सामुद्रिक शास्त्र
सामुद्रिक शास्त्र मुख, मुखमण्डल तथा सम्पूर्ण शरीर के अध्ययन की विद्या है। भारत में यह यह वैदिक काल से ही प्रचलित है। गरुड़ पुराण में सामुद्रिक शास्त्र का वर्णन है। यह एक रहस्यमयी शास्त्र है जो व्यक्ति के संपूर्ण चरित्र और भविष्य को खोलकर रख देता है। हस्तरेखा विज्ञान तो सामुद्रिक विद्या की वह शाखा मात्र है।
सामुद्रिक शास्त्र का ज्ञान प्राचीनकाल से ही भारत में प्रचलित रहा है। मूलत: यह ज्ञान दक्षिण भारत में ज्यादा प्रचलित रहा। इसके जानकार दक्षिण भारत में ज्यादा पाए जाते हैं। इस विज्ञान का उल्लेख प्राचीनकालीन ज्योतिष शास्त्र में भी मिलता है।
ज्योतिष शास्त्र की भांति सामुद्रिक शास्त्र का उद्भव भी 5000 वर्ष पूर्व भारत में ही हुआ था। पराशर, व्यास, सूर्य, भारद्वाज, भृगु, कश्यप, बृहस्पति, कात्यायन आदि महर्षियों ने इस विद्या की खोज की।
इस शास्त्र का उल्लेख वेदों और स्कंद पुराण, बाल्मीकि रामायण, महाभारत आदि ग्रंथों के साथ-साथ जैन तथा बौद्ध ग्रंथों में भी मिलता है। इसका प्रचार प्रसार सर्वप्रथम ऋषि समुद्र ने किया इसलिए उन्हीं के नाम पर सामुद्रिक शास्त्र हो गया। भारत से यह विद्या चीन, यूनान, रोम और इसराइल तक पहुंची और आगे चलकर यह संपूर्ण योरप में फैल गई।
कहते हैं कि ईसा पूर्व 423 में यूनानी विद्वान अनेक्सागोरस यह शास्त्र पढ़ाया करते थे। इतिहासकारों अनुसार हिपांजस को हर्गल की वेदी पर सुनहरे अक्षरों में लिखी सामुद्रिक ज्ञान की एक पुस्तक मिली जो सिकंदर महान को भेंट की गई थी। प्लेटो, अरिस्टॉटल, मेगनस, अगस्टस, पैराक्लीज तथा यूनान के अन्य दार्शनिक भारत के ज्योतिष और सामुद्रिक ज्ञान से परिचित थे।