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भाग 5

 


भूतनाथ अब बिल्कुल आजाद हो गया। इस समय उसकी ताकत उतनी ही है जितनी आज के दस दिन पहिले थी और जितने आज के दस दिन पहिले उसके ताबेदार थे उतने ही आज भी हैं। पाठक जानते ही हैं कि भूतनाथ अकेला नहीं है बल्कि बहुत से आदमी उसके नौकर भी हैं जो इधर-उधर घूम-फिरकर उसका काम किया करते हैं। भूतनाथ ने जब से नकली बलभद्रसिंह से यह सुना कि उसकी बहुत प्यारी चीज मेरे कब्जे में है जिसे वह 'लामाघाटी' में छोड़ आया था, तब से वह और भी परेशान हो गया था। वह बहुत प्यारी चीज क्या थी बस वही उसकी स्त्री जिसके पेट से नानक पैदा हुआ था और जिसे उसने नागर की मेहरबानी से पुनः पा लिया था, वास्तव में भूतनाथ अपनी उस प्यारी स्त्री को लामाघाटी में ही छोड़ आया था।
भूतनाथ इस समय जमानिया जाने के बदले लामाघाटी ही की तरफ रवाना हुआ और तीसरे दिन संध्या समय उस घाटी में जा पहुंचा जिसे वह अपना घर समझता था।
यहां पर हम पाठकों के दिल में लामाघाटी की तस्वीर खेंचकर भूतनाथ की ताकत और उसके स्वभाव या खयाल का कुछ अन्दाज करा देना मुनासिब समझते हैं। लामाघाटी में किसी अनजान आदमी का जाना बहुत कठिन ही नहीं बल्कि असम्भव था। ध्यानशक्ति की सहायता से यदि आप वहां जायं तो सबके पहिले एक छोटी-सी पहाड़ी मिलेगी जिस पर चढ़ने के लिए एक बारीक पगडण्डी दिखाई देगी। जब उस पगडण्डी की राह से पहाड़ी के ऊपर चढ़ जायेंगे तो तीन तरफ मैदान और पश्चिम की तरफ केवल आधा कोस की दूरी पर एक बहुत ऊंचा पहाड़ मिलेगा। उसके पास जाने पर मालूम होगा कि ऊपर चढ़ने के लिए कोई रास्ता या पगडण्डी नहीं है और न पहाड़ के दूसरी तरफ उतर जाने का ही मौका है। परन्तु खोजने की कोई आवश्यकता नहीं, आप उस पहाड़ी के नीचे पहुंचकर दाहिनी तरफ घूम जाइये और जब तक पानी का एक छोटा-सा झरना आपको न मिले बराबर चले ही जाइये। वह दो-तीन हाथ चौड़ा झरना आपका रास्ता काट के बहता होगा, उसे लांघने की कोई आवश्यकता नहीं, आप बाईं तरफ आंख उठाकर देखेंगे तो बीस-पचीस हाथ की ऊंचाई पर एक छोटी-सी गुफा दिखाई देगी, आप बेधड़क उस गुफा में चले जाइये जिसके अन्दर बिल्कुल अन्धकार होगा और बनिस्बत बाहर के अन्दर गर्मी कुछ ज्यादे होगी। कोस भर तक बराबर उस गुफा के अन्दर ही अन्दर चलने के बाद जब आप बाहर निकलेंगे तो एक हरा-भरा छोटा-सा मैदान नजर आयेगा। वह मैदान छोटे-छोटे जंगली फलों और लताओं से ऐसा भरा होगा कि दूर से देखने वालों को आनन्द मगर उसके अन्दर जाने वाले के लिए आफत समझिये। उसमें जाने वाला तीस-चालीस कदम मुश्किल से जाने के बाद इस तरह से फंस जायगा कि निकलना कठिन होगा। उस मैदान के किनारे-किनारे दाहिनी तरफ और फिर बाईं तरफ घूम जाना होगा और जब आप पश्चिम और उत्तर के कोने में पहुंचेंगे तो और एक गुफा मिलेगी। आप उस गुफा के अन्दर चले जाइये। लगभग दो सौ कदम जाने के बाद जब आप बाहर निकलेंगे तो अनगढ़ और मोटे-मोटे पत्थर के ढोकों से बनी हुई दीवारें मिलेंगी जिनके बीचोंबीच में एक बहुत बड़ा लकड़ी का दरवाजा लगा है। यदि दरवाजा खुला है तो आप दीवार के उस पार चले जाइये और एक पुरानी मगर बहुत बड़ी इमारत पर नजर डालिए। यद्यपि मकान बहुत पुराना है और कई जगह से टूट भी गया है तथापि जो कुछ बचा है वह बहुत मजबूत और पचासों बरसात सहने योग्य है, जिसमें अब भी कई बड़े-बड़े दालान और कोठरियां मौजूद हैं और उसी मकान या स्थान का नाम 'लामाघाटी' है। भूतनाथ के आदमी या नौकर-चाकर इसी मकान में रहते हैं और अपनी स्त्री को भी वह इसी जगह छोड़ गया था। उसके सिपाही जो बड़े ही दिमागदार, बहुत कट्टर और साथ ही इसके ईमानदार भी थे गिनती के पचास से कम न थे और भूतनाथ के खजाने की हिफाजत बड़ी मुस्तैदी और नेकनीयती के साथ करते थे तथा बड़े-बड़े कठिन कामों को पूरा करने के लिए भूतनाथ की आज्ञा पाते ही मुस्तैद हो जाते थे। उस मकान के चारों तरफ एक बहुत बड़ा मैदान छोटे-छोटे जंगली खूबसूरत पौधों से हरा-भरा बहुत ही खूबसूरत मालूम पड़ता था और उसके बाद भी चारों तरफ की पहाड़ियों के ऊपर जहां तक निगाह काम कर सकती थी छोटे-छोटे खूबसूरत पेड़-पौधे दिखाई पड़ते थे।
भूतनाथ इसी लामाघाटी में पहुंचा। पहुंचने के साथ ही चारों तरफ से उसके आदमियों ने खुशी-खुशी उसे घेर लिया और कुशल-मंगल पूछने लगे। भूतनाथ सभों से हंसकर मिला और 'हां सब ठीक है, बहुत अच्छा है, मेरा आना जिस लिये हुआ उसका हाल जरा ठहरकर कहूंगा' इत्यादि कहता हुआ अपनी स्त्री के पास चला गया, जो बहुत दिनों से उसे देखे बिना बेताब हो रही थी। हंसी-खुशी से मिलने के बाद दोनों में यों बातचीत होने लगी -
स्त्री - तुम बहुत दुबले और उदास मालूम पड़ते हो!
भूत - हां, इधर कई दिन मुसीबत में कटे हैं।
स्त्री - (चौंककर) सो क्या, कुशल तो है?
भूत - कुशल क्या, जान बच गई यही गनीमत है।
स्त्री - सो क्या तुम्हारा भेद खुल गया?
भूत - (ऊंची सांस लेकर) हां कुछ खुल ही गया।
स्त्री - (हाथ मलकर) हाय - हाय, यह तो बड़ा ही गजब हुआ!
भूत - बेशक गजब हो गया।
स्त्री - फिर तुम बचकर कैसे निकल आये?
भूत - ईश्वर ने एक सहायक भेज दिया जिसने अपनी जमानत पर महीने भर के लिए मुझे छोड़ दिया।
स्त्री - तो क्या महीने भर के बाद तुम्हें फिर हाजिर होना पड़ेगा?
भूत - हां।
स्त्री - किसके आगे?
भूत - राजा वीरेन्द्रसिंह के आगे।
स्त्री - राजा वीरेन्द्रसिंह से क्या सरोकार तुमने उनका तो कुछ बिगाड़ा नहीं था।
भूत - इतनी ही तो कुशल है कि वह दूसरी जगह जाने के बदले सीधा लक्ष्मीदेवी के पास चला गया।
स्त्री - (चौंककर) हैं, क्या लक्ष्मीदेवी जीती है?
भूत - हां वह जीती है, मुझे इस बात की खबर कुछ भी न थी कि कमलिनी के साथ जो तारा रहती है वह वास्तव में लक्ष्मीदेवी है और बालासिंह को यह बात मालूम हो गई थी, इसलिए वह सीधा लक्ष्मीदेवी के पास चला गया। यदि मुझे पहिले लक्ष्मीदेवी की खबर लग गई होती तो आज मैं राजा वीरेन्द्रसिंह के आगे अपनी तारीफ सुनता होता।
स्त्री - तुम तो कहते थे कि बालासिंह मर गया।
भूत - हां, मैं ऐसा ही जानता था।
स्त्री - उसी ने तो तुम्हारी सन्दूकड़ी चुराई थी!
भूत - हां, जब उसने सन्दूकड़ी चुराई थी तभी तो मैं अधमुआ हो चुका था। मगर यह सुनकर कि वह मर गया मैं निश्चिन्त भी हो गया था, परन्तु जिस समय वह यकायक मेरे सामने आ खड़ा हुआ, मुझे बड़ा ही आश्चर्य हुआ। उसके हाथ में वह गठरी उसी कपड़े में बंधी उसी तरह लटक रही थी जैसी तुम्हारे सन्दूक से चोरी गई थी और जिसे देखने के साथ ही मैं पहिचान गया। ओफ, मैं नहीं कह सकता कि उस समय मेरी क्या हालत थी। मेरे होशोहवास दुरुस्त न थे और मैं अपने को जिन्दा नहीं समझता था। इस बात के दो-चार दिन पहले जब मैं राजा गोपालसिंह के साथ किशोरी और कामिनी को कमलिनी के मकान में पहुंचाने गया था तो उसी समय तारा पर मुझे शक हो गया था मगर अपनी भलाई का कोई दूसरा ही रास्ता सोचकर मैं उस समय चुप रहा परन्तु जिस समय बालासिंह से यकायक मुलाकात हो गई और उसने उस गठरी की तरफ इशारा करके मुझसे कहा कि इसमें सोहागिन तारा की किस्मत बन्द है उसी समय मुझे विश्वास हो गया कि तारा वास्तव में लक्ष्मीदेवी है और वह कागज का मुट्ठा भी इसी ने चुरा लिया है जिसे मैंने बड़ी मेहनत से बटोरकर नकल करके रक्खा था। मैं उस समय बदहवास हो गया और अफसोस करने लगा कि जिन कागजों से मैं फायदा उठाने वाला था वही कागज अब मुझे चौपट करेंगे क्योंकि वह उन्हीं कागजों से मुझी को दोषी ठहराने का उद्योग करेगा। यदि वह सन्दूकड़ी उसके पास न होती तो मैं हताश न होकर और कोई बन्दोबस्त करता परन्तु उस सन्दूकड़ी के खयाल ही से मैं पागल हो गया, उस समय तो मैं बिल्कुल ही मुर्दा हो गया जब उसकी बेगम पर मेरी निगाह पड़ी।
स्त्री - (चौंककर) क्या बेगम भी जीती है!
भूत - हां, उस समय वह उसके साथ थी और थोड़ी ही दूर पर एक झाड़ी के अन्दर छिपी हुई थी।
स्त्री - यह बड़ा ही अंधेर हुआ, अगर तुम्हें मालूम होता कि वह जीती है तो तुम अपना नाम भूतनाथ काहे को रखते।
भूत - नहीं अगर मुझे उसके मरने में कुछ भी शक होता तो मैं अपना नाम भूतनाथ न रखता। केवल इतना ही नहीं, उसने तो मुझे उस समय एक ऐसी बात कही थी जिससे मेरी बची-बचाई जान भी निकल गई और मैं ऐसा कमजोर हो गया कि उसके साथ लड़ने योग्य भी न रहा।
स्त्री - सो क्या?
भूत - उसने तुम्हारी तरफ इशारा करके मुझसे कहा कि 'तुम्हारी बहुत ही प्यारी चीज मेरे कब्जे में है जो तुम्हारे बाद बड़ी तकलीफ में पड़ जायगी और जिसे तुम लामाघाटी में छोड़ आये थे' और यही सबब है कि छूटने के साथ ही सबसे पहिले मैं इस तरफ आया, मगर ईश्वर को धन्यवाद देता हूं कि तुम उस शैतान के हाथ से बची रहीं और तुम्हें मैं इस जगह राजी-खुशी देख रहा हूं।
स्त्री - उसकी क्या मजाल कि यहां आ सके, उसे स्वप्न में भी यहां का रास्ता मालूम नहीं हो सकता।
भूत - सो तो मैं समझता हूं। परन्तु 'लामाघाटी' का नाम लेने से मुझे उसकी बात पर विश्वास हो गया, मैंने सोचा कि यदि वह लामाघाटी तक न गया होता तो लामाघाटी का नाम भी उसे मालूम न होता और...।
स्त्री - नहीं-नहीं, लामाघाटी का नाम किसी दूसरे सबब से उसे मालूम हुआ होगा।
भूत - बेशक ऐसा ही है, खैर तुम्हारी तरफ से तो मैं निश्चिन्त हो गया मगर अब अपनी जान बचाने के लिए मुझे असली बलभद्रसिंह का पता लगाना चाहिए।
स्त्री - अब तुम अपना खुलासा हाल उस दिन से कह जाओ जिस दिन से तुम मुझसे जुदा हुए हो।
भूतनाथ ने अपना कुल हाल अपनी स्त्री को कह सुनाया और इसके बाद थोड़ी देर तक बातचीत करके बाहर निकल आया। एक दालान में जिसमें सुन्दर बिछावन बिछा हुआ था और रोशनी बखूबी हो रही थी, उसके संगी-साथी या सिपाही सब बैठे उसके आने की राह देख थे। भूतनाथ के आते ही वे सब अदब के तौर पर उठ खड़े हुए तथा उसके बैठने के बाद उसकी आज्ञा पाकर बैठ गये और बातचीत होने लगी।
भूत - कहो तुम लोग अच्छे तो हो?
सब - जी आपके अनुग्रह से हम लोग अच्छे हैं।
भूत - ऐसा ही चाहिए।
एक - आप इतने दुबले और उदास क्यों हो रहे हैं?
भूत - मैं एक भारी आफत में फंस गया था बल्कि अभी तक फंसा ही हुआ हूं।
सब - सो क्या? सो क्यों?
भूत - मैं तुमसे सब-कुछ कहता हूं क्योंकि तुम लोग मेरे खैरखाह हो और मुझे तुम लोगों का बहुत सहारा रहता है।
सब - हम लोग आपके ताबेदार हैं और एक अदने इशारे पर जान देने के लिए तैयार हैं, औरों की तो दूर रहे खास राजा वीरेन्द्रसिंह से भिड़ जाने की हिम्मत रखते हैं।
भूत - बेशक ऐसा ही है और इसीलिए मैं कोई बात तुम लोगों से नहीं छिपाता।
इतना कहकर भूतनाथ ने अपना हाल कहना आरम्भ किया। जो कुछ अपनी स्त्री से कह चुका था वह तथा और भी बहुत-सी बातें उसने उन लोगों से कहीं और इसके बाद कई बहादुरों को कई तरह के काम करने की आज्ञा दे फिर अपनी स्त्री के पास चला गया।
दूसरे दिन सबेरे जब भूतनाथ बाहर आया तब मालूम हुआ कि उसके बहादुर सिपाहियों में से चालीस आदमी उसकी आज्ञानुसार 'लामाघाटी' के बाहर जा चुके हैं। भूतनाथ भी वहां से रवाना होने के लिए तैयार ही था और अपनी स्त्री से बिदा होकर बाहर निकला था, अस्तु वह भी एक आदमी को लेकर चल पड़ा और दो ही घण्टे बाद 'लामाघाटी' से बाहर मैदान में जमानिया की तरफ जाता हुआ दिखाई देने लगा।