धम्म चक्र-पवत्तन-कथा
सम्बोधि-प्राप्ति के पश्चात् तथा ब्रह्मसहम्पति के
अनुरोध पर गौतम बुद्ध ने 'बहुजन हिताय और बहुजन
सुखाय' हेतु धर्म-चक्र प्रवर्तन (धम्म-चक्र-पवत्तन)
अर्थात् अपने ज्ञान-देशना के चक्र को चलायमान
रखने की प्रतिज्ञा ली। तत: उन्हें सर्वप्रथम आकार कालाम की
याद आई जिन्हें उन्होंने महानिष्क्रमण के
बाद अपना पहला अल्पकालीन गुरु वरण किया था।
लेकिन दिव्य चक्षु से उन्हें ज्ञात हुआ कि आकार की
मृत्यु हो चुकी थी। तब बुद्ध ने अपने दूसरे अल्पकालीन गुरु
उद्दकराम पुत्र को पहली देशना देने की
सोची। किन्तु दिव्य चक्षु से उन्हें ज्ञात हुआ कि
उनका भी निधन हो चुका था। तब उन्होंने पाँच
संयासियों को अपनी पहली देशना देने की
सोची। ये संयासी छ: वर्षों तक बुद्ध के
साथ कठिन तप करते रहे थे किन्तु बुद्ध ने जब अति-कठिन
साधना की अनुपयुक्तता को समझ कर
सामान्य भोजन को उन्मुख हो गये तो
वे पाँच तपस्वी उन्हें छोड़ सारनाथ चले गये।
बुद्ध ने अपने उन पाँच तपस्वी साथियों को अपनी दिव्य चक्षु
से सारनाथ के इसिपतन मिगदाय (मृगों के
उद्यान) में देखा और तब वे सारनाथ के उसी
उद्यान में पहुँचे। तपस्वियों ने बुद्ध को जब वहाँ पहुँचे देखा तो उन्होंने
उनकी उपेक्षा करने की सोची। किन्तु जैसे ही
बुद्ध को उन्होंने निकट से देखा और
उनकी अनूठी प्रभा का साक्षात्कार किया तो उन्हें पर्याप्त
सम्मान दिया।
सर्वप्रथम बुद्ध ने उन्हें चार आर्य-सत्यों की
शिक्षा दी। चार आर्य-सत्य हैं:
१. दु:ख;
२. दु:ख का कारण;
३. दु:ख-निरोध;
४. दु:ख-निरोध का मार्ग, अर्थात् सम्यक् दृष्टि,
सम्यक्, संकल्प, सम्यक् वचन, सम्यक् कर्म,
सम्यक् आजीविका, सम्यक् व्यायाम (प्रयास),
सम्यक् सति (स्सृति) तथा सम्यक् समाधि।
उपर्युक्त अष्टांगिक मार्ग ही 'मध्यम मार्ग' कहलाता है क्योंकि यह जीवन-लक्ष्य प्राप्त करने के दो अतिवादी मार्गों का निराकरण करता है। इनमें से प्रथम अतिवादी मार्ग है- ऐन्द्रिक सुखों एवं भौतिकता से पूर्ण तथा दूसरा है- जीवन लक्ष्य की प्राप्ति हेतु कठिन तपस्या एवं आत्म-उत्पीड़न से युक्त।
साथ ही उन्होंने अन्योन्याश्रय उत्पत्ति (प्रतिच्चा-समुप्पाद) के सिद्धान्त को भी अपनाया। इसके अर्थ है कि संसार में सभी वस्तुएँ अन्योन्याश्रित हैं। इस परिप्रेक्ष में- यदि बुढ़ापा, बीमारी और मृत्यु आदि दु:ख हैं, तो वे जन्म पर आश्रित है। यदि जन्म ही नहीं होगा, तो कौन दु:ख भोगेगा? (यहाँ यह भी ध्यातव्य है कि मृत्यु केवल एक जन्म का ही अन्त है, दूसरा जन्म इससे भी दु:खदायी हो सकता है।) जन्म सत् (होने) पर आधारित है, सत् ग्रहण पर आधारित है, ग्रहण, वासना पर आधारित है, वासना, ससंर्ग से उत्पन्न है, संसर्ग, संपर्क से उत्पन्न है, संघर्ष, षडोन्द्रियों से उत्पन्न होता है, षडेन्द्रियाँ, देहान्त-बोध से उत्पन्न हैं, देहान्त-बोध, स्पन्दन से उत्पन्न है, स्पन्दन संस्कारों से उत्पन्न है और संस्कार, अज्ञान से उत्पन्न है। दूसरे शब्दों में, उन्होंने बताया कि अज्ञान ही सब दु:खों का मूल कारण है।
यह उपदेश सुनने के तुरन्त बाद कोन्दन्त (जिन्हें अन्नत्त-कोन्दन्न भी कहा जाता है) सोतपन्न बन गए, अन्य श्रोता भी कुद्ध के अनुयायी बन गए।
द्रष्टव्य महापरिनिब्बान सुत्त (न.१६ दीध्य निकाय)