सारिपुत्र
सारिपुत्र (शारिपुत्र) और मोग्गल्लान बुद्ध के दो प्रमुख शिष्य 'धम्म-सेनापति' के नाम प्रसिद्ध हैं। सारिपुत्र का वास्तविक नाम उपतिस्स था। बौद्ध परम्परा में उन्हें सारिपुत्र का नाम इस कारण दिया गया था कि वे नालक निवासिनी रुपसारी के पुत्र (पुत्त) थे। उनका दृढ़ संकल्प बौद्ध इतिहास में विशेष तौर पर उल्लेखनीय है। गौतम बुद्ध के पुत्र राहल की उपसंपटा (दीक्षा) भी उनके द्वारा की गई थी।
अभिधम्म-बुद्ध धम्म की मौलिक विवेचनात्मक सूक्ष्मता की देशना है। इसे धरती पर सुनने वाले सबसे पहले मानव सारिपुत्र थे और समस्त मानव-जाति में वे अकेले व्यक्ति थे जिसे बुद्ध के मुख से सीधी सुनने का गौरव भी प्राप्त हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि सीधी सुनने का गौरव भी प्राप्त हैं। धरती पर अभिधम्म की ज्योति जलाने वाले पहले आचार्य सारिपुत्र थे जिन्होंने गुरु-शिष्य परम्परा द्वारा समस्त विश्व को अभिधम्म का अनुपम उपहार दिया। परम्परा के अनुसार उन्होंने सर्वप्रथम भद्दजी को अभिधम्म की शिक्षा दी जिसने कालान्तर में सोभित, पियजलि आदि के माध्यम से अशोक-पुत्र महिन्द (महेन्द्र), इत्तिय, संबल पण्डित एवं भद्दनाम के माध्यम से श्रीलंका को आलोकित किया। तत: म्यानमार, थाईलैंड आदि देशों में भी अभिधम्म-ज्योति उच्चतम प्रतिष्ठा को प्राप्त हुई। इस शिक्षा का वहाँ वही स्थान है जो इस्लामिक देशों में कुरान शरीफ का, ईसाइयों में बाईबिल का और हिन्दुओं में ॠग्वेद का हैं।
कहा जाता है कि तावलिंस लोक में परिच्छतक वृक्ष के नीचे सक्क (शक्र, इन्द्र) के आसन पर विराजमान हो तीन महीने तक अपनी माता को अभिधम्म की शिक्षा देते रहे। किन्तु हर दिन वे अपना प्रतिरुप वहाँ रख अनोत्तप सरोहर में उत्तर सारिपुत्र को वही देशना सहज स्मरणीय रुप में सुना जाते।
सारिपुत्र फिर उन्हीं देशनाओं का संगमन अपने पाँच सौ शिष्यों के साथ करते थे। तत: तीन मास में जैसे ही बुद्ध ने अभिधम्म की शिक्षा तावलिंस व अनोतय पर पूरी की तो पृथ्वी पर भी अभिधम्म की सात पुस्तकें तैयार हो गयी तथा तभी से अभिधम्म संगमन परम्परा द्वारा विश्व में जीवित रही।
सारिपुत्र के विषय में एक और कथा प्रचलित है कि एक बार वे एक चाँदनी रात में किसी खुले मैदान में समाधिस्थ थे तो उनके ऊपर से एक उड़ता हुआ यक्ष जा रहा था। उनके चमकीले व चिकने सिर पर पड़ती हुई चाँद की रोशनी से आकृष्ट हो उस यक्ष को एक शरारत सूझी और उसने उनके सिर पर एक जोर का घूँसा मारा। कहा जाता है कि वह घूँसा इतना शक्तिशाली था कि उससे एक पर्वत भी ध्वस्त हो सकता था। किन्तु सारिपुत्र की समाधि पर उस घूँसे का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। हाँ, जब वे समाधि से उठे तो उन्होंने अपने सिर पर थोड़ी पीड़ा अवश्य अनुभव की।