मौलवी साहब
कानपुर में मुझे एक बँगले में रहने के लिये स्थान मिला। उस बँगले के आधे भाग में दूसरा अफसर रहता था। चौबीस अफसर अंग्रेज थे और अट्ठाइस हिन्दुस्तानी। उन लोगों के लिये अलग बँगले बने थे। अंग्रेजी सिपाही यहाँ कम थे; केवल तीन सौ के लगभग और अट्ठाइस सौ हिन्दुस्तानी सिपाही थे।
यहाँ आने पर मुझे कई पुस्तकें पढ़ने को मिलीं जिनमें क्लाइव की जीवनी थी, सेना के नियम के सम्बन्ध में एक पुस्तक थी, भारत का इतिहास था। मेरे अफसर थे उस समय कर्नल शूमेकर। उन्होंने मुझसे थोड़ी-सी यहाँ की भाषा सीखने के लिये कहा।
उन्होंने कहा - 'यद्यपि यह आवश्यक नहीं है, लेकिन तुम नये आदमी हो। यहाँ बहुत दिनों तक रहना होगा। सीख लोगे तो बहुत से कामों में आसानी होगी।' वह तीस साल तक भारत के अनेक भागों में रह चुके थे और बहुत अनुभवी थे। उन्होंने कहा - 'यहाँ कई भाषायें बोली जाती हैं, सब तो तुम सीख नहीं सकते। दो मुख्य भाषायें हैं जो इस प्रान्त में बोली जाती हैं - एक को कहते हैं हिन्दी, दूसरी को कहते हैं उर्दू; और एक इन दोनों के बीच की भाषा है हिन्दुस्तानी।'
मैंने कहा - 'मैं तो जानता नहीं। जो आप कहें, मैं सीख लूँ। मैं जब से इस देश में आया हूँ, यह मुझे बहुत मनोरंजक स्थान लग रहा है। इसलिये यहाँ की भाषा अवश्य सीखूँगा और जो तीन भाषायें आपने बतायी हैं, उनका अन्तर भी बता दें, तो मैं भी कुछ राय दे सकूँ।
कर्नल साहब थोड़ी देर तक आँख मूँदकर कुछ सोचते रहे, फिर बोले - 'मैं तुम्हें समझा दूँ - उर्दू भाषा महिलाओं की अलकें हैं। जैसे यह बड़े नाज से पाली जाती हैं। बढ़िया-बढ़िया तेल और सेण्ट लगते हैं, कपोलों पर झूलती है और आगे नहीं पीछे की ओर इन्हें खींचते हैं, वैसी ही उर्दू भाषा है। टेढ़ी-मेढ़ी लिखी जाती है, बड़े नाज से दरबारों में इसकी कदर होती है, श्रृंगार से इसका साहित्य ओतप्रोत है।
'और हिन्दी पुरुषों की दाढ़ी है। सीधे उगती है, मूँड़ते चलिये परन्तु बढ़ती जायेगी।'
मैंने पूछा - 'मेरी समझ में कुछ ठीक तो नहीं आया। यह हिन्दुस्तानी क्या है?' उन्होंने कहा - 'यह हिन्दी पर उर्दू की कलम लगायी गयी है जो अभी उगी नहीं है, अंकुरित हुई है।'
मैंने पूछा - 'तो आपकी क्या राय है? मैं कौन-सी भाषा आरम्भ करूँ और कौन पढ़ायेगा?'
कर्नल साहब ने कहा - 'तुम उर्दू सीखो। यहाँ जो और अफसरों को पढ़ाता है, वही तुम्हें भी पढ़ा देगा।'
सप्ताह में तीन दिन के लिये पच्चीस रुपये मासिक पर पढ़ाने के लिये कर्नल साहब ने अध्यापक ठीक कर दिया। कर्नल साहब ने मुझे यह भी बता दिया कि यहाँ पर अध्यापकों को किस भाँति सलाम किया जाता है। कैसे उनका आदर किया जाता है। उन्होंने कहा कि उन्हें 'मौलवी साहब' कहा जाता है।
मैं कानपुर के सम्बन्ध में कुछ लिखना चाहता था, किन्तु पहले दिन जो मौलवी साहब से बातचीत हुई वह मनोरंजक है। इसलिये उसे पहले लिख डालता हूँ।
सोमवार का दिन था। सन्ध्या समय मौलवी साहब आये। मैं हॉकी मैच खेलकर लौटा था और सोडा-बर्फ पी रहा था। मौलवी साहब बहुत लम्बा कोट, वही रेल के डिप्टी साहब की भाँति पहने हुए थे। दाढ़ी भी वैसी ही थी। जान पड़ता है कि कोट जितना लम्बा होता है, उसी के अनुपात में दाढ़ी भी लम्बी रखनी पड़ती है। दाढ़ी का रंग लाल था जैसे कनस्तर पर लगा हुआ मोरचा। वह जब आये तब मुँह में कुछ चबा रहे थे, जिससे उनके दाँत, जीभ और होंठ लाल हो रहे थे। उनका पतलून विचित्र ढंग का था जो उनके पतले पाँव के बाहर झूल रहा था। पाँव में मोजे नहीं थे और जूता न पंप था, न ऑक्सफोर्ड? विचित्र ढंग का था। टोपी लम्बी और लाल थी और टोपी के ऊपर एक काली पूँछ भी थी।
उन्हें देखते ही मैं खड़ा हो गया और कर्नल साहब की बात भूल गया और कह बैठा - 'मौलवी साहब, गुड ईवनिंग' पर उन्होंने बुरा नहीं माना। मुस्कराते हुए बैठ गये और जेब से एक पुलिन्दा निकाला। मौलवी साहब अंग्रेजी जानते थे। उन्होंने उस पुलिन्दे में से सर्टिफिकेट दिखाना आरम्भ किया। फिर लगे अपनी आत्मकथा कहने।
उन्होंने कहा - 'मैं खास शाहजहाँ के घराने का हूँ। यदि थोड़ा झगड़ा न होता तो शाह आलम के स्थान पर मेरे नाना के ससुर के साढ़ू के दादा ही भारत के सम्राट होते और आज मैं इस देश का शासक होता। मैंने सैकड़ों कमांडर-इन-चीफों को पढ़ाया, जनरलों और कप्तानों की तो गिनती नहीं। जो और मौलवी साल-भर में पढ़ाते हैं, मैं एक सप्ताह में पढ़ा देता हूँ। बड़े लाट यदि मेरे सब सर्टिफिकेट देख लें तो फिर छोड़ें नहीं। इसी डर से मैंने उन्हें दिखाया नहीं; उनसे मिलता भी नहीं।
'पहासू के नवाब मुझे देखते हैं तो घंटों खड़े रहते हैं। मैंने कई बार कहा कि आप ऐसा न करें, पाँव दुखने लगेंगे, किन्तु उन्होंने नहीं माना।'
मैंने पूछा - 'आप पढ़ाई कब से आरम्भ करेंगे? आप ऐसे योग्य अध्यापक से तो मैं बहुत उर्दू सीख लूँगा।'
मौलवी साहब ने कहा - 'पढ़ाने की बात क्या है, लोग पढ़ते नहीं। तीन-चार महीने पढ़कर छोड़ देते हैं। आप एक साल पढ़ लें। फिर देखें। लोग समझ नहीं सकेंगे कि आप विलायत के रहनेवाले हैं; यही समझेंगे कि आप ईरान से आये हैं।'
मैंने कहा - 'कोई किताब?'
मौलवी साहब बोले - 'किताब की कोई जुरूरत नहीं है मगर रख लें तो अच्छा ही है। यों न भी रखें तो कोई बात नहीं है। मैं काफी हूँ। मगर किताब रहेगी तो बेहतर होगा। किताब बिना काम चल सकता है - मगर आप ले ही लें तो ठीक होगा।'
मैंने कहा - 'आप एक बात ठीक बताइये।'
वह बोले - 'ठीक! तो क्या कीजियेगा लेकर। अच्छा ले ही लीजिये। दो रुपये दे दीजिये, मैं कल लेता आऊँगा।' मैंने उन्हें दो रुपये किताब के लिये दिये। उस दिन मौलवी साहब ने अपना आत्मचरित ही सुनाया; जिससे पता चला कि वह शाही वंश के हैं। अब यों ही पढ़ाकर पेट पालते हैं। चलते समय मेरी मेज पर से सिगरेट की डिबिया उठाते हुए बोले - 'मैं एक इसमें से ले लूँ?'
मैंने कहा - 'आप सब ले जाइये।' इस पर वह बहुत प्रसन्न हुए और मेरी बड़ी प्रशंसा की।