भाग 29
आनन्दसिंह की आवाज सुनने पर इन्द्रजीतसिंह का शक जाता रहा और वे आनन्दसिंह के आने का इन्तजार करते हुए नीचे उतर आए जहां थोड़ी ही देर बाद उन्होंने अपने छोटे भाई को उसी राह से आते देखा जिस राह से वे स्वयं इस मकान में आये थे।
इन्द्रजीतसिंह अपने भाई के लिए बहुत दुःखी थे, उन्हें विश्वास हो गया था कि आनन्दसिंह किसी आफत में फंस गये और बिना तरद्दुद के उनका छूटना कठिन है मगर थोड़ी ही देर में बिना झंझट के उनके आ मिलने से उन्हें कम ताज्जुब न हुआ। उन्होंने आनन्दसिंह को गले से लगा लिया और कहा –
इन्द्र - मैं तो समझता था कि तुम किसी आफत में फंस गए और तुम्हारे छुड़ाने के लिए बहुत ज्यादा तरद्दुद करना पड़ेगा।
आनन्द - जी नहीं, वह मामला तो बिल्कुल खेल ही निकला। सच तो यह है कि इस तिलिस्म में दिल्लगी और मसखरेपन का भाग भी मिला हुआ है।
इन्द्र - तो तुम्हें किसी तरह की तकलीफ नहीं हुई?
आनन्द - कुछ भी नहीं, हवा के खिंचाव के कारण जब मैं शीशे के अन्दर चला गया तो वह शीशे का टुकड़ा जिसे दरवाजा कहना चाहिए बन्द हो गया और मैंने अपने को पूरे अन्धकार में पाया। तिलिस्मी खंजर का कब्जा दबाकर रोशनी की तो सामने एक छोटा-सा दरवाजा एक पल्ले का दिखाई पड़ा जिसमें खेंचने के लिए लोहे की दो कड़ियां लगी हुई थीं। मैंने बाएं हाथ से एक कड़ी पकड़कर दरवाजा खेंचना चाहा मगर वह थोड़ा-सा खिंचकर रह गया, सोचा कि इसमें दो कड़ियां इसीलिए लगी हैं कि दोनों हाथों से पकड़कर दरवाजा खींचा जाये अस्तु तिलिस्मीं खंजर म्यान में रख लिया जिससे पुनः अंधकार हो गया और इसके बाद दोनों हाथ उन कड़ियों में चिपक गये और दरवाजा भी न खुला। उस समय मैं बहुत ही घबड़ा गया और हाथ छुड़ाने के लिए जोर करने लगा। दस-बारह पल के बाद वह कड़ी पीछे की तरफ हटी और मुझे खींचती हुई दूर तक ले गई। मैं यह नहीं कह सकता कि कड़ियों के साथ दरवाजे का कितना बड़ा भाग पीछे की तरफ हटा था मगर इतना मालूम हुआ कि मैं जमीन की तरफ जा रहा हूं। आखिर जब उन कड़ियों का पीछे हटना बन्द हो गया तो मेरे दोनों हाथ भी छूट गए, इसके बाद थोड़ी देर तक धड़धड़ाहट की आवाज आती रही और तब तक मैं चुपचाप खड़ा रहा।
जब धड़धड़ाहट की आवाज बन्द हो गई तो मैंने तिलिस्मी खंजर निकालकर रोशनी की और अपने चारों तरफ गौर करके देखा। जिधर से ढालुवीं जमीन उतरती हुई वहां तक पहुंची थी उस तरफ अर्थात् पीछे की तरफ बिना चौखट का एक बन्द दरवाजा पाया जिससे मालूम हुआ कि अब मैं पीछै की तरफ नहीं हट सकता, मगर दाहिनी तरफ एक और दरवाजा देखकर मैं उसके अन्दर चला गया और दो कदम के बाद घूमकर फिर मुझे ऊंची जमीन अर्थात् चढ़ाव पड़ा, जिससे साफ मालूम हो गया कि मैं जिधर से उतरता हुआ आया था अब उसी तरफ पुनः जा रहा हूं। कई कदम जाने के बाद पुनः एक बन्द दरवाजा मिला मगर वह आपसे आप खुल गया। जब मैं उसके अन्दर गया तो अपने को उसी शीशे वाले कमरे में पाया और घूमकर पीछे की तरफ देखा तो साफ दीवार नजर पड़ी। यह नहीं मालूम होता था कि मैं किसी दरवाजे को लांघकर कमरे में आ पहुंचा हूं, इसी से मैं कहता हूं कि तिलिस्म बनाने वाले मसखरे भी थे, क्योंकि उन्हीं की चालाकियों ने मुझे घुमा-फिराकर पुनः उसी कमरे में पहुंचा दिया जिसे एक तरह की जबर्दस्ती कहना चाहिए।
मैं उस कमरे में खड़ा हुआ ताज्जुब से उसी शीशे की तरफ देख रहा था कि पहिले की तरह दो आदमियों के बातचीत की आवाज सुनाई दी। मैं आपके साथ उस कमरे में था तब तक जो बातें सुनने में आई थीं वे ही पुनः सुनीं और जिन लोगों को उस आईने के अन्दर आते-जाते देखा था उन्हीं को पुनः देखा भी। निःसन्देह मुझे बड़ा ताज्जुब हुआ और मैं बड़ै गौर से तरह-तरह की बातें सोच रहा था कि इतने में ही आपकी आवाज सुनाई दी और आपकी आज्ञानुसार अजदहे के मुंह में जाकर यहां तक आ पहुंचा। आप यहां किस राह से आए हैं?
इन्द्र - मैं भी उसी अजदहे के मुंह से होता हुआ आया हूं और यहां आने पर मुझे जो-जो बातें मालूम हुई हैं उनसे शीशे वाले कमरे का कुछ भेद मालूम हो गया।
आनन्द - सो क्या?
इन्द्रजीत - मेरे साथ आओ, मैं सब तमाशा तुम्हें दिखाता हूं।
अपने छोटे भाई को साथ लिये कुंअर इन्द्रजीतसिंह नीचे के खण्ड वाली सब चीजों को दिखाकर ऊपर वाले खण्ड में गये और वहां का बिल्कुल हाल कहा। बाजा और मूरत इत्यादि दिखाया और बाजे के बोलने तथा मूरत के चलने-फिरने के विषय में भी अच्छी तरह समझाया जिससे इन्द्रजीतसिंह की तरह आनन्दसिंह का भी शक जाता रहा। इसके बाद आनन्दसिंह ने पूछा, “अब क्या करना चाहिए?'
इन्द्रजीत - यहां से बाहर निकलने के लिए दरवाजा खोलना चाहिए। मैं यह निश्चय कर गया हूं कि इस खण्ड के ऊपर जाने के लिए कोई रास्ता नहीं है और न ऊपर जाने से कुछ काम ही चलेगा, अतएव हमें पुनः नीचे वाले खण्ड में चलकर दरवाजा ढूंढ़ना चाहिए, या तुमने अगर कोई और बात सोची हो तो कहो।
आनन्द - मैं तो यह सोचता हूं कि आखिर तिलिस्म तोड़ने के लिए ही तो यहां आए हैं, इसलिये जहां तक बन पड़े यहां की चीजों को तोड़-फोड़ और नष्ट-भ्रष्ट करना चाहिए, इसी बीच में कहीं-न-कहीं कोई दरवाजा दिखाई दे ही जायगा।
इन्द्रजीत - (मुस्कराकर) यह भी एक बात है, खैर तुम अपने ही खयाल के मुताबिक कार्रवाई करो, हम तमाशा देखते हैं।
आनन्द - बहुत अच्छा, तो आइये पहिले उस दरवाजे को खोलें जिसके अन्दर पुतलियां जाती हैं।
इतना कहकर आनन्दसिंह उस दालान में गये जिसमें कमलिनी, लाडिली तथा ऐयारों की मूरतें थीं। हम ऊपर लिख चुके हैं कि ये मूरतें लोहे की नालियों पर चलकर जब शीशे वाली दीवार के पास पहुंचती थीं तो वहां का दरवाजा आप से आप खुल जाता था। आनन्दसिंह भी उसी दरवाजे के पास गये और कुछ सोचकर उन्हीं नालियों पर पैर रक्खा जिन पर पुतलियां चलती थीं।
नालियों पर पैर रखने के साथ ही दरवाजा खुल गया और दोनों भाई उस दरवाजे के अन्दर चले गये। इन्हें वहां से दो रास्ते दिखाई पड़े, एक दरवाजा तो बन्द था और जंजीर में एक भारी ताला लगा हुआ था और दूसरा रास्ता शीशे वाली दीवार की तरफ गया हुआ था जिसमें पुतलियों के आने-जाने के लिए नालियां भी बनी हुई थीं। पहिले दोनों कुमार पुतलियों के चलने का हाल मालूम करने की नीयत से उसी तरफ गए और वहां अच्छी तरह घूम-फिरकर देखने और जांच करने पर जो कुछ उन्हें मालूम हुआ उसका तत्व हम नीचे लिखते हैं।
वहां शीशे की तीन दीवारें थीं और हर एक के बीच में आदमियों के चलने-फिरने लायक रास्ता छूटा हुआ था। पहिली शीशे की दीवार जो कमरे की तरफ थी सादी थी अर्थात् उस शीशे के पीछे पारे की कलई की हुई न थी, हां उसके बाद वाली दूसरी शीशे वाली दीवार में कलई की हुई थी और वहां जमीन पर पुतलियों के चलने के लिए नालियां भी कुछ इस ढंग से बनी हुई थीं कि बाहर वालों को दिखाई न पड़ें और पुतलियां कलई वाले शीशे के साथ सटी हुई चल सकें। यही सबब था कि कमरे की तरफ से देखने वालों के शीशे के अन्दर आदमी चलता हुआ मालूम पड़ता था और उन नकली आदमियों की परछाईं भी जो शीशे में पड़ती थी, साथ सटे रहने के कारण देखने वाले को दिखाई नहीं पड़ती थी। मूरतें आगे जाकर घूमती हुई दीवार के पीछे चली जाती थीं जिसके बाद फिर शीशे की दीवार थी और उस पर नकली कलई की हुई थी। इस गली में भी नाली बनी हुई थी और उसी राह से मूरतें लौटकर अपने ठिकाने जा पहुंचती थीं।
इन सब चीजों को देखकर जब कुमार लौटे तो बन्द दरवाजे के पास आये जिसमें एक बड़ा ताला लगा हुआ था। खंजर से जंजीर काटकर दोनों भाई उसके अन्दर गये, तीन-चार कदम जाने के बाद नीचे उतरने के लिए सीढ़ियां मिलीं। इन्द्रजीतसिंह अपने हाथ में तिलिस्मी खंजर लिये हुए रोशनी कर रहे थे।
दोनों भाई सीढ़ियां उतरकर नीचे चले गए और इसके बाद उन्हें एक बारीक सुरंग में चलना पड़ा। थोड़ी देर बाद एक दरवाजा मिला, उसमें भी ताला लगा हुआ था, आनन्दसिंह ने तिलिस्मी खंजर से उसकी भी जंजीर काट डाली और दरवाजा खोलकर दोनों भाई उसके भीतर चले गये।
इस समय दोनों कुमारों ने अपने को एक बाग में पाया। वह बाग छोटे-छोटे जंगली पेड़ों और लताओं से भरा हुआ था। यद्यपि यहां की क्यारियां निहायत खूबसूरत और संगमर्मर के पत्थर से बनी हुई थीं मगर इनमें सिवाय झाड़-झंखाड़ के और कुछ न था। इसके अतिरिक्त और भी चारों तरफ एक प्रकार का जंगल हो रहा था, हां दो-चार पेड़ फल के वहां जरूर थे और एक छोटी-सी नहर भी एक तरफ से आकर बाग में घूमती हुई दूसरी तरफ निकल गई थी। बाग के बीचोंबीच में एक छोटा-सा बंगला बना हुआ था जिसकी जमीन, दीवार और छत इत्यादि सब पत्थर की और मजबूत बनी हुई थीं मगर फिर भी उसका कुछ भाग टूट-फूटकर खराब हो रहा था।
जिस समय दोनों कुमार इस बाग में पहुंचे उस समय दिन बहुत कम बाकी था और ये दोनों भाई भी भूख-प्यास और थकावट से परेशान हो रहे थे अस्तु नहर के किनारे जाकर दोनों ने हाथ-मुंह धोए और जरा आराम लेकर जरूरी कामों के लिए चले गये। उससे छुट्टी पाने के बाद दो-चार फल तोड़कर खाये और नहर का जल पीकर इधर-उधर घूमने-फिरने लगे। उस समय उन दोनों को यह मालूम हुआ कि जिस दरवाजे की राह से वे दोनों इस बाग में आये थे वह आप से आप ऐसा बन्द हो गया कि उसके खुलने की उम्मीद नहीं।
दोनों भाई घूमते हुए बीच वाले बंगले में आये। देखा कि तमाम जमीन कूड़ा-कर्कट से खराब हो रही है। एक पेड़ से बड़े-बड़े पत्ते वाली छोटी डाली तोड़ जमीन साफ की और रात-भर उसी जगह गुजारा किया।
सुबह को जरूरी कामों से छुट्टी पाकर दोनों भाइयों ने नहर में दुपट्टा (कमरबन्द) धोकर सूखने को डाला और जब वह सूख गया तो स्नान-पूजा से निश्चिन्त हो दो-चार फल खाकर पानी पीया और पुनः बाग में घूमने लगे।
इन्द्रजीत - जहां तक मैं सोचता हूं यह वही बाग है जिसका हाल तिलिस्मी बाजे से मालूम हुआ था मगर उस पिण्डी का पता नहीं लगता।
आनन्द - निःसन्देह वही बाग है! यह बीच वाला बंगला हमारा शक दूर करता है इसलिये जल्दी करके इस बाग के बाहर हो जाने की फिक्र न करनी चाहिए कहीं ऐसा न हो कि 'मनुबाटिका' यही जगह हो और हम धोखे में आकर इसके बाहर हो जायें। बाजे ने भी यही कहा था कि यदि अपना काम किये बिना 'मनुबाटिका' के बाहर हो जाओगे तो तुम्हारे किये कुछ भी न होगा, न तो पुनः 'मनुबाटिका' में जा सकोगे और न अपनी जान बचा सकोगे।
इन्द्र - रक्तग्रन्थ में भी तो यही बात लिखी है, इसीलिये मैं भी यहां से बाहर निकल चलने के लिए नहीं कह सकता, मगर अब जिस तरह हो उस पिण्डी का पता लगाना चाहिए।
पाठक, तिलिस्मी किताब (रक्तग्रन्थ) और तिलिस्मी बाजे से दोनों कुमारों को यह मालूम हुआ था कि मनुबाटिका में किसी जगह जमीन पर एक छोटी-सी पिण्डी बनी हुई मिलेगी। उसका पता लगाकर उसी को अपने मतलब का दरवाजा समझना। यही सबब था कि दोनों कुमार उस पिण्डी को खोज निकालने की फिक्र में लगे हुए थे मगर उस पिण्डी का पता नहीं लगता था। लाचार उन्हें कई दिनों तक उस बाग में रहना पड़ा। आखिर एक घनी झाड़ी के अन्दर उस पिण्डी का पता लगा। वह करीब हाथ भरके ऊंची और तीन हाथ के घेरे में होगी और यह किसी तरह भी मालूम नहीं हो रहा था कि वह पत्थर की है या लोहे-पीतल इत्यादि किसी धातु की बनी हुई है। जिस चीज से वह पिण्डी बनी हुई थी उसी चीज से बना हुआ सूर्यमुखी का एक फूल उसके ऊपर जड़ा हुआ था और यही उस पिण्डी की पूरी पहिचान था। आनन्दसिंह ने खुश होकर इन्द्रजीतसिंह से कहा –
आनन्द - वाह रे किसी तरह ईश्वर की कृपा से इस पिण्डी का पता तो लगा, मैं समझता हूं इसमें आपको किसी तरह का शक न होगा?
इन्द्र - मुझे किसी तरह का शक नहीं है, यह पिण्डी निःसन्देह वही है जिसे हम लोग खोज रहे थे। अब इस जमीन को अच्छी तरह साफ करके अपने सच्चे सहायक रक्तग्रन्थ से हाथ धो बैठने के लिये तैयार हो जाना चाहिए।
आनन्द - जी हां, ऐसा ही होना चाहिए, यदि रक्तग्रन्थ में कुछ संदेह हो तो उसे पुनः देख जाइये।
इन्द्र - यद्यपि इस ग्रन्थ में मुझे किसी तरह का सन्देह नहीं है और जो कुछ उसमें लिखा है मुझे अच्छी तरह याद है मगर शक मिटाने के लिए एक दफे उलट-पलटकर जरूर देख लूंगा।
आनन्द - मेरा भी यही इरादा है। यह काम घण्टे-दो घण्टे के अन्दर हो भी जायगा। अस्तु आप पहिले रक्तग्रन्थ देख जाइये तब तक मैं इस झाड़ी को साफ किये डालता हूं।
इतना कहकर आनन्दसिंह ने तिलिस्मी खंजर से काट के पिण्डी के चारों तरफ के झाड़-झंखाड़ को साफ करना शुरू किया और इन्द्रजीतसिंह नहर के किनारे बैठकर तिलिस्मी किताब को उलट-पलटकर देखने लगे। थोड़ी देर बाद इन्द्रजीतसिंह आनन्दसिंह के पास आये और बोले - “लो अब तुम भी इसे देखकर अपना शक मिटा लो और तब तक तुम्हारे काम को मैं पूरा कर डालता हूं!”
आनन्दसिंह ने अपना काम छोड़ दिया और अपने भाई के हाथ से रक्तग्रन्थ लेकर नहर के किनारे चले गये तथा इन्द्रजीतसिंह ने तिलिस्मी खंजर से पिण्डी के चारों तरफ की सफाई करनी शुरू कर दी। थोड़ी ही देर में जो कुछ घास-फूस झाड़-झंखाड़ पिण्डी के चारों तरफ था साफ हो गया और आनन्दसिंह भी तिलिस्मी किताब देखकर अपने भाई के पास चले आये और बोले, “अब क्या आज्ञा है?'
इसके जवाब में इन्द्रजीतसिंह ने कहा, “बस नहर के किनारे चलो और रक्तग्रन्थ का आटा गूंथो।”
दोनों भाई नहर के किनारे आये और एक ठिकाने साएदार जगह देखकर बैठ गये। उन्होंने नहर के किनारे वाले एक पत्थर की चट्टान को जल से अच्छी तरह धोकर साफ किया और इसके बाद रक्तग्रन्थ को पानी में डुबोकर उस पत्थर पर रख दिया। देखते ही देखते जो कुछ पानी रक्तग्रन्थ में लगा था उसी में पच गया। फिर हाथ से उस पर पानी डाला, वह भी पच गया। इसी तरह बार-बार चुल्लू भर-भरकर उस पर पानी डालने लगे और ग्रन्थ पानी पी-पीकर मोटा होने लगा। थोड़ी देर के बाद वह मुलायम हो गया और तब आनन्दसिंह ने उसे हाथ से मलके आटे की तरह गूंथना शुरू किया। शाम होने तक उसकी सूरत ठीक गूंथे हुए आटे की तरह हो गई। मगर रंग इसका काला था। आनन्दसिंह ने इस आटे को उठा लिया और अपने भाई के साथ उस पिण्डी के पास आकर उनकी आज्ञानुसार तमाम पिण्डी पर उसका लेप कर दिया। इसके बाद दोनों भाई यहां से किनारे हो गये और जरूरी कामों से छुट्टी पाने के काम में लगे।