बुद्ध की अभिधर्म-देशना
सोगत-दर्शन या बौद्ध धर्म-दर्शन का सूक्ष्म का विस्तृत निरुपण अभिधम्म (संस्कृत अभिधर्म) दर्शन में निहित है। बुद्ध ने अभिधम्म की चर्चा सर्वप्रथम अपनी माता महामाया को की, जो उन दिनों पार्थिव शरीर त्याग तैंतीस देवों के लोक- तानतिंस लोक- में विहार कर रही थी। अभिधम्म की देशना में उन्हें तीन महीने लगे थे। प्रत्येक दिन वे अपनी माता को गूढ़ उपदेश देते और फिर पृथ्वी-लोक में उत्तर अनोत्तर सरोवर में उतर सारिपुत्र (संस्कृत शारिपुत्र) को उन्हीं देशनाओं को स्मरण-योग्य छंद-बद्ध कर पुन: सुनाते। सारिपुत्र उन छंदों का पाँच सौ विशिष्ट भिक्षुओं के साथ संगायन करते थे। वे सारे ही विशिष्ट भिक्षु अर्हत् बने। तत: अभिधम्म की गुरु-शिष्य श्रुत परम्परा का समुद्भव हुआ। अर्थात् बुद्ध ने सारिपुत्र को; सारिपुत्र ने भद्दजी को अभिदम्म-देसना दी। इस प्रकार अभिधम्म देसना भद्दजी, सोभित, पियजलि आदि से होते हुए महिन्द (महेन्द्र) सम्राट अशोक के पुत्र, इत्तिय, सम्बल, पण्डित तथा भद्दनाम के माध्यम से श्री लंका पहुँची। तत: म्यानमार, थाईलैंड, कम्बोडिया आदि देशों में अति गौरव को प्राप्त हुई जहाँ आज भी इसका इतना आदर होता है जितना हिन्दुओं के द्वारा 'ॠग्वेद' का, मुसलमानों के द्वारा 'कुरान' का तथा ईसाइयों के द्वारा 'बाईबिल' का।
अभिधम्म का अर्थ
'अभिधम्म', 'अभि' और 'धम्म' (धर्म) शब्दों के योग से बना है। जहाँ 'अभि' शब्द 'अतिरेक' या 'विशेष' का द्योतक है, तथा 'धर्म' शब्द 'यथार्थ' या 'देशना' का परिचायक है। अत: परम्परा में 'अभिधम्म' उन विशिष्ट धर्मों का परिचायक है जो निर्वाण (या परमार्थ) प्रतिमुख धर्म है; अथवा, 'प्रज्ञाण्मला सानुचरा अभिधर्म:' (अभिधर्म कोश, १.२) अथवा वह शास्र जो निर्वाण-मार्ग को प्रकाशित करता है।
पालि परम्परा में भी उपर्युक्त विवेचना की पुष्टि होती है जहाँ बुद्धघोस ने 'धम्म' शब्द को साधारण देशना अर्थात् सुत्तपिटक की देशनाओं के संग्रह के रुप में तथा अभिधम्म को अभिधम्म-पिटक में संग्रहित विशिष्ट या अतिर्क्त धम्म-देशना की सूक्ष्म विश्लेष्णात्मकता के संदर्भ में प्रयुक्त माना हैं। (देखें ऊद्वसालिनी १.२) बिल्कुल ढीली है; और न ही इतनी कसी के जीवन की वीणा ही टूट जाय।
बुद्ध ने तब उन्हें 'प्रटिच्चसमुधाद' के दर्शन की देशना दी। यह दर्शन यह दर्शाता है कि प्रत्येक सांसारिक घटना किसी अन्य घटना पर निर्भर होती है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि प्रत्येक घटना की निष्पति किसी अन्य घटना पर निर्भर है। अत: दु:ख अर्थात् वृद्धावस्था, रोग, मृत्यु आदि का होना जन्म पर निर्भर करता है; जन्म भव पर; भव उपादान (या ग्रहण करने की प्रवृत्ति) पर; वेदना सन्निकर्ष (फस्स) पर; सन्निकर्ष छ: ज्ञानेन्द्रियों पर; नाम-रुप विञ्ञाण (चित्त) पर और चित्त अज्ञान (अविद्या) पर निर्भर करता है। अत: अज्ञान ही दु:ख का मूल कारण है तथा अज्ञान नष्ट कर निर्मल चित्त का निर्माण ही धर्म चक्र प्रवर्तन का सार है। विमल चित्त का प्रादुर्भाव केवल कुशल कर्मों के व्कास से संभव है, जिनके मूल त्याग (अलोभ); प्रेम (अन्दोस) और ज्ञान (अमोह) हैं। अत: बुद्ध का धर्म के जिस चक्र को चलायमान किया हैं वे मूलत: त्याग, प्रेम और ज्ञान की शिक्षा देता है। यही चक्र भारतीय ध्वज पर भी अंकित है और भारत गणराज्य की त्याग, प्रेम और ज्ञान के प्रति की गयी वचनबद्धता का प्रतीक है। चूंकि अशोक कालीन सारनाथ के सिंह स्तम्भ पर यह चक्र उत्कीर्ण गई है, इसलिए आज इस चक्र को अशोक चक्र के नाम से जाना जाता है।
उपर्युक्त चार सिंहों का स्तम्भ जो चारों दिशाओं में सिंहनाद करते दिखाये गये हैं वस्तुत: बुद्ध की उसी धम्मचक्र-पवत्तन कथा को प्रतिध्वनित करते हैं।