चौथा भाग : बयान - 3
तेजसिंह के लौट आने से राजा वीरेंद्रसिंह बहुत खुश हुए और उस समय तो उनकी खुशी और भी ज्यादे हो गई जब तेजसिंह ने रोहतासगढ़ आकर अपनी कार्रवाई करने का खुलासा हाल कहा। रामानंद की गिरफ्तारी का हाल सुनकर हंसते-हंसते लोट गये मगर साथ ही इसके कि कुंअर इंद्रजीतसिंह का पता रोहतासगढ़ में नहीं लगता बल्कि मालूम होता है कि रोहतासगढ़ में नहीं हैं, राजा वीरेंद्रसिंह उदास हो गये। तेजसिंह ने उन्हें हर तरह से समझाया और दिलासा दिया। थोड़ी देर बाद तेजसिंह ने अपने दिल की वे सब बातें कहीं जो वे किया चाहते थे, वीरेंद्रसिंह ने उनकी राय बहुत पसंद की और बोले -
वीरेंद्र - तुम्हारी कौन-सी ऐसी तरकीब है जिसे मैं पसंद नहीं कर सकता! हां यह कहो कि इस समय अपने साथ किस ऐयार को ले जाओगे
तेज - मुझे तो इस समय कई ऐयारों की जरूरत थी मगर यहां केवल चार मौजूद हैं और बाकी सब कुंअर इंद्रजीतसिंह का पता लगाने गये हैं, खैर कोई हर्ज नहीं! पंडित बद्रीनाथ को तो इसी लश्कर में रहने दीजिए, उन्हें किसी दूसरी जगह भेजना मैं मुनासिब नहीं समझता क्योंकि यहां बड़े ही चालाक और पुराने ऐयार का काम है, बाकी ज्योतिषीजी, भेरों और तारा को मैं अपने साथ ले जाऊंगा।
वीरेंद्र - अच्छी बात है, इन तीनों से तुम्हारा काम बखूबी चलेगा।
तेज - जी नहीं, मैं तीनों ऐयारों को अपने साथ नहीं रखा चाहता बल्कि भैरों और तारा को तो वहां का रास्ता दिखाकर वापस कर दूंगा, इसके बाद वे दोनों थोड़े से लड़कों को मेरे पास पहुंचाकर फिर आपको या कुंअर आनंदसिंह को लेकर मेरे पास आवेंगे, तब वह सब कार्रवाई की जायगी जो मैं आपसे कह चुका हूं।
वीरेंद्र - और यह दारोगा वाली किताब जो तुम ले आये हो क्या होगी
तेज - इसे फिर अपने साथ ले जाऊंगा और मौका मिलने पर शुरू से आखिर तक पढ़ जाऊंगा, यही तो एक चीज हाथ लगी है।
वीरेंद्र - बेशक उम्दा चीज है, (किताब तेजसिंह के हाथ से लेकर) रोहतासगढ़ तहखाने का कुल हाल इससे तुम्हें मालूम हो जायगा बल्कि इसके अलावे वहां का और भी बहुत कुछ भेद मालूम होगा।
तेज - जी हां, इसमें दारोगा ने रोज-रोज का हाल लिखा है, मैं समझता हूं वहां ऐसी-ऐसी और भी कई किताबें होंगी जो इसके पहले के और दारोगाओं के हाथ से लिखी गई होंगी।
वीरेंद्र - जरूर होंगी, और इससे उस तहखाने के खजाने का भी पता लगता है।
तेज - लीजिए अब यह खजाना भी हमीं लोगों का हुआ चाहता है! अब हमें यहां देर न करके बहुत जल्द वहां पहुंचना चाहिए, क्योंकि दिग्विजयसिंह मुझे और दारोगा को अपने पास बुला गया था, देर हो जाने पर वह फिर तहखाने में आवेगा और किसी को न देखेगा तो सब काम ही चौपट हो जायगा।
वीरेंद्र - ठीक है, अब तुम जाओ देर मत करो।
कुछ जलपान करने के बाद ज्योतिषीजी, भैरोसिंह और तारासिंह को साथ लिए हुए तेजसिंह वहां से रोहतासगढ़ की तरफ रवाना हुए और दो घंटे दिन रहते ही तहखाने में जा पहुंचे। अभी तक तेजसिंह रामानंद की सूरत में थे। तहखाने का रास्ता दिखाने के बाद भैरोसिंह और तारासिंह को तो वापस किया और ज्योतिषीजी को अपने पास रखा। अब की दफे तहखाने से बाहर निकलने वाले दरवाजे में तेजसिंह ने ताला नहीं लगाया, उन्हें केवल खटकों पर बंद रहने दिया।
दारोगा वाले रोजनामचे के पढ़ने से तेजसिंह को बहुत-सी बातें मालूम हो गईं जिन्हें यहां लिखने की कोई जरूरत नहीं, समय-समय पर आप ही मालूम हो जायगा, हां उनमें से एक बात यहां लिख देना जरूरी है। जिस दालान में दारोगा रहता था उसमें एक खंभे के साथ लोहे की एक तार बंधी हुई थी जिसका दूसरा सिरा छत में सूराख करके ऊपर की तरफ निकाल दिया गया था। तेजसिंह को किताब के पढ़ने से मालूम हुआ कि इस तार को खींचने या हिलाने से वह घंटा बोलेगा जो खास दिग्विजयसिंह के दीवानखाने में लगा हुआ है क्योंकि उस तार का दूसरा सिरा उसी घंटे से बंधा है। जब किसी तरह की मदद की जरूरत पड़ती थी तब दारोगा उस तार को छेड़ता था। उस दालान की बगल की एक कोठरी के अंदर भी एक बड़ा-सा घंटा लटकता था जिसके साथ बंधी हुई लोहे की तार का दूसरा हिस्सा महाराज के दीवानखाने में था। महाराज भी जब तहखाने वालों को होशियार किया चाहते थे या और कोई जरूरत पड़ती थी तो ऊपर लिखी रीति से वह तहखाने वाला घंटा भी बजाया जाता और यह काम केवल महाराज का था क्योंकि तहखाने का हाल बहुत गुप्त था, तहखाना कैसा है और उसके अंदर क्या होता है यह हाल सिवाय खास-खास आठ-दस आदमियों के और किसी को भी मालूम न था, इसके भेद मंत्र की तरह गुप्त रखे जाते थे।
हम ऊपर लिख आये हैं कि असली रामानंद को ऐयार समझकर महाराज दिग्विजयसिंह तहखाने में ले आए और लौटकर जाते समय नकली रामानंद अर्थात तेजसिंह और दारोगा को कहते गये कि तुम दोनों फुरसत पाकर हमारे पास आना।
महाराज के हुक्म की तामील न हो सकी क्योंकि दारोगा को कैद कर तेजसिंह अपने लश्कर में ले गये और ज्यादा हिस्सा दिन का उधर ही बीत गया था जैसा कि हम ऊपर लिख आये हैं। जब तेजसिंह लौटकर तहखाने में आये तो ज्योतिषीजी को बहुत-सी बातें समझाईं और उन्हें दारोगा बनाकर गद्दी पर बैठाया, उसी समय सामने की कोठरियों में से खटके की आवाज आई। तेजसिंह समझ गये कि महाराज आ रहे हैं, ज्योतिषीजी को तो लिटा दिया और कहा कि ''तुम हाय-हाय करो, मैं महाराज से बातचीत करूंगा।'' थोड़ी देर में महाराज उस तहखाने में उसी राह से आ पहुंचे जिस राह से तेजसिंह को साथ लाए थे।
महा - (तेजसिंह की तरफ देखकर) रामानंद, तुम दोनों को हम अपने पास आने के लिए हुक्म दे गये थे, क्यों नहीं आये, और इस दारोगा को क्या हुआ जो हाय-हाय कर रहा है
तेज - महाराज, इन्हीं के सबब से तो आना नहीं हुआ। यकायक बेचारे के पेट में दर्द पैदा हो गई, बहुत-सी तरकीबें करने के बाद अब कुछ आराम हुआ है।
महा - (दारोगा के हाल पर अफसोस करने के बाद) उस ऐयार का कुछ हाल मालूम हुआ
तेज - जी नहीं, उसने कुछ भी नहीं बताया, खैर क्या हर्ज है, दो-एक दिन में पता लग ही जायगा, ऐयार लोग जिद्दी तो होते ही हैं।
थोड़ी देर बाद महाराज दिग्विजय वहां से चले गये। महाराज के जाने के बाद तेजसिंह भी तहखाने से बाहर हुए और महाराज के पास गये। दो घंटे तक हाजिरी देकर शहर में गश्त करने के बहाने से बिदा हुए। पहर रात से कुछ ज्यादा गई थी कि तेजसिंह फिर महाराज के पास गये और बोले -
तेज - मुझे जल्द लौट आते देख महाराज ताज्जुब करते होंगे मगर एक जरूरी खबर देने के लिए आना पड़ा।
महा - वह क्या
तेज - मुझे पता लगा है कि मेरी गिरफ्तारी के लिए कई ऐयार आये हुए हैं, महाराज होशियार रहें। अगर रात भर मैं उनके हाथ से बच गया तो कल जरूर कोई तरकीब करूंगा, यदि फंस गया तो खैर।
महा - तो आज रात भर तुम यहीं क्यों नहीं रहते
तेज - क्या उन लोगों के खौफ से बिना कुछ कार्रवाई किये अपने को छिपाऊं यह नहीं हो सकता।
महा - शाबाश, ऐसा ही मुनासिब है, खैर जाओ जो होगा देखा जायगा।
तेजसिंह घर की तरफ लौटे, रामानंद के घर की तरफ नहीं बल्कि अपने लश्कर की तरफ। उन्होंने इस बहाने अपनी जान बचाई और चलते हुए। सबेरे जब दरबार में रामानंद न आए, महाराज को विश्वास हो गया कि वीरेंद्रसिंह के ऐयारों ने उन्हें फंसा लिया।