प्रथम पाद - लक्ष्मीनारायण व्रत
मार्गशीर्ष -पूर्णिमासे आरम्भ होनेवाले लक्ष्मीनारायण -व्रतकी उद्यापनसहित
विधि और महिमा
श्रीसनकजी कहते है -
मुनिश्रेष्ठ ! अब मैं दूसरे उत्तम व्रतका वर्णन करता हूँ सुनिये। वह सब पापोंको दूर करनेवाला , पुण्यजनक तथा सम्पूर्ण दुःखोंका नाशक है। ब्राह्यण , क्षत्रिय , वैश्य , शूद्र तथा स्त्री -इन सबकी समस्त मनोवाञ्छित कामनाओंको सफल करनेवाला तथा सम्पूर्ण व्रतोंका फल देनेवाला है। उस ब्रतसे ब्ररे -बुरे स्वप्नोंका नाश हो जाता है। वह धर्मानुकूल व्रत दुष्ट ग्रहोंकी बाधाका निवारण करनेवाला है , उसका नाम है पूर्णिमाव्रत। वत परम उत्तम तथा सम्पूर्ण जगत्में विख्यात है। उसके पालनसे पापोंकी करोड़ों राशियाँ नष्ट हो जाती हैं। मार्गशीर्ष मासके शुक्लपक्षकी पूर्णिमा तिथिको संयम -नियमपूर्वक पवित्र हो शास्त्रीय आचारके अनुसार दन्तधावनपूर्वक स्नान करे ; फिर श्वेत वस्त्र धारण करके शुद्ध हो मौनपूर्वक घर आवे। वहाँ हाथ -पैर धोकर आचमन करके भगवान् नारायणका स्मरण करे और संध्या -वन्दन , देवपूजा आदि नित्यकर्म करके संकल्पपूर्वक भक्तिभावसे भगवान् लक्ष्मीनारायणकी पूजा करे। व्रती पुरुष ’ नमो नारायणाय ’- इस मन्त्रसे आवाहन , आसन तथा गन्ध , पुरुष आदि उपचारोंद्वारा भक्ति -तत्पर हो भगवान्की अर्चना करे और एकाग्रचित हो वह गीत , वाद्य , नृत्य , पुराण -पाठ तथा स्तोत्र आदिके द्वारा श्रीहरिकी आराधना करे। भगवान्के सामने चौकोर वेदी बानवे , जिसकी लंबाई -चौड़ाई लगभग एक हाथ हो। उसपर गृहा -सूत्रमें बतायी हुई पद्धतिके अनुसार अग्निकी स्थापना करे और उसमें आज्यभागान्त होम करके पुरुषसूक्तके मन्त्रोंसे चरु , तिल तथा घृतद्वारा यथाशक्ति एक दो , तीन बार होम करे। सम्पूर्ण पापोंकी निवृत्तिके लिये प्रयत्नपूर्वक होमकार्य सम्पन्न करना चाहिये। अपनी शाखाके गृह्यसूत्रमें बतायी हुई विधिके अनुसार प्रायश्चित्त आदि सब कार्य करे। फिर विधिवत् होमकी समाप्ति करके विद्वान् पुरुष शान्तिसूक्तका जप करे। तत्पश्चात् भगवान्के समीप आकर पुनः उनकी पूजा करे और अपना उपवासव्रत भक्तिभावसे भगवान्को अर्पण करे।
पौर्णमास्यां निराहारः स्थित्वा देव तवाज्ञया।
भोक्ष्यामि पुण्डरीकाक्ष परेऽह्लि शरणं भव ॥
( ना० पूर्व० १८।१३ )
’ देव ! पुण्डरीकाक्ष ! मैं पूर्णिमाको निराहार रहकर दूसरे दिन आपकी आज्ञासे भोजन करूँगा। आप मेरे लिये शरण हों। ’
इस प्रकार भगवान्को ब्रत निवेदन करके संध्याको चन्द्रोदय होनेपर पृथ्वीपर दोनों घुटने टेककर श्वेत पुष्प , अक्षत , चन्दन और जलसहित अर्घ्य हाथमें ले चन्द्रदेवको समर्पित करे -
क्षीरोदार्ण्वसम्भूत अत्रिगोत्रसमुद्भव।
गृहाणार्घ्यं मया दत्तं रोहिणीनायक प्रभो ॥
( ना० पूर्व० १८।१५ )
’ भगवन् रोहिणीपते ! आपका जम्न अत्रिकुलमें हुआ है और आप क्षीरसारगरसे प्रकट हुए हैं। मेरे दिये हुए इस अर्घ्यको स्वीकार कीजिये। ’ नारदजी ! इस प्रकार चन्द्रदेवको अर्घ्य देकर पूर्वभिमुख खड़ा हो चन्द्रमाकी ओर देखते हुए हाथ जोड़कर प्रार्थना करे -
नमः शुक्लांशवे तुभ्यं द्विजराजाय ते नमः।
रोहिणीपतये तुभ्यं लक्ष्मीभ्रात्रे नमोऽस्तु ते ॥
( ना० पूर्व० १८।१७ )
’ भगवन् ! आप श्वेत किरणोंसे सुशोभित होते हैं .
आपको नमस्कार है। आप द्विजोंके राजा हैं , आपको नमस्कार है। आप रोहिणीके पति हैं , आपको नमस्कार है। आप लक्ष्मीजीके भाई हैं , आपको नमस्कार है। ’
तदनन्तर पुराण -श्रवण आदिके द्वारा जितेन्द्रिय एवं शुद्ध भावसे रातभर जागरण करे। पाखण्डियोंकी दृष्टिसे दूर रहे। फिर प्रातःकाल उठकर अपने नित्य -नियमका विधिपूर्वक पालन करे। उसके बाद अपने वैभवके अनुसार पुनः भगवान्की पूजा करे। तत्पश्चात् यथाशक्ति ब्राह्यणोंको भोजन करावे और स्वय़ं भी शुद्धचित्त हो अपने भाई -बन्धुओं तथा भृत्य आदिके साथ भोजन करे। भोजनके समय मौन रहे। इसी प्रकार पौष आदि महीनोंमें भी पूर्णिमाको उपवास करके भक्तियुक्त हो रोग -शोकरहित भगवान् नारयणकी पूजा -अर्चा करे। इस तरह एक वर्ष पूरा करके कार्तिककी पूर्णिमाके दिन उद्यापन करे। उद्यापनका विधान तुम्हें बतलाता हूँ ! व्रती पुरुष एक परम सुन्दर चौकोर मङ्रलमय मण्डप बनवावे , जो पुष्प -लताओंसे सुशोभित तथा चँदोवा और ध्वजा -पताकासे सुरज्जित हो। वह मण्डप अनेक दीपकोंके प्रकाशसे व्याप्त होना चाहिये। उसकी शोभा बढ़ानेके लिये छोटी -छोटी घण्टिकाओंसे सुशोभित झालर लगा देनी चाहिये। उसमें किनारे -किनारे बड़े -बड़े शीशे और चँवर लगा देने चाहिये। कलशोंसे वह मण्डप घिरा रहे। मण्डपके मध्य भागमें पाँच रंगोंसे सुशोभित सर्वतोभद्र मण्डल बनावे। नारदजी ! उस मण्डलपर जलसे भरा हुआ एक कलश स्थापित करे। फिर सुन्दर एवं महीन वस्त्रसे उस कलशको ढक दे। उसके ऊपर सोने , चाँदी अथवा ताँबेसे भगवान् लक्ष्मीनारायणकी परम सुन्दर प्रतिमा बनाकर स्थापित करे। तदनन्तर जितोन्द्रिय पुरुष भक्तिभावसे भगवान्को पञ्चामृतद्वार स्नान करावे और क्रमशः गन्ध , पुष्प , धूप , दीप आदि सामग्नियों तथा भक्ष्य , भोज्य आदि नैवेद्योंद्वारा उनकी पूजा करके उत्तम श्रद्धापूर्वक रातमें जारगरण करे दूसरे दिन प्रातःकाल पूर्ववत् भगवान् विष्णुकी विधिपूर्वक अर्चना करे। फिर दक्षिणासहित प्रतिमा आचार्यको दान कर दे और धन -वैभव हो तो ब्राह्यणोंको यथाशक्ति अवश्य भोजन करावे। उसके बाद एकाग्रचित्त हो विद्वान् पुरुष यथाशक्ति तिल दान करे और तिलका ही विधिपूर्वक अग्निमें होम करे। जो मनुष्य इस प्रकार भलीभाँति लक्ष्मीनारायणका व्रत करता है , वह इस लोकमें पुत्र -पौत्रोंके साथ महान् भोग भोगकर सब पापोंसे मुक्त हो अपनी बहुत -सी पीढ़ियोंके साथ भगवान्के वैकुण्ठधाममें जाता है , जो योगियोंके लिये भी दुर्लभ है।