सम्राट समुद्रगुप्त
सम्राट समुद्रगुप्त ३४० ई. से ३८० ई. के मध्य उत्तर भारत के महान् सम्राट समुद्रगुप्त का प्रताप दमक रहा था। चन्द्रगुप्त प्रथम (३२० ई. से:३३५ या. ३४० के पुत्र समुद्रगुप्त भाइयों में छोटे थे, फिर भी सबमें योग्यतम थे। बन्धु-संघर्ष से बचाने के लिये गुप्त-साम्राज्य के संस्थापक चन्द्रगुप्त प्रथम ने अपने जीवनकाल में ही राजदरबार में समुद्रगुप्त को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था, फिर भी सिंहासनारोहण में भाइयों ने विद्रोह कर दिया, जिसे समुद्रगुप्त ने निष्फल कर दिया और साम्राज्य विस्तार की नीति तैयार किया। प्रयाग (इलाहाबाद) के अभिलेख में समुद्रगुप्त के जीवन की ओजस्वी आख्या प्रस्तुत है। सर्वप्रथम समुद्रगुप्त ने गंगा-यमुना के दोआब के राज्यों को जीता। ये वे ही राज्य थे, जिन्होंने इनके भाइयों को उकसाकर गृह-कलह से गुप्त--साम्राज्य को विनष्ट करना चाहा था।
इस क्रम में अहिछत्र के अच्युत, पद्मावती के गणपति नागसेन, मथुरा के नागसेन, बाँकुरा (बंगाल) के चन्द्रवर्मन, नागदत्त, रुद्रदत्त, नन्दि, बलवर्मन, कोटा के राजा को हराकर गुप्त साम्राज्य में सबको विलीन कर लिया। इन ९ राज्यों की विजय से बंगाल से उत्तर प्रदेश तक गुप्त राज्य में आ गये। इसके बाद दक्षिण भारत के लिये इन्होंने विजय-अभियान आरंभ किया। इन्होंने मध्य प्रदेश के जबलपुर जिले के जंगलों से गुजरते हुए दक्षिण भारत में प्रवेश किया। यह भी हो सकता है कि वे सम्भलपुर होकर पूर्वी समुद्र तट के साथ आगे बढ़े। इस अभियान में नौसेना की भी सहायता ली। सुदूर दक्षिण के पल्लव राज्य हार गये। सारे दक्षिण पूर्व तट के शासकों को हराकर १२ राज्यों को पराभूत किया इन्होंने। इनमें महाकान्तार के राजा व्याघ्रराज, कौसल (दक्षिण कौशल) के राजा महेन्द्र, कोसलराज मण्टराज, प्रिष्टपुर के राजा महेन्द्रगिरि, एरन्दपल्ल के राजा दमन, कोट्टटर के राजा स्वामिदत्त, काँचीराज विष्णुप्रमेय, वेंगीराज हस्तिवर्मन, अवमुक्तराजा नीलराज पलस्क नरेश उग्रसेन, देवराष्ट्र के राजा कुबेर और कुस्थलपुर के राजा धनंजय थे।
समुद्रगुप्त ने १८ जंगली राज्यों पर अपना स्वामित्व स्थापित किया। उत्तर प्रदेश के गाजीपुर से लेकर मध्य प्रदेश के जबलपुर तक के वन्य प्रदेश इस अभियान में सम्मिलित थे। उत्तर, उत्तर-पूर्व के ५ राज्यों ने समुद्रगुप्त का स्वामित्व स्वीकार किया। पूर्वी बंगाल के सिन्धु तट के राज्य, देवाक (असम) कामरूप (असम) जालन्धर, कर्तपुर (कुमायूँ, गढ़वाल और रुहेलखण्ड के जिले) एवं नेपाल सम्मिलित थे। उत्तर-पश्चिम के ९ राज्यों ने समुद्रगुप्त की अधीनता मान लिया। ये राज्य थे मालवा, यौधेय, अर्जुनायन, मद्रक, प्रर्जुन, आभीर, सनकानिक, काक और खरपटिक। कूटनीतिक दूरदर्शिता में व्यावहारिक समस्याओं को समझकर दूरस्थ दक्षिण के राज्यों को अपना स्वामित्व स्वीकार कराकर उनके राज्य समुद्रगुप्त ने उनको वापस कर दिये। इन अधीनस्थ शासकों को समय-समय पर दिये गये आदेशों को मानना होता था और कभी कभी सम्राट समुद्रगुप्त के दरबार में उपस्थित भी होना पड़ा था।
कुछ ने अपनी पुत्रियों के विवाह समुद्रगुप्त से किये और कुछ ने अपने सिक्कों पर समुद्रगुप्त के नाम उत्कीर्ण कराये। इसके अतिरिक्त समुद्रगुप्त के संबंध अन्य भारतीय और विदेशी राज्यों से मधुर थे। कुषाण राज्य, शक राज्य, श्रीलंका और दक्षिण पूर्व एशिया के राज्यों जावा, सुमात्रा से समुद्रगुप्त के संबंध सम्मानजनक थे।
(फणीन्द्र नाथ चतुर्वेदी के लेख)