पहला भाग : बयान - 12
अब हम आपको एक दूसरी सरजमीन में ले चलकर एक दूसरे ही रमणीक स्थान की सैर करा तथा इसके साथ-ही-साथ बड़े-बड़े ताज्जुब के खेल और अद्भुत बातों को दिखाकर अपने किस्से का सिलसिला दुरुस्त किया चाहते हैं। मगर यहां एक जरूरी बात लिख देने की इच्छा होती है जिसके जानने से आगे चलकर आपको कुछ ज्यादे आनंद मिलेगा।
इस जगह बहुत-सी अद्भुत बातों को पढ़कर आप ऐसा न समझ लें कि यह तिलिस्म है और इसमें ऐसी बातें हुआ ही करती हैं, बल्कि उसे दुरुस्त और होने वाली समझकर खूब गौर करें क्योंकि अभी यह पहला ही भाग है। इस संतति के चार भागों में तो हम तिलिस्म का नाम भी न लेंगे, आगे चलकर देखा जायगा।
आप ध्यान कर लें कि एक अच्छे रमणीक स्थान में पहुंचकर सैर कर रहे हैं। यह जमीन भी लगभग हजार गज के चौड़ी और इतनी ही लंबी होगी, चारों तरफ की चार खूबसूरत पहाड़ियों से घिरी हुई है। बीच की सब्जी और गुलबूटों की बहार देखने ही लायक है। इस कुदरती बगीचे में जंगली फूलों के पेड़ ज्यादे दिखाई देते हैं, उन्हीं में मिले-जुले गुलाबों के पौधे भी बेशुमार हैं और कोई भी ऐसा नहीं जिसमें सुंदर कलियां और फूल न दिखाई देते हों। बीच में बड़े-बड़े तीन झरने भी खूबसूरती से बह रहे हैं। बरसात का मौसम है, चारों तरफ से पहाड़ों पर से गिरता हुआ जल इन झरनों में जोश मार रहा है। पूरब तरफ पहाड़ी के नीचे पहुंचकर ये तीनों झरने एक हो गए हैं और अंदाज से ज्यादे आया हुआ जल गड्ढे में गिरकर न मालूम कहां निकल जाता है। यहां की आबोहवा ऐसी उत्तम है कि अगर वर्षों का बीमार भी आवे तो दो दिन में तंदुरुस्त हो जाय और यहां की सैर से कभी जी न घबड़ाए।
बीचोंबीच में एक आलीशान इमारत बनी हुई है, मगर चाहे उसमें हर तरह की सफाई क्यों न हो फिर भी किसी पुराने जमाने की मालूम होती है। उसी इमारत के सामने एक छोटी-सी खूबसूरत बावली बनी हुई है जिसके चारों तरफ की जमीन कुछ ज्यादा खूबसूरत मालूम पड़ती है और फूल-पत्ते भी मौके से लगाए हुए हैं।
यह इमारत सुनसान और उदास नहीं है, इसमें पंद्रह-बीस नौजवान खूबसूरत औरतों का डेरा है। देखिए इस शाम के सुहावने समय में वे सब घर से निकलकर चारों तरफ मैदान में घूम-घूमकर जिंदगी का मजा ले रही हैं। सभी खुश, सभी की मस्तानी चाल, सभी फूलों को तोड़-तोड़कर आपस में गेंदबाजी कर रही हैं। हमारे नौजवान नायक कुंअर इंद्रजीतसिंह भी एक हसीन नाजनीन के हाथ में हाथ दिये बावली के पूरब की तरफ टहल रहे हैं, बात-बात में हंसी-दिल्लगी हो रही है, दीन-दुनिया की सुध भूले हुए हें।
लीजिए वे दोनों थककर बावली के किनारे एक खूबसूरत संगमर्मर की चट्टान पर बैठ गये और बातचीत होने लगी -
इंद्र - माधवी, मेरा शक किसी तरह नहीं जाता। क्या सचमुच तुम वही हो जो उस दिन गंगा किनारे जंगल में झूला झूल रही थीं
माधवी - आप रोज मुझसे यही सवाल करते हैं और मैं कसम खाकर इसका जवाब दे चुकी हूं, मगर अफसोस कि मेरी बात पर विश्वास नहीं करते।
इंद्र - (अंगूठी की तरफ देखकर) इस तस्वीर से कुछ फर्क मालूम होता है।
माधवी - यह दोष मुसव्वर1 का है।
इंद्र - खैर जो हो फिर भी तुमने मुझे अपने वश में कर रखा है।
माधवी - जी हां ठीक है, मुझसे मिलने का उद्योग तो आप ही ने किया था।
इंद्र - अगर मैं उद्योग न करता तो क्या तुम मुझे जबर्दस्ती ले आतीं
माधवी - खैर जाने दीजिए, मैं कबूल करती हूं कि आपने मेरे ऊपर अहसान किया, बस!
इंद्र - (हंसकर) बेशक तुम्हारे ऊपर अहसान किया कि दिल और जान तुम्हारे हवाले किये।
माधवी - (शर्माकर और सिर नीचा करके) बस रहने दीजिए, ज्यादा सफाई न दीजिए!
इंद्र - अच्छा इन बातों को छोड़ो और अपने वादे को याद करो आज कौन दिन है बस आज तुम्हारा पूरा हाल सुने बिना न मानूंगा चाहे जो हो, मगर देखो फिर उन भारी कसमों की याद दिलाता हूं जो मैं कई दफे तुम्हें दे चुका, मुझसे झूठ कभी न बोलना नहीं तो अफसोस करोगी।
माधवी - (कुछ देर तक सोचकर) अच्छा आज भर मुझे और माफ कीजिए, आपसे बढ़कर मैं दुनिया में किसी को नहीं समझती, आप ही की शपथ खाकर कहती हूं कि कल जो पूछेंगे सब ठीक-ठीक कह दूंगी, कुछ न छिपाऊंगी। (आसमान की तरफ देखकर) अब समय हो गया, मुझे दो घंटे की फुरसत दीजिए।
इंद्र - (लंबी सांस लेकर) खैर कल ही सही, जाओ मगर दो घंटे से ज्यादा न लगाना।
1. चित्रकार।
माधवी उठी और मकान के अंदर चली गई। उसके जाने के बाद इंद्रजीतसिंह अकेले रह गये और सोचने लगे कि यह माधवी कौन है इसका कोई बड़ा बुजुर्ग भी है या नहीं! यह अपना हाल क्यों छिपाती है! सुबह-शाम दो-दो तीन-तीन घंटे के लिए कहां और किससे मिलने जाती है इसमें तो कोई शक नहीं कि यह मुझसे मुहब्बत करती है मगर ताज्जुब है कि मुझे यहां क्यों कैद कर रखा है1 चाहे यह सरजमीन कैसी ही सुंदर और दिल लुभाने वाली क्यों न हो, फिर भी मेरी तबीयत यहां से उचाट हो रही है। क्या करें, कोई तरकीब नहीं सूझती, बाहर का कोई रास्ता नहीं दिखाई देता, यह तो मुमकिन ही नहीं कि पहाड़ चढ़कर कोई पार हो जाये, और यह भी दिल नहीं कबूल करता कि इसे किसी तरह रंज करूं और अपना मतलब निकालूं, क्योंकि मैं अपनी जान इस पर न्यौछावर कर चुका हूं।
ऐसी-ऐसी बहुत-सी बातों को सोचते इनका जी बेचैन हो गया, घबड़ाकर उठ खड़े हुए और इधर-उधर टहलकर दिल बहलाने लगे। चश्मे का जल निहायत साफ था, बीच की छोटी-छोटी खुशरंग कंकरियां और तेजी के साथ दौड़ती हुई मछलियां साफ दिखाई पड़ती थीं, इसी की कैफियत देखते किनारे-किनारे जाकर दूर निकल गए और वहां पहुंचे जहां तीनों चश्मों का संगम हो गया था और अंदाज से ज्यादा आया हुआ जल पहाड़ी के नीचे एक गड्ढे में गिर रहा था।
एक बारीक आवाज इनके कान में आई। सिर उठाकर पहाड़ की तरफ देखने लगे। ऊपर पंद्रह-बीस गज की दूरी पर एक औरत दिखाई पड़ी जिसे अब तक इन्होंने इस हाते के अंदर कभी नहीं देखा था। उस औरत ने हाथ के इशारे से ठहरने के लिए कहा तथा ढोकों की आड़ में जहां तक बन पड़ा अपने को छिपाती हुई नीचे उतर आयी और आड़ देकर इंद्रजीतसिंह के पास इस तरह खड़ी हो गयी जिससे उन नौजवान छोकरियों में से कोई इसे देखने न पावे जो यहां की रहने वालियां चारों तरफ घूमकर चुहलबाजी में दिल बहला रही हैं और जिनका कुछ हाल हम ऊपर लिख आये हैं।
उस औरत ने एक लपेटा हुआ कागज इंद्रजीतसिंह के हाथ में दिया। इन्होंने कुछ पूछना चाहा मगर उसने यह कहकर कुमार का मुंह बंद कर दिया कि ''बस जो कुछ है इसी चीठी से आपको मालूम हो जायगा, मैं जुबानी कुछ कहा नहीं चाहती और न यहां ठहरने का मौका है, क्योंकि कोई देख लेगा तो हम-आप दोनों ऐसी आफत में फंस जायेंगे कि जिससे छुटकारा मुश्किल होगा। मैं उसी की लौंडी हूं जिसने यह चीठी आपके पास भेजी है।''
उसकी बात का इंद्रजीतसिंह क्या जवाब देंगे इसका इंतजार न करके वह औरत पहाड़ी पर चढ़ गई और चालीस-पचास हाथ जा एक गड्ढे में घुसकर न मालूम कहां लोप हो गई। इंद्रजीतसिंह ताज्जुब में आकर खड़े आधी घड़ी तक उस तरफ देखते रहे मगर फिर वह नजर न आई। लाचार इन्होंने कागज खोला और बड़े गौर से पढ़ने लगे, यह लिखा था :
''हाय, मैंने तस्वीर बनकर अपने को आपके हाथ में सौंपा, मगर आपने मेरी कुछ भी खबर न ली, बल्कि एक दूसरी ही औरत के फंदे में फंस गये जिसने मेरी सूरत बना आपको पूरा धोखा दिया। सच है, वह परीजमाल जब आपके बगल में बैठी है तो फिर मेरी सुध क्यों आने लगी!
आपको मेरी ही कसम है, पढ़ने के बाद इस चीठी के इतने टुकड़े कर डालिये कि एक अक्षर भी दुरुस्त न बचने पावे।
आपकी दासी - किशोरी।''
इस चीठी के पढ़ते ही कुमार के कलेजे में एक धड़कन-सी पैदा हुई। घबराकर एक चट्टान पर बैठ गये और सोचने लगे - ''मैंने पहले ही कहा था कि इस तस्वीर से उसकी सूरत नहीं मिलती। चाहे यह कितनी ही हसीन और खूबसूरत क्यों न हो मगर मैंने तो अपने को उसी के हाथ बेच डाला है जिसकी तस्वीर खुशकिस्मती से अब तक मेरे हाथ में मौजूद है। तब क्या करना चाहिए यकायक इससे तमाशा करना भी मुनासिब नहीं। अगर यह इसी जगह मुझे छोड़कर चली जाय और अपनी सहेलियों को भी लेती जाय तो मैं क्या करूंगा घबड़ाकर सिवाय प्राण दे देने के और क्या कर सकता हूं, क्योंकि यहां से निकलने का रास्ता मालूम नहीं। यह भी नहीं हो सकता कि इन दोनों पहाड़ियों पर चढ़कर पार हो जाऊं, क्योंकि सिवाय ऊंची सीधी चट्टान के चढ़ने लायक रास्ता कहीं भी नहीं मालूम पड़ता। खैर जो हो, आज मैं जरूर उसके दिल में कुछ खुटका पैदा करूंगा। नहीं-नहीं, आज भर और चुप रहना चाहिए, कल उसने अपना हाल कहने का वादा किया ही है, आखिर कुछ-न-कुछ झूठ जरूर कहेगी, बस उसी समय टोकूंगा। एक बात और है। (कुछ रुककर) अच्छा देखा जायेगा। यह औरत जो मुझे चीठी दे गई है यहां किस तरह पहुंची (पहाड़ी की तरफ देखकर) जितनी दूर ऊंचे उसे मैंने देखा था वहां तक तो चढ़ जाने का रास्ता मालूम होता है, शायद इतनी दूर तक लोगों की आमदरफ्त होती होगी। खैर ऊपर चलकर देखूं तो सही कि बाहर निकल जाने के लिए कोई सुरंग तो नहीं है।''
इंद्रजीतसिंह उस पहाड़ी पर वहां तक चढ़ गये जहां वह औरत नजर पड़ी थी। ढूंढ़ने से एक सुरंग ऐसी नजर आई जिसमें आदमी बखूबी घुस सकता था। उन्हें विश्वास हो गया कि इसी राह से वह आई थी और बेशक हम भी इसी राह से बाहर हो जायेंगे। खुशी-खुशी उस सुरंग में घुसे। दस-बारह कदम अंधेरे में गये होंगे कि पैर के नीचे जल मालूम पड़ा। ज्यों-ज्यों आगे जाते थे जल ज्यादे जान पड़ता था, मगर यह भी हौसला किये बराबर चले ही गये। जब गले बराबर जल में जा पहुंचे और मालूम हुआ कि आगे ऊपर चट्टान जल के साथ मिली हुई है, तैरकर भी कोई नहीं जा सकता और रास्ता बिल्कुल नीचे की तरफ झुकता अर्थात ढलवां ही मिलता जाता है तो लाचार होकर लौट आए मगर इन्हें विश्वास हो गया कि वह औरत जरूर इसी राह से आई थी क्योंकि उसे गीले कपड़े पहिरे इन्होंने देखा भी था।
वे औरतें जो पहाड़ी के बीच वाले दिलचस्प मैदान में घूम रही थीं इंद्रजीतसिंह को कहीं न देख घबरा गईं और दौड़ती हुई उस हवेली के अंदर पहुंचीं जिसका जिक्र हम ऊपर कर आये हैं। तमाम मकान छान डाला, जब पता न लगा तो उन्हीं में से एक बोली, ''बस अब सुरंग के पास चलना चाहिए जरूर उसी जगह होंगे।'' आखिर वे सब औरतें वहां जा पहुंची जहां सुरंग के बाहर निकलकर गीले कपड़े पहिरे इंद्रजीतसिंह खड़े कुछ सोच रहे थे।
इंद्रजीतसिंह को सोच - विचार करते और सुरंग में आते - जाते दो घंटे लग गये। रात हो गई थी, चंद्रमा पहले ही से निकले हुए थे जिसकी चांदनी ने दिलचस्प जमीन में फैलकर अजीब समां जमा रखा था। दो घंटे बीत जाने पर माधवी भी लौट आयी थी मगर उस मकान में या उसके चारों तरफ अपनी किसी लौंडी या सहेली को न देख घबरा गई और उस समय तो उसका कलेजा और भी दहलने लगा जब उसने देखा कि अभी तक घर में चिराग तक नहीं जला। उसने भी इधर-उधर ढूंढ़ना नापसंद किया और सीधे उसी सुरंग के पास पहुंची। अपनी सब सखियों और लौंडियों को भी वहां पाया और यह भी देखा कि इंद्रजीतसिंह गीले कपड़े पहिरे सुरंग के मुहाने से नीचे की तरफ आ रहे हैं।
क्रोध से भरी माधवी ने अपनी सखियों की तरफ देखकर धीरे से कहा, ''लानत है तुम लोगों की गफलत पर! इसलिए तुम हरामखोरिनों को मैंने यहां रखा था!'' गुस्सा ज्यादा चढ़ आया था और होंठ कांप रहे थे इससे कुछ और ज्यादे न कह सकी, फिर भी इंद्रजीतसिंह के नीचे आने तक बड़ी कोशिश से माधवी ने अपने गुस्से को पचाया और बनावटी तौर पर हंसकर इंद्रजीतसिंह से पूछा, ''क्या आप उस नहर के अंदर गये थे'
इंद्र - हां।
माधवी - भला यह कौन-सी नादानी थी! न मालूम इसके अंदर कितने कीड़े-मकोड़े और बिच्छू होंगे। हम लोगों को तो डर के मारे कभी यहां खड़े होने का भी हौसला नहीं पड़ता।
इंद्र - घूमते-फिरते चश्मे का तमाशा देखते यहां तक आ पहुंचे, जी में आया कि देखें यह गुफा कितनी दूर तक चली गई है। जब अंदर गया तो पानी में भीगकर लौटना पड़ा।
माधवी - खैर चलिए कपड़े बदलिए।
कुंअर इंद्रजीतसिंह का खयाल और भी मजबूत हो गया। वह सोचने लगे कि इस सुरंग में जरूर कोई भेद है, तभी तो ये सब घबड़ाई हुई यहां आ जमा हुईं।
इंद्रजीतसिंह आज तमाम रात सोच-विचार में पड़े रहे। इनके रंग-ढंग से माधवी का भी माथा ठनका और वह भी रात-भर चारों तरफ दौड़ती रही।