2. मौत के आगोश में...
<p dir="ltr">सबसे छूपा कर,<br>
होकर सबसे तन्हा।<br>
दबा रखा था,<br>
दिल के इक कोने में-<br>
वह कुछ सपना।<br>
कितनी ख्वाहईश होगी,<br>
दिल में उसके।<br>
जाने कितने रंगो से,<br>
सजाये होंगे वो सपने।<br>
भला कौन है?<br>
जो टाल सका अनहोनी को।<br>
जो उससे टल जाती?<br>
टूट पड़ा पहाड़ जैसे,<br>
दुःखो का एक साथ।<br>
टूट गये उसके <br>
सारे सपने।<br>
कितनी खुशियाँ थी - <br>
जीवन में उसके,<br>
बिखर गये सब।<br>
बचा रखा था जो कुछ,<br>
वह लूट गये सब।<br>
कितनी तकलिफ <br>
हुई होगी उसे।<br>
जब आया होगा,<br>
हवा को चीर के कानो में <br>
उसके वह शब्द।<br>
जो नही सोचा था,<br>
कभी उसने।<br>
खिसक गया होगा,<br>
जमीं पैरों तल्ले से।<br>
लगी तो होगी जरूर,<br>
उसे जोड़ों कि प्यास।<br>
झट से बैठ गया होगा,<br>
सर पे हाथ रख कर वह।<br>
सोचता तो होगा,<br>
काश मिलता मुझे भी-<br>
किसी का साथ।<br>
बहुत दिया धोखा,<br>
जमाने ने उसको।<br>
वक्त भी रूठा हुआ उससे,<br>
पड़ा था एक कोने में।<br>
लहु-लुहान थी,<br>
उसकी आत्मा।<br>
पड़ अटूट था-<br>
विशवास उसका,<br>
जो जीवित था अब तक।<br>
और साथ था ही कौन?<br>
अरे कहाँ!<br>
मानने वाला था वह।<br>
गिरता फिर उठता,<br>
था लड़खड़ाता-<br>
पड़ चला जा रहा था।<br>
सजा रखा था,</p>
<p dir="ltr">वर्षों से जो तम्मना-<br>
वो थकने कहां देती थी उसे।<br>
लेकिन कब तक?<br>
आखिर थक गया,<br>
वह चलते-चलते।<br>
सह नही सका और बोझ,<br>
वह जिम्मेदारी का।<br>
धराशायी हो गया,<br>
वह धरा पड़।<br>
नही आएगा अब वह,<br>
वापस यहाँ तड़पने।<br>
चला गया दूर बहुत दूर,<br>
मौत के आगोश में।<br>
                   - गौतम गोविन्द।<br>
                  - <a href="tel:9911040940">9911040940</a></p>
होकर सबसे तन्हा।<br>
दबा रखा था,<br>
दिल के इक कोने में-<br>
वह कुछ सपना।<br>
कितनी ख्वाहईश होगी,<br>
दिल में उसके।<br>
जाने कितने रंगो से,<br>
सजाये होंगे वो सपने।<br>
भला कौन है?<br>
जो टाल सका अनहोनी को।<br>
जो उससे टल जाती?<br>
टूट पड़ा पहाड़ जैसे,<br>
दुःखो का एक साथ।<br>
टूट गये उसके <br>
सारे सपने।<br>
कितनी खुशियाँ थी - <br>
जीवन में उसके,<br>
बिखर गये सब।<br>
बचा रखा था जो कुछ,<br>
वह लूट गये सब।<br>
कितनी तकलिफ <br>
हुई होगी उसे।<br>
जब आया होगा,<br>
हवा को चीर के कानो में <br>
उसके वह शब्द।<br>
जो नही सोचा था,<br>
कभी उसने।<br>
खिसक गया होगा,<br>
जमीं पैरों तल्ले से।<br>
लगी तो होगी जरूर,<br>
उसे जोड़ों कि प्यास।<br>
झट से बैठ गया होगा,<br>
सर पे हाथ रख कर वह।<br>
सोचता तो होगा,<br>
काश मिलता मुझे भी-<br>
किसी का साथ।<br>
बहुत दिया धोखा,<br>
जमाने ने उसको।<br>
वक्त भी रूठा हुआ उससे,<br>
पड़ा था एक कोने में।<br>
लहु-लुहान थी,<br>
उसकी आत्मा।<br>
पड़ अटूट था-<br>
विशवास उसका,<br>
जो जीवित था अब तक।<br>
और साथ था ही कौन?<br>
अरे कहाँ!<br>
मानने वाला था वह।<br>
गिरता फिर उठता,<br>
था लड़खड़ाता-<br>
पड़ चला जा रहा था।<br>
सजा रखा था,</p>
<p dir="ltr">वर्षों से जो तम्मना-<br>
वो थकने कहां देती थी उसे।<br>
लेकिन कब तक?<br>
आखिर थक गया,<br>
वह चलते-चलते।<br>
सह नही सका और बोझ,<br>
वह जिम्मेदारी का।<br>
धराशायी हो गया,<br>
वह धरा पड़।<br>
नही आएगा अब वह,<br>
वापस यहाँ तड़पने।<br>
चला गया दूर बहुत दूर,<br>
मौत के आगोश में।<br>
                   - गौतम गोविन्द।<br>
                  - <a href="tel:9911040940">9911040940</a></p>