दूसरा भाग : बयान - 4
हम ऊपर लिख आये हैं कि माधवी के यहां तीन आदमी अर्थात दीवान अग्निदत्त, कुबेरसिंह सेनापति और धर्मसिंह कोतवाल मुखिया थे और तीनों मिलकर माधवी के राज्य का आनंद लेते थे।
इन तीनों में अग्निदत्त का दिन बहुत मजे से कटता था क्योंकि एक तो वह दीवान के मर्तबे पर था, दूसरे माधवी जैसी खूबसूरत औरत उसे मिली थी। कुबेरसिंह और धर्मसिंह इसके दिली दोस्त थे, मगर कभी जब उन दोनों को माधवी का ध्यान आ जाता तो चित्त की वृत्ति बदल जाती और जी में कहते कि 'अफसोस, माधवी मुझे न मिली!'
पहले इन दोनों को यह खबर न थी कि माधवी कैसी है। बहुत कहने-सुनने से एक दिन दीवान साहब ने इन दोनों को माधवी को देखने का मौका दिया था। उसी दिन से इन दोनों ही के जी में माधवी की सूरत चुभ गई थी और उसके बारे में बहुत कुछ सोचा करते थे।
आज हम आधी रात के समय दीवान अग्निदत्त को अपने सुनसान कमरे में अकेले चारपाई पर लेटे किसी सोच में डूबे हुए देखते हैं। न मालूम वह क्या सोच रहा है या फिक्र में पड़ा है, हां एक दफे उसके मुंह से यह आवाज जरूर निकली - ''कुछ समझ में नहीं आता! इसमें तो कोई संदेह नहीं कि उसने अपना दिल खुश करने का कोई सामान वहां पैदा कर लिया है। तो मैं बेफिक्र क्यों बैठा हूं खैर पहले अपने दोस्तों से तो सलाह ले लूं।'' यह कहने के साथ ही वह चारपाई से उठ बैठा और कमरे में धीरे-धीरे टहलने लगा, आखिर उसने खूंटी से लटकती हुई अपनी तलवार उतार ली और मकान के नीचे उतर आया।
दरवाजे पर बहुत से सिपाही पहरा दे रहे थे। दीवान साहब को कहीं जाने के लिए तैयार देख ये लोग भी साथ चलने को तैयार हुए, मगर दीवान साहब के मना करने से उन लोगों को लाचार हो उसी जगह अपने काम पर मुस्तैद रहना पड़ा।
अकेले दीवान साहब वहां से रवाना हुए और बहुत जल्दी कुबेरसिंह सेनापति के मकान पर जा पहुंचे जो इनके यहां से थोड़ी ही दूर पर एक सुंदर सजे हुए मकान में बड़े ठाठ के साथ रहता था।
दीवान साहब को विश्वास था कि इस समय सेनापति अपने ऐशमहल में आनंद से सोता होगा, वहां से बुलवाना पड़ेगा, मगर नहीं दरवाजे पर पहुंचते ही पहरे वालों से पूछने पर मालूम हुआ कि सेनापति साहब अभी तक अपने कमरे में बैठे हैं, बल्कि कोतवाल साहब भी इस समय उन्हीं के पास हैं।
अग्निदत्त यह सोचता हुआ ऊपर चढ़ गया कि आधी रात के समय कोतवाल यहां क्यों आया है और ये दोनों इस समय क्या सलाह-विचार कर रहे हैं। कमरे में पहुंचते ही देखा कि सिर्फ वे ही दोनों एक गद्दी पर तकिये के सहारे लेटे हुए कुछ बात कर रहे हैं जो यकायक दीवान साहब को अंदर पैर रखते देख उठ खड़े हुए और सलाम करने के बाद सेनापति साहब ने ताज्जुब में आकर पूछा -
''यह आधी रात के समय आप घर से क्यों निकले?'
दीवान - ऐसा ही मौका आ पड़ा, लाचार सलाह करने के लिए आप दोनों से मिलने की जरूरत हुई।
कोत - आइए बैठिए, कुशल तो है
दीवान - हां कुशल ही कुशल है, मगर कई खुटकों ने जी बेचैन कर रखा है।
सेनापति - सो क्या कुछ कहिए भी तो।
दीवान - हां कहता हूं, इसीलिए तो आया हूं, मगर पहले (कोतवाल की तरफ देखकर) आप तो कहिए इस समय यहां कैसे पहुंचे?
कोत - मैं तो यहां बहुत देर से हूं, सेनापति साहब की विचित्र कहानी ने ऐसा उलझा रखा था कि बस क्या कहूं, हां आप अपना हाल कहिए, जी बेचैन हो रहा है।
दीवान - मेरा कोई नया हाल नहीं है, केवल माधवी के विषय में कुछ सोचने-विचारने आया हूं।
सेनापति - माधवी के विषय में किस नये सोच ने आपको आ घेरा कुछ तकरार की नौबत तो नहीं आई!
दीवान - तकरार की नौबत आई तो नहीं मगर आना चाहती है।
सेनापति - सो क्यों?
दीवान - उसके रंग-ढंग आजकल बेढब नजर आते हैं, तभी तो देखिए इस समय मैं यहां हूं, नहीं तो पहर रात के बाद क्या कोई मेरी सूरत देख सकता था।
कोत - इधर तो कई दिन आप अपने मकान ही पर रहे हैं।
दीवान - हां, इन दिनों वह अपने महल में कम आती है, उसी गुप्त पहाड़ी में रहती है, कभी-कभी आधी रात के बाद आती है और मुझे उसकी राह देखनी पड़ती है।
कोत - वहां उसका जी कैसे लगता है?
दीवान - यही तो ताज्जुब है, मैं सोचता हूं कि कोई मर्द वहां जरूर है क्योंकि वह कभी अकेले रहने वाली नहीं।
कोत - पता लगाना चाहिए।
दीवान - पता लगाने के उद्योग में मैं कई दिन से लगा हूं मगर कुछ हो न सका। जिस दरवाजे को खोलकर वह आती-जाती है उसकी ताली भी इसलिए बनवाई कि धोखे में वहां तक जा पहुंचूं, मगर काम न चला, क्योंकि जाती समय अंदर से वह न मालूम ताले में क्या कर जाती है कि चाबी नहीं लगती है।
कोत - तो दरवाजा तोड़ के वहां पहुंचना चाहिए।
दीवान - ऐसा करने से बड़ा फसाद मचेगा।
कोत - फसाद करके कोई क्या कर लेगा! राज्य तो हम तीनों की मुट्ठी में है।
इतने ही में बाहर किसी आदमी के पैर की चाप मालूम हुई। तीनों देर तक उसी तरफ देखते रहे मगर कोई न आया। कोतवाल यह कहता हुआ कि 'कहीं कोई छिप के बातें सुनता न हो' उठा और कमरे के बाहर जाकर इधर-उधर देखने लगा, मगर किसी का पता न चला, लाचार फिर कमरे में चला आया और बोला, ''कोई नहीं है, खाली धोखा हुआ।''
इस जगह विस्तार से यह लिखने की कोई जरूरत नहीं कि इन तीनों में क्या-क्या बातचीत होती रही या इन लोगों ने कौन-सी सलाह पक्की की, हां इतना कहना जरूरी है कि बातों ही बातों में इन तीनों ने रात बिता दी और सबेरा होते ही अपने-अपने घर का रास्ता लिया।
दूसरे दिन पहर रात जाते-जाते कोतवाल साहब के घर में एक विचित्र बात हुई। वे अपने कमरे में बैठे कचहरी के कुछ जरूरी कागजों को देख रहे थे कि इतने ही में शोरगुल की आवाज उनके कानों में आई। गौर करने से मालूम हुआ कि बाहर दरवाजे पर लड़ाई हो रही है। कोतवाल साहब के सामने जो मोमी शमादान जल रहा था उसी के पास एक घंटी पड़ी हुई थी, उठाकर बजाते ही एक खिदमतगार दौड़ा-दौड़ा सामने आया और हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। कोतवाल साहब ने कहा, ''दरियाफ्त करो, बाहर कैसा कोलाहल मचा हुआ है'
खिदमतगार दौड़ा बाहर गया और तुरंत लौटकर बोला, ''न मालूम कहां से दो आदमी आपस में लड़ते हुए आये हैं, फरियाद करने के लिए बेधड़क भीतर घुसे आते थे। पहरे वालों ने रोका तो उन्हीं से झगड़ा करने लगे।''
कोत - उन दोनों की सूरत-शक्त कैसी है?
खिद - दोनों भले आदमी मालूम पड़ते हैं, अभी मूंछें नहीं निकली हैं, बड़े ही खूबसूरत हैं, मगर खून से तर-बतर हो रहे हैं।
कोत - अच्छा कहो, उन दोनों को हमारे सामने हाजिर करें।
हुक्म पाते ही खिदमतगार फिर बाहर गया और थोड़ी देर में कई सिपाही उन दोनों को लिए हुए कोतवाल के सामने हाजिर हुए। नौकर की बात बिल्कुल सच निकली। वे दोनों कम उम्र और बहुत खूबसूरत थे, बदन पर लिबास भी बेशकीमती था, कोई हरबा उनके पास न था मगर खून से उन दोनों का कपड़ा तर हो रहा था।
कोत - तुम लोग आपस में क्यों लड़ते हो और हमारे आदमियों से फसाद करने पर उतारू क्यों हुए?
एक - (सलाम करके) हम दोनों भले आदमी हैं, सरकारी सिपाहियों ने बदजुबानी की, लाचार गुस्सा तो चढ़ा ही हुआ था, बिगड़ गई।
कोत - अच्छा इसका फैसला पीछे होता रहेगा, पहले तुम यह कहो कि आपस में क्यों खूनखराबी कर बैठे और तुम दोनों का मकान कहां है?
दूसरा - हम दोनों आपकी रैयत हैं और गयाजी में रहते हैं, दोनों सगे भाई हैं, एक औरत के पीछे लड़ाई हो रही है जिसका फैसला आपसे चाहते हैं, बाकी हाल इतने आदमियों के सामने कहना हम लोग पसंद नहीं करते।
कोतवाल साहब ने सिर्फ उन दोनों को वहां रहने दिया बाकी सभों को वहां से हटा दिया, निराला होने पर फिर उन दोनों से लड़ाई का सबब पूछा।
एक - हम दोनों भाई सरकार से कोई मौजा ठीका लेने के लिए यहां आ रहे थे। यहां से तीन कोस पर पहाड़ी है, कुछ दिन रहते ही हम दोनों वहां पहुंचे और थोड़ा सुस्ताने की नीयत से उतर पड़े, घोड़ों को चरने के लिए छोड़ दिया और एक पेड़ के नीचे पत्थर की चट्टान पर बैठ बातचीत करने लगे...
दूसरा - (सिर हिलाकर) नहीं, कभी नहीं।
पहला - सरकार, इसे हुक्म दीजिये कि चुप रहे, मैं कह लूं तो जो कुछ इसके जी में आये कहे।
कोत - (दूसरे को डांटकर) बेशक ऐसा ही करना होगा!
दूसरा - बहुत अच्छा।
पहला - थोड़ी ही देर बैठे थे कि पास ही किसी औरत के रोने की बारीक आवाज आई जिसके सुनने से कलेजा पानी हो गया।
दूसरा - ठीक, बहुत ठीक।
कोत - (लाल आंखें करके) क्यों जी, तुम फिर बोलते हो
दूसरा - अच्छा अब न बोलूंगा!
पहला - हम दोनों उठकर उसके पास गए। आह, ऐसी खूबसूरत औरत जो आज तक किसी ने न देखी होगी, बल्कि मैं जोर देकर कहता हूं कि दुनिया में ऐसी खूबसूरत कोई दूसरी न होगी। वह अपने सामने एक तस्वीर को जो चौखटे में जड़ी हुई थी, रखे बैठी थी और उसे देख फूट-फूटकर रो रही थी।
कोत - वह तस्वीर किसकी थी, तुम पहचानते हो
पहला - जी हां पहचानता हूं, मेरी तस्वीर थी।
दूसरा - झूठ, झूठ, कभी नहीं, बेशक वह तस्वीर आपकी थी! मैं इस समय बैठा उस तस्वीर से आपकी सूरत मिलान कर गया, बिल्कुल आपसे मिलती है, इसमें कोई शक नहीं! आप इसके हाथ में गंगाजल देकर पूछिये किसकी तस्वीर थी?
कोत - (ताज्जुब में आकर) क्या मेरी तस्वीर थी?
दूसरा - बेशक आपकी तस्वीर थी, आप इससे कसम देकर पूछिये तो सही।
कोत - (पहले से) क्यों जी, तुम्हारा भाई क्या कहता है
पहला - जी ई ई...
कोत - (जोर से) कहो साफ-साफ, सोचते क्या हो?
पहला - जी बात तो यही ठीक है, आप ही की तस्वीर थी।
कोत - फिर झूठ क्यों बोले?
पहला - बस यही एक बात झूठ मुंह से निकल गई, अब कोई बात झूठ न कहूंगा, माफ कीजिये।
कोतवाल बेचारा ताज्जुब में आकर सोचने लगा कि उस औरत को मुझसे क्योंकर मुहब्बत हो गई जिसकी खूबसूरती की ये लोग इतनी तारीफ कर रहे हैं थोड़ी देर बाद फिर पूछा -
कोत - हां तो आगे क्या हुआ
पहला - (अपने भाई की तरफ इशारा करके) बस यह उस पर आशिक हो गया और उसे तंग करने लगा।
दूसरा - यह तो उस पर आशिक होकर उसे छेड़ने लगा।
पहला - जी नहीं, उसने मुझे कबूल कर लिया और मुझसे शादी करने पर राजी हो गई बल्कि उसने यह भी कहा कि मैं दो दिन तक यहां रहकर तुम्हारा आसरा देखूंगी, अगर तुम पालकी लेकर आओगे तो तुम्हारे साथ चली चलूंगी।
दूसरा - जी नहीं, यह बड़ा भारी झूठा है, जब यह उसकी खुशामद करने लगा तब उसने कहा कि मैं उसी के लिए जान देने को तैयार हूं जिसकी तस्वीर मेरे सामने है। जब इसने उसकी बात न सुनी तो उसने अपनी तलवार से इसे जख्मी किया और मुझसे बोली कि तुम जाकर मेरे दोस्त को जहां हो ढूंढ़ निकालो और कह दो कि मैं तुम्हारे लिए बर्बाद हो गई अब भी तो सुध लो, जब मैंने इसे मना किया तो यह मुझसे झगड़ पड़ा। असल में यही लड़ाई का सबब हुआ।
पहला - जी नहीं, यह संदेसा उसने मुझे दिया क्योंकि यही उसे दुःख दे रहा था।
दूसरा - नहीं, यह झूठ बोलता है।
पहला - नहीं, यह झूठा है, मैं ठीक-ठीक कहता हूं।
कोत - अच्छा, मुझे उस औरत के पास ले चलो, मैं खुद उससे पूछ लूंगा कि कौन झूठा और कौन सच्चा है।
पहला - क्या अभी तक वह उसी जगह होगी?
दूसरा - जरूर वहां होगी, यह बहाना करता है क्योंकि वहां जाने से यह झूठा साबित हो जाएगा।
पहला - (अपने भाई की तरफ देखकर) झूठा तू साबित होगा। अफसोस तो इतना ही है कि अब मुझे वहां का रास्ता भी याद नहीं।
दूसरा - (पहले की तरफ देखकर) आप रास्ता भूल गये तो क्या हुआ मुझे तो याद है, मैं जरूर आपको वहां ले चलकर झूठा साबित करूंगा! (कोतवाल साहब की तरफ देखकर) चलिए मैं आपको वहां ले चलता हूं।
कोत - चलो।
कोतवाल साहब तो खुद बेचैन हो रहे थे और चाहते थे कि जहां तक हो वहां जल्द पहुंचकर देखना चाहिए कि वह औरत कैसी है जो मुझ पर आशिक हो तस्वीर सामने रख याद किया करती है। एक पिस्तौल भरी-भराई कमर में रख उन दोनों भाइयों को साथ ले मकान के नीचे उतरे। उनको बाहर जाने के लिए मुस्तैद देख कई सिपाही साथ चलने को तैयार हुए। उन्होंने अपनी सवारी का घोड़ा मंगवाया और उस पर सवार हो सिर्फ अर्दली के दो सिपाही साथ ले उन दोनों भाइयों के पीछे-पीछे रवाना हुए। दो घंटे बराबर चलते जाने के बाद एक छोटी-सी पहाड़ी के नीचे पहुंच वे दोनों भाई रुके और कोतवाल साहब को घोड़े से उतरने के लिए कहा।
कोत - क्या घोड़ा आगे नहीं जा सकता?
पहला - घोड़ा आगे जा सकता है मगर मैं दूसरी ही बात सोचकर आपको उतरने के लिए कहता हूं।
कोत - वह क्या?
पहला - जिस औरत के पास आप आये हैं वह इसी जगह है, दो ही कदम आगे बढ़ने से आप उसे बखूबी देख सकते हैं, मगर मैं चाहता हूं कि सिवाय आपके ये दोनों प्यादे उसे देखने न पाएं। इसके लिए मैं किसी तरह जोर नहीं दे सकता मगर इतना जरूर कहूंगा कि आप आगे बढ़ झांककर उसे देख लें फिर अगर जी चाहे तो इन दोनों को भी साथ ले जाएं, क्योंकि वह अपने को गया की रानी बताती है।
कोत - (ताज्जुब से) अपने को गया की रानी बताती है।
दूसरा - जी हां।
अब तो कोतवाल साहब के दिल में कोई दूसरा ही शक पैदा हुआ। वह तरह-तरह की बातें सोचने लगे। ''गया की रानी तो हमारी माधवी है, यह दूसरी कहां से पैदा हुई क्या वह माधवी तो नहीं है नहीं, नहीं, वह भला यहां क्यों आने लगी! उससे मुझसे क्या संबंध वह तो दीवान साहब की हो रही है। मगर वह आई भी हो तो कोई ताज्जुब नहीं, क्योंकि एक दिन हम तीनों दोस्त एक साथ महल में बैठे थे और रानी माधवी वहां पहुंच गई थी, मुझे खूब याद है कि उस दिन उसने मेरी तरफ बेढब तरह से देखा था और दीवान साहब की आंखें बचा घड़ी-घड़ी देखती थी, शायद उसी दिन से मुझ पर आशिक हो गई हो! हाय वह अनोखी चितवन कभी न भूलेगी। अहा, अगर यहां वही हो, और मुझे विश्वास हो कि मुझसे प्रेम रखती है तो क्या बात है! मैं ही राजा हो जाऊं और दीवान साहब को तो बात की बात में खपा डालूंगा! मगर ऐसी किस्मत कहां खैर जो हो इनकी बात मान जरा झांककर देखना तो जरूर चाहिए, शायद ईश्वर ने दिन फेरा ही हो!'' ऐसी-ऐसी बहुत-सी बातें सोचते-विचारते कोतवाल साहब घोड़े से उतर पड़े और उन दोनों भाइयों के कहे मुताबिक आगे बढ़े।
यहां से पहाड़ियों का सिलसिला बहुत दूर तक चला गया था। जिस जगह कोतवाल साहब खड़े थे वहां दो पहाड़ियां इस तरह आपस में मिली हुई थीं कि बीच में कोसों तक लंबी दरार मालूम पड़ती थी जिसके बीच में बहता हुअ पानी का चश्मा और दोनों तरफ छोटे-छोटे दरख्त बहुत भले मालूम पड़ते थे। इधर-उधर बहुत-सी कंदराओं पर निगाह पड़ने से यही विश्वास होता था कि ऋषियों और तपस्वियों के प्रेमी अगर यहां आवें तो अवश्य उनके दर्शन से अपना जन्म कृतार्थ कर सकेंगे।
दरार के कोने पर पहुंचकर दोनों भाइयों ने कोतवाल साहब को बाईं तरफ झांकने के लिए कहा। कोतवाल साहब ने झांककर देखा, साथ ही एकदम चौंक पड़े और मारे खुशी के भरे हुए गले से चिल्लाकर बोले, ''अहा, मेरी किस्मत जागी! बेशक यह रानी माधवी ही तो है!''