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द्वितीय पाद - जडभरत और सौवीरनरेशका संवाद


 
राजा भरतका मृगशरीरमें आसक्तिके कारण मृग होना , फिर ज्ञानसम्पन्न ब्राह्मण 
होकर जडवृत्तिसे रहना , जडभरत और सौवीरनरेशका संवाद
नारदजी बोले --- महाभाग ! मैंने आध्यात्मिक आदि तीनों तापोंकी चिकित्साका उपाय सुन लिया तथापि मेरा मन अभी भ्रममें भटक रहा है । वह शीघ्रतापूर्वक स्थिर नहीं हो पाता । ब्रह्मन्‌ ! आप दूसरोंको मान देनेवाले हैं । बताइये , यदि दुष्टलोग किसीके मनके विपरीत बर्ताव करें तो मनुष्य उसे कैसे सह सकता है ?
सूतजी कहते हैं --- नारदजीका यह कथन सुनकर ब्रह्मपुत्र सनन्दनजीको बडा हर्ष हुआ । उन्हें राजा भरतके चरित्रका स्मरण हो आया और वे इस प्रकार बोले ।
सनन्दनजीने कहा --- नारदजी ! मैं इस विषयमें एक प्राचीन इतिहास कहूँगा , जिसे सुनकर तुम्हारे भ्रान्त मनको बडी स्थिरता प्राप्त होगी । मुनिश्रेष्ठ ! प्राचीन कालमें भरतत्तामसे प्रसिद्ध एक राजा हुए थे , जो ऋषभदेवजीके पुत्र थे और जिनके नामपर इस देशको ‘ भारतवर्ष ’ कहते हैं । राजा भरतने बाप - दादोंके क्रमसे चले आते हुए राज्यको पाकर उसका धर्मपूर्वक पालन किया । जैसे पिता अपने पुत्रको संतुष्ट करता है , उसी प्रकार वे प्रजाको प्रसन्न रखते थे । उन्होंने नाना प्रकारके यज्ञोंका अनुष्ठान करके सर्वदेवस्वरूप भगवान्‌ विष्णुका यजन किया । वे सदा भगवान्‌का ही चिन्तन करते और उन्हींमें मन लगाकर नाना सत्कर्मोंमें लगे रहते थे । तदनतर पुत्रोंको जन्म देकर विद्वान्‌ राजा भरत विषयोंसे विरक्त हो गये और राज्य त्यागकर पुलस्त्य एवं पुलह मुनिके आश्रमको चले गये । उन महर्षियोंका आश्रम शालग्राम नामक महाक्षेत्रमें था । मुक्तीकी इच्छा रखनेवाले बहुत - से साधक उस तीर्थका सेवन करते थे । मुने ! वहीं राजा भरत तपस्यामें संलग्न हो यथाशक्ति पूजनसामग्नी जुटाकर उसके द्वारा भक्तिभावसे भगवान्‌ महाविष्णुकी आराधना करने लगे । नारदजी ! वे प्रतिदिन प्रात :- काल निर्मल जलमें स्नान करते तथा अविनाशी परब्रह्मकी स्तुति एवं प्रणवसहित वेद - मन्त्रोंका उच्चारण करते हुए भक्तिपूर्वक सूर्यदेवका उपस्थान करने थे । तदनन्तर आश्रमपर लौटते और अपने ही लाये हुए समिधा , कुशा तथा मिट्टी आदि द्रव्योंसे और फल , फूल , तुलसीदल एवं स्वच्छ जलसे एकाग्रतापूर्वक जगदीश्वर भगवान्‌ वासुदेवकी पूजा करते थे । भगवान्‌की पूजाके समय वे भक्तिके प्रवाहमें डूब जाते थे ।
एक दिनकी बात है , महाभाग राजा भरत प्राप : काल स्नान करके एकाग्रचित्त हो जप करते हुए तीन मुहूर्त ( छ : घडी ) - तक शालग्रामीके जलमें खडे रहे । ब्रह्मन्‌ ! इसी समय एक प्यासी हरिणी जल पीनेके लिये अकेली ही वनसे नदीके तटपर आयी । उसका प्रसवकाल निकट था । वह प्राय : जल पी चुकी थी , इतनेमें ही सब प्राणियोंको भय देनेवाली सिंहकी गर्जना उच्चस्वरसे सुनायी पडी। फिर तो वह उस सिंहनादसे भयभीत हो नदीके तटकी ओर उछल पडी। बहुत ऊँचाईकी ओर उछलनेसे उसका गर्भ नदीमें ही गिर पडा और तरङ्गमालाओंमें डूबता - उतराता हुआ वेगसे बहने लगा । राजा भरतने गर्भसे गिरे हुए उस मृगके बच्चेको दयावश उठा लिया । मुनीश्वर ! उधर वह हरिणी गर्भ गिरनेके अत्यन्त दुःखसे और बहुत ऊँचे चढनेके परिश्रमसे थककर एक स्थानपर गिर पडी और वहीं मर गयी । उस हरिणीको मरी हुई देख तपस्वी राजा भरत मृगके बच्चेका लिये हुए अपने आश्रमपर आये और प्रतिदिन उसका पालन - पोषण करने लगे । मुने ! उनसे पोषित होकर वह मृगका बच्चा बढने लगा । उस मृगमें राजाका चित्त जैसा आसक्त हो गया था , वैसा भगवान्‌में भी नहीं हुआ । उन्होंने अपने राज्य और पुत्रोंको छोडा , समस्त भाई - बन्धुओंको भी त्याग दिया , परंतु इस हरिनके बच्चेमें ममता पैदा कर ली। उनका चित्त मृगकी ममताके वशीभूत हो गया था : इसलिये उनकी समाधि भङ्ग हो गयी । तदनन्तर कुछ समय बीतनेपर राजा भरत मृत्युको प्राप्त हुए । उस समय जैसे पुत्र पिताको देखता है , उसी प्रकार वह मृगका बच्चा आँसू बहाते हुए उनकी ओर देख रहा था । राजा भी प्राणोंका त्याग करते समय उस मृगकी ही ओर देख रहे थे । द्विजश्रेष्ठ ! मृगकी भावना करनेके कारण राजा भरत दूसरे जन्ममें मृग हो गये । किंतु पूर्वजन्मकी बातोंका स्मरण होनेसे उनके मनमें संसारकी ओरसे वैराग्य हो गया । वे अपनी माँको त्यागकर पुन : शालग्राम - तीर्थमें आये और सूखे घास तथा सूखे पते खाकर शरीरका पोषण करने लगे । ऐसा करनेसे मृगशरीरकी प्राप्ति करानेवाले कर्मका प्रायश्चित्त हो गया ; अत : वहीं अपने शरीरका त्याग करके वे जातिस्मर ( पूर्वजन्मकी बातोंका स्मरण करनेवाले ) ब्राह्मणके रूपमें उत्पन्न हुए। सदाचारी योगियोंके श्रेष्ठ एवं शुद्ध कुलमें उनका जन्म हुआ । वे सम्पूर्ण विज्ञानसे सम्पन्न तथा समस्त शास्त्रोंके तत्त्वज्ञ हुए ।
मुनिश्रेष्ठ ! उन्होंने आत्माको प्रकृतिसे परे देखा । महामुने ! वे आत्मज्ञानसम्पन्न होनेके कारण देवता आदि सम्पूर्ण भूतोंको अपनेसे अभिन्न देखते थे । उपनयनसंस्कार हो जानेपर वे गुरुके पढाये हुए वेद - शास्त्रका अध्ययन नहीं करते थे । किन्हीं वैदिक कर्मोंकी ओर ध्यान नहीं देते और न शास्त्रोंका उपदेश ही ग्रहण करतेत थे । जब कोई उनसे बहुत पूछ - ताछ करता तो वे जडके समान गँवारोंकी - सी बोलीमें कोई बात कह देते थे । उनका शरीर मैला - कुचैला होनेसे निन्दित प्रतीत होता था । मुने ! वे सदा सलिन वस्त्र पहना करते थे । इन सब कारणोंसे वहाँके समस्त नागरिक उनका अपमान किया करते थे । सम्मान योगसम्म्त्तिकी अधिक हानि करता है और दूसरे लोगोंसे अपमानित होनेवाला योगी योगमार्गमें शीघ्र ही सिद्धि प्राप्त कर लेता है - ऐसा विचार करके वे परम बुद्धिमान्‌ ब्राह्मण जन - साधारणमें अपने - आपको जड और उन्मत्त - सा ही प्रकट करते थे , भीगे हुए चने और उडद , बडे , साग , जगंली फल और अन्नके दाने आदि जो - जो सामयिक खाद्य वस्तु मिल जाती , उसीको बहुत मानकर खा लेते थे । पिताकी मृत्यु होनेपर भाई - भतीजे और बन्धु - बान्धवोंने उनसे खेतीबारीका काम कराना आरम्भ किया । उन्हींके दिये हुए सडे - गले अन्नसे उनके शरीरका पोषण होने लगा । उनका एक - एक अङ्ग बैलके समान मोटा था और काम - काजमें वे जडकी भाँति जुते रहते थे । भोजनमात्र ही उनका वेतन था ; इसलिये सब लोग उनसे अपना काम निकाल लिया करते थे ।
ब्रह्मन्‌ ! एक समय सौवीर - राजने शिबिकापर आरूढ हो इक्षुमती नदीके किनारे महर्षि कपिलके श्रेष्ठ आश्रमपर जानेका निश्चय किया था । वे मोक्षधर्मके ज्ञाता महामुनि कपिलसे यह पूछना चाहते थे कि इस दु : खमय संसारमें मनुष्योंके लिये कल्याणकारी साधन क्या है ? उस दिन राजाकी बेगारमें बहुत - से दूसरे मनुष्य भी पकडे गये थे । उन्हींके बीच भरतमुनि भी बेगारमें पकडकर लाये गये । नारदजी ! वे सम्पूर्ण ज्ञानके एकमात्र भाजन थे । उन्हें पूर्वजन्मकी बातोंका स्मरण था ; अत : वे अपने पापमय प्रारब्धका क्षय करनेके लिये उस शिबिकाको कंधेपर उठाकर ढोने लगे । बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ जडभरतजी ( क्षुद्र जीवोंको बचानेके लिये ) चार हाथ आगेकी भूमि देखते हुए मन्दगतिसे चलने लगे ; किंतु उनके सिवा दूसरे कहार जल्दी - जल्दी चल रहे थे । राजाने देखा कि पालकी समान गतिसे नहीं चल रही है , तो उन्होंने कहा -’ अरे पालकी ढोनेवाले कहारो ! यह क्या करते हो ? सब लोग एक साथ समान गतिसे चलो । ’ किंतु इतना कहनेपर भी जब शिबिकाकी गति पुन : वैसी ही विषम दिखायी दी , तब राजाने डाँटकर पूछा -’ अरे ! यह क्या है ? तुमलोग मेरी आज्ञाके विपरीत चलते हो ?’ राजाके बार - बार ऐसे वचन्‌ सुनकर पालकी ढोनेवाले कहारोंने जडभरतकी ओर संके करके कहा -‘ यही धीरे - धीरे चलता है । ’
राजाने पूछा --- अरे ! क्या तू थक गया ? अभी तो थोडी ही दूरतक तूने मेरी पालकी ढोयी है । क्या तुझसे यह परिश्रम सहन नही होता ? वैसे तो तू बडा मोटा - ताजा दिखायी देता है ।
ब्राह्मणने कहा --- राजन्‌ ! न मैं मोटा हूँ और न मैंने आपकी पालकी ही ढोयी है । न तो मैं थका हूँ और न मुझे कोई परिश्रम ही होता है । इस पालकीको ढोनेवाला कोई दूसरा ही है ।
राजा बोले --- मोटा तो तू प्रत्यक्ष दिखायी देता है और पालकी तेते ऊपर अब भी मौजूद है और बोझ ढोनेमें देहधारियोंको परिश्रम तो होता ही है ।
ब्राह्मणने कहा --- राजन्‌ ! इस विषयमें मेरी बात सुनो । ‘ सवसे नीचे पृथ्वी है , पृथ्वीपर दो पैर हैं , दोनों पैरोंपर दो जङ्घे हैं , उन जङ्घोंपर दो ऊरु हैं तथा उनके ऊपर उदर है । फिर उदरके ऊपर छाती , भुजाएँ और कंधे हैं और कंधोंपर यह पालकी रखी गयी है । ऐसी दशामें मेरे ऊपर भार कैसे रहा ? पालकीमें भी जिसे तुम्हारा कहा जाता है , वह शरीर रखा हुआ है । राजन्‌ ! मैं तुम और अन्य सब जीव पञ्चभूतोंद्वारा ही ढोये जाते हैं तथा यह भूतवर्ग भी गुणोंके प्रवाहमें पडकर ही बहा जा रहा है । पृथ्वीपते ! ये सत्त्व आदि गुण भी कर्मोंके वशीभूत हैं और वह कर्म समस्त जीवोंमें अविद्याद्वारा ही संचित है । आत्मा तो शुद्ध , अक्षर , शान्त , निर्गुण और प्रकृतिसे परे है । वह एक ही सम्पूर्ण जीवोंमें व्याप्त है। उसकी वृद्धि अथवा ह्रास कभी नहीं होता। जब आत्मामें न तो वृद्धि होती है और न ह्नास ही , तब तुमने किस युक्तिसे यह बात कही है कि तू मोटा है । यदि क्रमश : पृथ्वी . पैर , जङ्घा , ऊरु , कटि तथा उदर आदि अङ्गोंपर स्थित हुए कंधेके ऊपर रखी हुई यह शिबिका मेरे लिये भाररूप हो सकती है तो उसी प्रकार तुम्हारे लिये भी तो हो सकती है । राजन्‌ ! इस युक्तिसे तो अन्य समस्त जीवोंने भी न केवल पालकी उठा रखी है , बल्कि सम्पूर्ण पर्वत , वृक्ष , गृह और पृथ्वी आदिका भार भी अपने ऊपर ले रखा है । राजन्‌ ! जिस द्रव्यसे यह पालकी बनी हुई है , उसीसे यह तुम्हारा , मेरा अथवा अन्य सबका शरीर भी बना है , जिसमें सबने ममता बढा रखी है ।
सनन्दनजी कहते हैं --- ऐसा कहकर वे ब्राह्मणदेवता कंधेपर पालकी लिये मौन हो गये । तब राजाने भी तुरंत पृथ्वीपर उतरकर उनके दोनों चरण पकड लिये ।
राजाने कहा --- हे विप्रवर ! यह पालकी छोडकर आप मेरे ऊपर कृपा कीजिये और बताइये , यह छद्‌मवेश धारण किये हुए आप कौ हैं ? किसके पुत्र हैं ? अथवा आपके यहाँ आगमनका क्या कारण है ? यह सब आप मुझसे कहिये ।
ब्राह्मण बोले --- भूपाल ! सुनो - मैं कौन हूँ . यह बात बतायी नहीं जा सकती और तुमने जो यहाँ आनेका कारण पूछा , उसके उत्तरमें यह निवेदन है कि कहीं भी आने - जानेका कर्म कर्मफलके उपभोगके लिये ही हुआ करता है । धर्माधर्मजनित सुख - दु : खोंका उपभोग करनेके लिये ही जीव देह आदि धारण करता है । भूपाल ! सब जीवोंकी सम्पूर्ण अवस्थाओंके कारण केवल उनके धर्म और अधर्म ही हैं ।
राजाने कहा --- इसमें संदेह नहीं कि सब कर्मोंके धर्म और अधर्म ही कारण हैं और कर्मफलके उपभोगके लिये एक देहसे दूसरी देहमें जाना होता किंतु आपने जो यह कहा कि ‘ मैं कौन हूँ ’ यह बात बतायी नहीं जा सकती , इसी बातको सुननेकी मुझे इच्छा हो रही है ।
ब्राह्मण बोले --- राजन्‌ ! ‘ अहं ’ शब्दका उच्चारण जिह्वा , दन्त , ओठ और तालु ही करते हैं , किंतु ये सब ‘ अहं ’ नहीं हैं ; क्योंकि ये सब उस शब्दके उच्चारणमात्रमें हेतु हैं । तो क्या इन जिह्वा आदि कारणोंके द्वारा यह वाणी ही स्वयं अपनेको ‘ अहं ’ कहती है ? नहीं ; अत : ऐसी स्थितिमें ‘ तू मोटा है ’ ऐसा कहना कदापि उचित नहीं। राजन्‌ ! सिर और हाथ - पैर आदि लक्षाणोंवाला यह शरीर आत्मासे पृथक्‌ ही है ; अत : इस ‘ अहं ’ शब्दका प्रयोग मैं कहाँ और किसके लिये करूँ ? नृपश्रेष्ठ ! यदि मुझसे भिन्न कोई और भी सजातीय आत्मा हो तो भी ‘ यह मैं हूँ और यह अन्य है ’- ऐसा कहना उचित हो सकता था । जब सम्पूर्ण शरीरोंमें एक ही आत्मा विराजमान है , तब ‘ आप कौन हैं और मैं कौन हूँ ’ इत्यादि प्रश्नवाक्य व्यर्थ ही हैं । नरेश ! ‘ तुम राजा हो , यह पालकी है और ये सामने पालकी ढोनेवाले खडे हैं तथा यह जगत्‌ आपके अधिकारमें हैं - ऐसा जो कहा जाता है , वह वास्तवमें सत्य नहीं है । वृक्षसे लकडी पैदा हुई और उससे यह पालकी बनी , जिसपर तुम बैठते हो । यदि इसे पालकी ही कहा जाय तो इसका ‘ वृक्ष ’ नाम अथवा ‘ लकडी ’ नाम कहाँ चला गया ? यह तुम्हारे सेवकगण ऐसा नहीं कहते कि महाराज पेडपर चढे हुए हैं और न कोई तुम्हें लकडीपर ही चढा हुआ बतलाता है । सब लोग पालकीमें ही बैठा हुआ बतलाते हैं ; किंतु पालकी क्या है - लकडियोंका समुदाय । वही अपने लिये एक विशेष नामका आश्रय लेकर स्थित है । 
 

श्रीनारदपुराण - पूर्वभाग

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