, फिर भी भारतवासी उनका विरोध करते रहते हैं। कितनी कृतघ्नता है!

दो-तीन दिनों के बाद मैं फिर रामलीला देखने आया। आज की लीला मुझे मनोरंजक जान पड़ी। कई व्यक्तियों ने विचित्र कपड़े पहन लिये थे और मुँह पर चेहरा लगा लिया था। चेहरे से बड़ी लम्बी लाल जीभ निकली हुई थी। इन लोगों के एक हाथ में तलवार थी और दूसरे में प्याला। यह लोग उसी सड़क पर तलवार भाँज रहे थे। भीड़ चारों ओर से घेरे हुए थी।

यह लोग तलवार भाँजने की अच्छी कला जानते हैं। किन्तु अच्छा होता कि यह लोग तलवार छोड़कर मशीनगन चलाते या बम फेंकते, क्योंकि अब समय बदल गया है और पुराने हथियार किसी काम के नहीं रहे। जैसे भारतीयों ने चाय, कॉ़फी, टोस्ट, सूट इत्यादि को अपना कर अर्वाचीनता को ग्रहण किया, उसी प्रकार उन्हें अपने त्योहारों में लकीर का फकीर नहीं बनना चाहिये।

आज की लीला तलवारों का खेल थी। अच्छा तो अवश्य था, किन्तु बड़ा पुराना। सरकार ने, मैं समझता हूँ, इसलिये इसे बन्द कर देने की आज्ञा नहीं दी। वह जानती है कि तलवार चलाना भारतवासी कितना भी सीख लें, बन्दूक और मशीनगन के आगे नहीं ठहर सकते, इसलिये इससे किसी प्रकार का भय नहीं है।

एक दिन मैं और लीला देखने गया। आज के ही दिन लंका का सम्राट् अयोध्या के सम्राट द्वारा मारा गया। देखा कि कागज की एक विशाल मूर्ति बनी है और उसके भीतर एक आदमी घुसा हुआ है। वही उसे संचालित करता है। आज की लीला सन्ध्या को ही समाप्त हो गयी और लीला देखनेवालों में बड़ा उल्लास दिखायी पड़ा। मैंने सुना, अभी कई दिन और यह बस चलेगा, किन्तु मैं फिर नहीं गया।

मैं सोचने लगा कि सचमुच यह धार्मिक मृत्यु है या सैनिक मनोवृत्ति जाग्रत् करने का बहाना हिन्दुओं ने बना रखा है। यदि ऐसी बात है, तब तो भारत में ब्रिटिश शासन के लिये खतरे की बात है। यद्यपि सेना में भरती होने के पहले मैं भारत को स्वतन्त्रता दे देने का पक्षपाती था। यहाँ आने पर भी मेरा यही विचार था, किन्तु अब यह विचार डावाँडोल हो रहा है, कभी कुछ निश्चय नहीं कर पाता हूँ। यहाँ की नौकरी, नौकरी नहीं है। हम लोग नौकर हैं, किन्तु भारतवासी हमें देवता के समान समझते हैं। ऐसी नौकरी हमें कहाँ मिलेगी! यहाँ के ऐसा शिकार का साधन कहाँ मिल सकता? यहाँ तो मनुष्य का भी शिकार कर लो, तो कोई बोलनेवाला नहीं है। खाने-पीने की सुविधा। इन सब बातों को जब सोचता हूँ तब और मन करता है। इनका इतिहास और संस्कृति जब देखता हूँ, तब मन कुछ और ही कहता है। मैं इस पर विचार करके कुछ निश्चय करूँगा।

वैद्यजी

इधर तो कई महीने से मैं बड़े संयम से रहने लगा हूँ। केवल दो बोतल व्हिस्की अब प्रतिदिन पीता हूँ। सवेरे चाय के साथ अण्डे भी केवल चार ही खाता हूँ। इसी प्रकार और भी भोजन में कमी कर दी है। फिर भी मुझे मलेरिया हो ही गया। भारतवर्ष का सबसे बड़ा शस्त्र मलेरिया है। सुनता हूँ, यहाँ क्षय रोग भी बहुत होता है। मेरी राय में तो मलेरिया तथा क्षय की सेना इतनी बली है कि भारतवासियों को किसी बैरी से लड़ने के लिये और किसी अस्त्र-शस्त्र की आवश्यकता ही नहीं है। इसी के द्वारा सब पर विजयी हो सकते हैं।

बीस दिन मैं सैनिक अस्पताल में पड़ा रहा। खूब कुनैन खायी। अब ज्वर तो नहीं आता, किन्तु दुर्बलता वैसी ही बनी हुई है। कई दवाइयाँ खायीं, किन्तु शरीर में जो स्वास्थ्य की पहले उमंग थी, वह कहाँ चली गयी, पता नहीं। काम में जी नहीं लगता। छः महीने की छुट्टी की अर्जी मैंने दी है। मेडिकल बोर्ड जाँच करनेवाला है। यदि छुट्टी मिल गयी तो मैं इंग्लैंड जाकर अपना स्वास्थ्य ठीक करूँगा।

मैं सब तैयारी कर रहा था। एक दिन मेरे मित्र पंडितजी आये। उन्होंने काशी या कलकत्ते जाकर किसी वैद्य को दिखाने के लिये कहा। वैद्य लोग देशी डाक्टर होते हैं। वह किसी कॉलेज में नहीं पढ़ते। आज से सात-आठ सौ साल पहले कुछ पुस्तकें लिखी गयी हैं, उन्हीं को पढ़कर वह चिकित्सा करते हैं। मुझे पंडितजी की बातें उपन्यास-सी लगीं। किन्तु उन्होंने बड़ी गम्भीरता से हमें बताया।

मैंने कहा कि दवा तो उनकी नहीं कर सकता, किन्तु कुछ भारत के सम्बन्ध में जानकारी ही बढ़ेगी, इस विचार से काशी ही जाने का निश्चय किया। कलकत्ता दूर भी था और केवल इतनी-सी बात के लिये मैं इतना व्यय करना बेकार समझता था।

पंडितजी ने जिसका पता बताया था वह मैंने गाइड को बताया। सुना कि वह काशी के बड़े विख्यात चिकित्सक हैं। गाइड के साथ चला। सड़क पर टैक्सी छोड़कर गली में जाना पड़ा। भारत के चिकित्सक लोग ऐसी जगह रहते हैं जहाँ हवा और प्रकाश भी कठिनाई से पहुँच सकें। शायद इसलिये कि उनकी दवाइयाँ खराब न हो जायें। राह में प्रत्येक दूसरे पग पर गोबर तथा कूड़ा मिलता था और रास्ता ऐसा जान पड़ता था कि नवम्बर मास में उत्तरी ध्रुव की यात्रा कर रहा हूँ; सूर्य की किरणें वहाँ आने से डरती थीं।

वैद्यजी के घर पर पहुँचा। वैद्यजी का घर बहुत बड़ा था। भारतीय ढंग से बना था। बहुत बड़ी चौकी थी। उस पर गद्दा था। उस पर उजली चाँदनी बिछी थी। चाँदनी पर मोटे-मोटे तकिये रखे हुए थे। उसी के सहारे वैद्यजी बैठे थे। वैद्यजी के बाल जर्मन क्राप की भाँति कटे थे। बड़ी मूँछें थीं। चौकी के सामने कुर्सियाँ रखी थीं। एक ओर एक आदमी सामने आँगन में बैठा एक बड़े से खरल में कुछ घास, कुछ पत्तियाँ और कुछ लकड़ी के टुकड़े बड़े जोरों से कूट रहा था, जिसके कण हवा में चारों ओर उड़ रहे थे। बैठते ही मुझे धड़ाधड़ पन्द्रह-सोलह छींक आयीं। मैं एक कुर्सी पर बैठ गया। एक कुर्सी पर गाइड बैठ गया। वैद्यजी को मैंने अपने ढंग से प्रणाम किया, उन्होंने सिर झुका कर उसका उत्तर दिया।

नौ बजे दिन के समय मैं वहाँ पहुँचा। कई और रोगी बैठे थे। मैंने सोचा कि यह लोग चले जायें तो विस्तार से बातचीत करूँ। एक रोगी की वह नाड़ी देख रहे थे कि इतने में एक सज्जन ने आकर कहा - 'कल चावल का भाव एक पाव कम हो गया।' इस पर वैद्यजी ने चावल की खेती का वर्णन किया। भारत में कहाँ-कहाँ चावल होता है, कौन-कौन चावल खाने में कैसा होता है। आज से बीस साल पहले चावल का भाव क्या था। बीस मिनट उसमें लगे। इसे पश्चात् इस रोगी के सम्बन्ध में उन्होंने कितनी ही बातें बतायीं। फिर उसके लिये दवा लिखी।

दूसरे रोगी की बारी आयी। उसके रोग के सम्बन्ध में पूछ-ताछ हो रही थी कि घर में से एक नौकर आया। उनके घर की जो छत बन रही थी, उसके सम्बन्ध में कुछ कहा। अब घर बनाने की बात छिड़ गयी। इस पर भी वैद्यजी का ज्ञान बड़ा विस्तृत था। काशी के अनेक महलों का विवरण और वास्तुकला पर व्याख्यान होता रहा। पहले कैसे-कैसे मसाले होते थे। जब से ब्रिटिश लोग राज करने लगे, तब से घर भी कमजोर बनने लगे। इस बार घर बनाने के सम्बन्ध में आध घण्टे तक बातें होती रहीं। अब ग्यारह बजने को आये। मैं बहुत घबड़ा रहा था। यदि यही हाल रहा तो सन्ध्या तक मेरी बारी आयेगी।

किन्तु मैं आ चुका था। बैठा-बैठा वैद्यजी की बातें और उनके पास बैठे और लोगों की बातें भी सुनता रहा। यह लोग वैद्यजी की प्रशंसा करते जाते थे और जो कुछ वह कहते थे, उसका अनुमोदन तथा समर्थन भी कर रहे थे। बीच-बीच में पान का दौर चल रहा था। कभी-कभी आने वालों को भी वह पान अपने हाथों से दे दिया करते थे।

एक बजे के लगभग मेरी ओर वैद्यजी ने निगाह उठायी। मैं हिन्दी तो अच्छी तरह जानता था। मैंने उनसे अपना हाल कहना आरम्भ किया। उन्होंने थोड़ा ही सुना होगा कि नाड़ी के लिये हाथ माँगा। पहले बायाँ हाथ फिर दायाँ हाथ। उन्होंने पाँच-पाँच मिनट तक देखा फिर मेरे रोगों के सम्बन्ध में बताने लगे। बीच-बीच में संस्कृत में कुछ पढ़ते जाते थे या तो वह दिखाना चाहते थे कि मेरी स्मरणशक्ति बहुत तेज है या कोई मन्त्र पढ़ते जाते थे जिससे मैं अच्छा हो जाऊँ। किन्तु उन्होंने अर्थ भी बताना आरम्भ किया। सम्भवतः उन्होंने समझा कि मैं वैद्यक सीखने आया हूँ - और रोग के सम्बन्ध में लेक्चर देने लगे।

भारतीय वैद्य लोग न थर्मामीटर लगाते हैं न स्टेथस्कोप। नाड़ी की गति से ही वह शरीर के भीतर का हाल बताते हैं। बड़े आश्चर्य की बात है। देखकर उन्होंने बताया कि ज्वर आपके भीतर है और वायु का भी विकार है। मैंने कहा कि मैंने तो बहुत कुनैन खायी है। डाक्टरों का कहना है कि ज्वर नहीं है। वैद्यजी ने कहा कि डाक्टरों का ज्वर तो केवल थर्मामीटर में रहता है। वह शरीर के भीतर का हाल नहीं जान सकते। डाक्टरों के ज्ञान पर उन्होंने आध घण्टे तक भाषण दिया, जिससे पता चला कि पाँच साल तक मेडिकल कॉलेज में यह लोग केवल तमाशा करते रहे।

मैं तो प्रायः सुनता ही रहा। मैंने केवल एक ही बात कही कि यह लोग मनुष्य के शरीर को चीर-फाड़कर अध्ययन करते हैं, जिसमें मानव शरीर के सम्बन्ध में उनका ज्ञान अधिक ठीक जान पड़ता है। वैद्यजी मुस्कराकर बोले - 'हाँ, मुर्दे का शरीर चीर कर देखते हैं। जिससे यह भले पता लग जाये कि कौन अवयव कहाँ पर है, किन्तु इसका उन्हें क्या पता है कि सजीव स्थिति में वह कैसे काम करते हैं।' फिर उन्होंने कुछ वायु के सम्बन्ध में भी बताया, जो मेरी समझ में कुछ नहीं आया। उन्होंने कहा कि तीन वायु होती हैं। वह किसी प्रकार से घूमती है। कैसे भोजन पचाती है। उन्होंने कहा कि डॉक्टरों को क्या पता है कि बहत्तर करोड़ से ऊपर धमनियाँ और उसकी शाखायें होती हैं, जिनमें वायु चक्कर करती है। मुर्दे के शरीर में इसका क्या पता लगेगा?

मैंने कहा - 'मुझे तो निरोग होने से मतलब है। मुझे वैद्यक पढ़ना है नहीं।' उन्होंने कहा कि यदि आपको विश्वास हो तो मैं चिकित्सा हाथ में ले सकता हूँ, नहीं तो नहीं। मुझे उनकी बातों से साहस हुआ। मैंने कहा कि मेरे देश में तो वैद्य नहीं हैं। इतने डॉक्टर हैं, रोगी क्या अच्छे नहीं होते? वहाँ से यहाँ अधिक रोग हैं। वैद्यजी ने कहा कि डॉक्टर लोग चीर-फाड़ अच्छा कर सकते हैं, किन्तु असाध्य रोगों की चिकित्सा नहीं कर सकते। मैंने इंजेक्शन और ग्लैंड (गिलटियों) द्वारा चिकित्सा के सम्बन्ध में उनसे कहा। उन्होंने कहा कि यह सब राक्षसी चिकित्सा है। आपने इंजेक्शन निकाला है तो हम लोगों ने बहुत पहले हीरे का, सोने का, पारे का भस्म निकाला है। एक खुराक में ही चमत्कार दिखा देता है। किन्तु लोग पैसा नहीं देना चाहते। मेरे पास दस हजार रुपये तोले की हीरे की भस्म है। उन्होंने कहा कि हमारे वैद्यों के देवता धन्वंतरि दवा की पोटली लिये जा रहे थे और एक पोटली कुएँ में गिर गयी। अभी तक उस कुएँ का पानी औषधिपूर्ण है। आज भी पीकर लोग अच्छे हो जाते हैं। उन्होंने कहा कि मेरे पास ऐसी दवा है कि मरनेवाले को अदरख के रस में घिसकर पिला दीजिये तो उठ बैठे। क्षय रोगवाले को दिया जाये तो अवश्य अच्छा हो जाये किन्तु कौन लेगा।

मैंने कहा कि मुझे विवाद तो करना नहीं है। अच्छा होना है। उन्होंने कहा - 'दो रुपये खुराक दवा होगी। पन्द्रह दिन के लिये ले जाइये।' मैंने दस-दस के तीन नोट उनके हवाले किये और वहाँ से दो बजे होटल की ओर चला।

समय की गिनती वैद्यों के यहाँ नहीं होती, केवल रुपयों की होती है। जिसके पास और कोई काम न हो, वह तो इनके द्वारा चिकित्सा खूब करा सकता है। मैंने सुना, चार घण्टे वैद्यजी पूजा करते हैं। चलने लगा तो वैद्यजी ने कहा कि रविवार, मंगलवार और शनिवार को न आइयेगा। पूर्णमासी और अमावस्या को भी नहीं। मैं प्रत्यक्ष रूप से तो इनकी दवा नहीं कर सकता था। क्योंकि सैनिक डॉक्टर के सिवाय और किसी की दवा हम लोग नहीं कर सकते। चोरी-चोरी मैं आया था और चोरी-चोरी इनकी दवा आरम्भ की। देखिये क्या परिणाम होता है। शराब और अण्डा वैद्य जी ने बन्द कर दिया।

लफ़्टंट पिगसन की डायरी

बेढब बनारसी
Chapters
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