आनन्दमठ भाग-5
इधर राजधानी की शाही राहों पर बड़ी हलचल उपस्थित हो गई। शोर मचने लगा कि नवाब के यहां से जो खजाना कलकत्ते आ रहा था, संन्यासियों ने मानकर सब छीन लिया। राजाज्ञा से सिपाही और बल्लमटेर संन्यासियों को पकड़ने के लिए छूटे। उस समय दुर्भिज्ञ-पीडि़त प्रदेश में वास्तविक संन्यासी रह ही न गए थे। कारण, वे लोग भिक्षाजीवी ठहरे, जनता स्वयं खाने को नहीं पाती तो उन्हें वह कैसे दे सकती है? अतएव जो असली संन्यासी भिक्षुक थे, वे लोग पेट की ज्वाला से व्याकुल होकर काशी-प्रयाग चले गए थे। आज ये हलचल देखकर कितनों ने ही अपना संन्यासी वेष त्याग दिया। राज्य के भूखे सैनिक, संन्यासियों को न पाकर घर-घरमें तलाशी लेकर खाने और पेट भरने लगे। केवल सत्यानन्द ने किसी तरह भी अपने गैरिक वस्त्रों का परित्याग न किया।
उसी कल्लोलवाहिनी नदी-तट पर, शाही राह के बगल में पही पेड़ के नीचे कल्याणी पड़ी हुई है। महेंद्र और सत्यानंद परस्पर अलिंगनबद्ध होकर आंसू बहाते हुए भगवन्नाम-उच्चारण में लगे हुए हैं। उसी समय एक जमादार सिपाहियों का दल लिए हुए वहां पहुंच गया। संन्यासी के गले पर एक बारगी हाथ ले जाकर जमादार बोला-यह साला संन्यासी है!
इसी तरह एक दूसरे ने महेंद्र को पकड़ा। कारण, जो संन्यासी का साथी है वह अवश्य संन्यासी होगा। तीसरा एक सैनिक घास पर पड़े हुए कल्याणी के शरीर की तरफ लपका- उसने देखा की औरत मरी हुई है, संन्यासी न होने पर भी हो सकती है। उसने उसे छोड़ दिया। बालिका को भी यही सोच कर उसने छोड़ दिया। इसके बाद उन सबने और कुछ न कहा, तुरंत बांध लिया और ले चले दोनों जन को। कल्याणी की मृत देह और कन्या बिना रक्षक के पेड़ के नीचे पड़ी रही। पहले तो शोक से अभिभूत और ईश्वर के प्रेम में उन्मत्त हुए महेंद्र प्राय: विचेतन अवस्था में थे- क्या हो रहा था, क्या हुआ- इसे वह कुछ समझ न सके। बंधन में भी उन्होंने कोई आपत्ति न की। लेकिन दो-चार कदम अग्रसर होते ही वे समझ गए कि ये सब मुझे बांध लिए जा रहे है- कल्याणी का शरीर पड़ा हुआ है, उसका अंतिम संस्कार नहीं हुआ- कन्या भी पड़ी हुई है। इस अवस्था में उन्हें हिंस्त्र पशु खा जा सकते हैं। मन में यह भाव आते ही महेंद्र के शरीर में बल आ गया और उन्होंने कलाइयों को मरोड़कर बंधन को तोड़ डाला। फिर पास में चलते जमादार को इस जोर की लात लगायी कि वह लुड़कता हुआ दस हाथ दूर चला गया। तब उन्होंने पास के एक सिपाही को उठाकर फेंका। लेकिन इसी समय पीछे के तीन सिपाहियों ने उन्हें पकड़कर फिर विवश कर दिया। इस पर दु:ख से कातर होकर महेंद्र ने संन्यासी से कहा-आप जरा भी मेरी सहायता करते, तो मैं इन पांचों दुष्टों को यमद्वार भेज देता।
सत्यानंद ने कहा-मेरे इस बूढ़े शरीर में बल ही कहां है? मैं तो जिन्हें बुला रहा हूं, उनके सिवा मेरा कोई सहारा नहीं है। जो होना है- वह होकर रहेगा, तुम विरोध न करो। हम इन पांचों को पराजित कर न सकेंगे। देखें, ये हमें कहां ले जाते हैं..... भगवान् हर जगह रक्षा करेंगे!
इसके बाद इन लोगों ने मुक्ति की फिर कोई चेष्टा न की, चुपचाप सिपाहियों के पीछे-पीछे चलने लगे। कुछ दूर जाने पर सत्यानंद ने सिपाहियों से पूछा-बाबा! मैं तो हरिनाम कह रहा था, क्या भगवान का नाम लेने में भी कोई बाधा है? जमादार समझ गया कि सत्यानंद भले आदमी हैं। उसने कहा-तुम भगवान का नाम लो, तुम्हें रोकूंगा नहीं। तुम वृद्ध ब्रह्मचारी हो, शायद तुम्हारे छुटकारे का हुक्म हो जाएगा। मगर यह बदमाश फांसी पर चढ़ेगा!
इसके बाद ब्रह्मचारी मृदु स्वर से गाने लगे-
धीर समीरे तटिनी तीरे बसति बने बनबारी।
मा कुरु धनुर्धर गमन विलम्बनमतिविधुरा सुकुमारी॥.....
इत्यादि।
नगर में पहुंचने पर वे लोग कोतवाल के समीप उपस्थित किए गए। कोतवाल ने नवाब के पास इत्तिला भेजकर संप्रति उन्हें फाटक के पास की हवालात में रखा। वह कारागार अति भयानक था, जो उसमें जाता था, प्राय: बाहर नहीं निकलता था, क्योंकि कोई विचार करने वाला ही न था। वह अंग्रेजों के जेलखाना नहीं था और न उस समय अंग्रेजों के हाथ में न्याय था। आज कानूनों का युग है- उस समय अनियम के दिन थे। कानून के युग से जरा तुलना तो करो!
रात हो गई। कारागार में कैद सत्यानंद ने महेंद्र से कहा-आज बड़े आनंद का दिन है। कारण, हम लोग कारागार में कैद है। कहो-हरे मुरारे!
महेंद्र ने बड़े कातर स्वर में कहा-हरे मुरारे!
सत्यानंद-कातर क्यों होते हो, बेटे! तुम्हारे इस महाव्रत को ग्रहण करने पर तुम्हें स्त्री-कन्या का त्याग तो करना ही पड़ता, फिर तो कोई संबंध रह न जाता।.....
महेंद्र-त्याग एक बात है, यमदण्ड दूसरी बात! जिस शक्ति के सहारे मैं यह व्रत ग्रहण करता, वह शक्ति मेरी स्त्री-कन्या के साथ ही चली गई।
सत्यानंद-शक्ति आएगी- मैं शक्ति हूं! महामंत्र से दीक्षित होओ, महाव्रत ग्रहण करो। महेंद्र ने विरक्त होकर कहा-मेरी स्त्री और कन्या को स्यार और कुत्ते खाते होंगे- मुझसे किसी व्रत की बात न कहिए!
सत्यानंद-इस बारे में चिंता मत करो! संतानों ने तुम्हारी स्त्री की अन्त्येष्टि क्रिया करके तुम्हारी लड़की को उपयुक्त स्थल में रख छोड़ा है।
महेंद्र विस्मित हुए, उन्हें इस बात पर जरा भी विश्वास न हुआ। उन्होंने पूछा-आपने कैसे जाना? आप तो बराबर मेरे साथ हैं।
सत्यानंद-हम महामंत्र से दीक्षित हैं- देवता हमारे प्रति दया करते हैं। आज रात को तुम यह संवाद सुनोगे और आज ही तुम कैदखाने से छूट भी जाओगे।
महेंद्र कुछ न बोला। सत्यानंद ने समझ लिया कि महेंद्र को मेरी बातों का विश्वास नहीं होता। तब सत्यानंद बोले-तुम्हें विश्वास नहीं होता? परीक्षा करके देखो! यह कहकर सत्यानंद कारागार के द्वार तक आए। क्या किया, यह महेंद्र को कुछ मालूम न हुआ, पर यह जान गए कि उन्होंने किसी से बातचीत की है। उनके लौट आने पर महेंद्र ने पूछा-क्या परीक्षा करूं?
सत्यानंद-तुम अभी कारागार से मुक्ति-लाभ करोगे?
उसके यह बात कहते-कहते कारागार का दरवाजा खुल गया। एक व्यक्ति ने घर के भीतर आकर कहा-महेंद्र किसका नाम है?
महेंद्र ने उत्तर दिया-मेरा नाम है।
आगंतुक ने कहा-तुम्हारी रिहाई का हुक्म हुआ है, तुम जा सकते हो।
महेंद्र पहले तो आश्चर्य में आए। फिर सोचा, झूठी बात है। अत: परीक्षार्थ वे बाहर आए। किसी ने उनकी राह न रोकी। महेंद्र शाही सड़क तक चले गए।
इस अवसर पर आगन्तुक ने सत्यानंद से कहा-महाराज! आप क्यों नहीं जाते? मैं आपके लिए ही आया हूं।
सत्यानंद-तुम कौन हो? गोस्वामी धीरानंद?
धीरानंद -जी हां!
सत्यानंद-प्रहरी कैसे बने?
धीरानंद-भवानन्द ने मुझे भेजा है। मैं नगर में आने के बाद और यह सुनकर कि आप इस कारागार में हैं, अपने साथ धतूरा मिली थोड़ी विजया ले आया था। यहां पहरे पर जो खां साहब थे, वह उसके नशे में जमीन पर पड़े सो रहे हैं। यह जमा-जोड़ा, पकड़ी, भाला जो कुछ मैंने पाया है, यह सब उन्हीं का है।
सत्यानंद-तुम यह सब पहले हुए नगर के बार चले आओ। मैं इस तरह न आऊंगा।
धीरानंद-लेकिन...ऐसा क्यों?
सत्यानंद-आज सन्तान की परीक्षा है।
महेंद्र वापस आ गए। सत्यानंद ने पूछा-वापस क्यों आ गए?
महेंद्र-आप निश्चय ही सिद्ध पुरुष हैं। लेकिन मैं आपका साथ छोड़कर न आऊंगा।
सत्यानंद-ठीक है! हम दोनों ही आज रात दूसरी तरह से बाहर होंगे।
धीरानंद बाहर चले गए। सत्यानंद और महेंद्र कारागार में ही रहे।
जीवानंद बोले-जानती है, आदमियों का शिकार करना ही मेरा काम है। मैंने अनेक आदमियों का शिकार किया है।
अब निमी भी क्रोध में आई। बोली-खूब किया! अपनी पत्नी का त्याग कर दिया और आदमियों की जान ली। क्या समझते हो, इससे मैं मान जाऊंगी? बहुत करोगे मारोगे, लेकिन मैं डरनेवाली नहीं हूं! तुम जिस बाप के लड़के हो, मैं भी उसी बाप की लड़की हूं। आदमियों का खून करने में यदि बड़ाई की बात हो, तो मुझे भी मारकर बड़ाई प्राप्त करो।
जीवानंद हंसकर बोले-अच्छा बुला ला- किस पापिनी को बुलाएगी-जा बुला! लेकिन देख आज के बाद कहेगी तो उस साले के भाई व साले को सिर मुंड़ाकर गदहे पर चढ़ाकर गांव के बाहर निकलवा दूंगा।
निमी ने मन ही मन सोचा-हुई न मेरी जीत यह सोचती हुई वह घर के बाहर निकल गई। इसके बाद पास ही एक झोंपड़ों में वह जा घुसी। कुटी में सैकड़ों पैबन्द लगे हुए कपड़े पहने, रुक्ष-केशी एक युवती बैठी चरखा कात रही थी। निमाई ने जाकर कहा-भाभी! जल्दी करो। भाभी ने कहा-जल्दी क्या? नन्दोई ने तुझे मारा है, तो उनके सर में तेल मलना है क्या?
निमी-बात ठीक है। घर में तेल है?
उस युवती ने तेल की शीशी सामने खिसका दी। निमाई ने झट अंजली में ऊंड़ेलकर उस युवती के रूखे बालों में लग दिया। इसके बाद झट जूड़ा बांध दिया। फिर चपत जमाकर बोली-तेरी ढाके-वाली साड़ी कहां रखी है, बोल? उस स्त्री ने कुछ आश्चर्य से कहा-क्यों जी! कुछ पागल हो गई हो क्या?
निमाई ने एक मीठा घूंसा जमाकर कहा-निकाल साड़ी जल्दी!
तमाशा देखने के लिए युवती ने भी साड़ी बाहर निकाल दी। तमाशा देखने के लिए क्योंकि इतनी तकलीफ पड़ने के बाद भी उसका सदा प्रफुल्ल रहनेवाला हृदय अभी भी वैसा ही था। नवयोवन-फूले कमल-जैसा उसकी नई उम्र का यौवन-तेल नहीं, सजावट नहीं, आहार नहीं, फिर भी उसी मैली पैबन्दवाली धोती के अंदर से भी वह प्रदीप्त, अनुपमेय सौन्दर्य फूट पड़ता था। वर्ण में छायालोक की चंचलता, नयनों में कटाक्ष, अधरों पर हंसी, हृदय में धैर्य- मेघ में जैसे बिजली, जैसे हृदय में प्रतिमा, जैसे जगत के शब्दों में संगीत और भक्त के मन में आनंद होता है, वैसे ही उस रूप में भी कुछ अनिर्वचनीय गौरव भाग, अनिर्वचनीय प्रेम, अनिर्वचनीय भक्ति। उसने हंसते-हंसते (लेकिन उस हंसी को किसी ने देखा नहीं) साड़ी निकाल दी। बोली-निमी! भला बात तो, क्या होगी।
निमी बोली-दादा आये हैं। तुझे बुलाया है।
उसने कहा-अगर मुझे बुलाया है तो साड़ी क्या होगी? चल इसी तरह चलूंगी। युवती कहती जाती थी-कभी कपड़े न बदलूंगी। चल, इसी तरह मिलना होगा। आखिर किसी तरह भी उसने कपड़े बदले नहीं। अंत में दोनों कुटी के बाहर आई। निमाई को भी राजी होना पड़ा। निमाई भाभी को लेकर अपने घर के दरवाजे तक आ गई। इसके बाद भाभी को अंदर का उसने दरवाजा बंद कर लिया और स्वयं बाहर खड़ी रही।
ब्रह्मचारी का गाना बहुतों ने सुना। और लोगों के साथ जीवानंद के कानों में भी वह गाना पहुंचा।
महेंद्र की रक्षा में रहने का उन्हें आदेश मिला था- यह पाठकों को शायद याद होगा। राह में एक स्त्री से मुलाकात हो गई। सात दिनों से उसने खाया न था, राह-किनारे पड़ी थी। उसे जीवन-दान देने में जीवानंद को एक घंटे की देर लग गई। स्त्री को बचाकर, विलम्ब होने के कारण उसे गालियां देते हुए जीवानंद आ रहे थे। देखा, प्रभु को मुसलमान पकड़े लिए जाते हैं- स्वामीजी गाना गाते हुए चले आ रहे हैं।
\स्धीर समीरे तटिनी तीरे बसति बने बनबारी।.....
जीवानंद महाप्रभु स्वामी के सारे संकेतों को समझते थे।
नदी के किनारे कोई दूसरी स्त्री बिना खाए-पीए तो नहीं पड़ी हुई है? सोच-विचार जीवानंद नदी के किनारे चले। जीवानंद ने देखा था कि ब्रह्मचारी मुसलमानों द्वारा स्वयं गिरफ्तार होकर चले जा रहे हैं। अत: ब्रह्मचारी का उद्धार करना ही जीवानंद का पहला कर्त्तव्य था, लेकिन जीवानंद ने सोचा-इस संकेत का तो अर्थ नहीं है। उनकी जीवनरक्षा से भी बढ़कर है, उनकी आज्ञा का पालन- यही उनकी पहली शिक्षा है। अत: उनकी आज्ञा ही पालन करूंगा।
नदी के किनारे किनारे जीवननंद चले। जाते-जाते उसी पेड़ के नीचे नदी-तट पर देखा कि एक स्त्री की मृतदेह पड़ी हुई है और एक जीवित कन्या उसके पास है। पाठकों को स्मरण होगा कि महेंद्र की स्त्री-कन्या को जीवानंद ने एक बार भी नहीं देखा था। उन्होंने मन में सोचा- हो सकता है, यही महेंद्र की स्त्री-कन्या हो! क्योंकि प्रभु के साथ ही उन्होंने महेंद्र को देखा था। जो हो, माता मृत और कन्या जीवित है। पहले इनकी रक्षा का प्रयास ही करना चाहिए- अन्यथा बाघ-भालू खा जाएंगे। भवानंद स्वामी भी कहीं पास ही होंगे, वह स्त्री का अंतिम संस्कार करेंगे- यह सोचकर जीवानंद कन्या को गोद में लेकर चल दिए।
लड़की को गोद में लेकर जीवानंद गोस्वामी उसी जंगल में घुसे। जंगल पार कर वे एक छोटे गांव भैरवीपुर में पहुंचे। अब लोग उसे भरूईपुर कहते हैं। भरूईपुर में थोड़े-से सामान्य लोगों की बसती है। पास में और कोई बड़ा गांव भी नहीं है। गांव पार करते ही फिर जंगल मिलता है। चारों तरफ जंगल और बीच में वह छोटा गांव है। लेकिन गांव है। बड़ा सुंदर। कोमल तृण से भरी हुई गोचर भूमि है, कोमल श्यामल पल्लवयुक्त आम, कटहल, जामुन, ताड़ आदि के बगीचे हैं। बीच में नील-स्वच्छ जल से परिपूर्ण तालाब है। जल में बक, हंस, डाहुक आदि पक्षी, तट पर पपीहा, कोयल, चक्रवाक है, कुछ दूर पर मोर पंख फैलाकर नाच रहे हैं। घर-घर के आंगन में गाय, बछड़े, बैल हैं। लेकिन आजकल गांव में धान नहीं है। किसी के दरवाजे पर पिंजड़े में तोता है, तो किसी के यहां मैना। भूमि लिपी-पोती स्वच्छ है। मनुष्य प्राय: सभी दुर्भिक्ष के कारण दुर्बल, कलांत और मलीन दिखाई देते हैं, फिर भी ग्रामवासियों में श्री है। जंगल में अनेक तरह के जंगली खाद्य पैदा होते हैं। अत: गांव के लोग वहां से फल-फूल लाते हैं और वही खाकर इस दुर्भिक्ष में भी अपने प्राण बचाए हुए हैं।
एक बड़े आम के बगीचे के बीच एक छोटा-सा घर है। चारों तरफ मिट्टी की चहारदीवारी है और चारों कोनों पर एक-एक कमरा है। गृहस्थ के पास गौ-बकरी है, एक मोर है, एक मैना है, एक तोता है। एक बंदर भी था, लेकिन उसे खाना न मिलने के कारण छोड़ दिया गया है। धान कू टने की एक ढेंकी है। बाहर बैल बंधे हैं, बगल में नींबू का पेड़ है। मालती जूही की लताएं हैं- अर्थात् गृहस्थ सुरुचि-सम्पन्न है। लेकिन घर में प्राणी अधिक नहीं है। जीवानंद कन्या को लिए हुए घर में चले गए।
निमी कन्या को गोद में लिए हुए खाना परोसने में व्यस्त हो गई। पहले उसने जगह पानी से धो-पोंछ दी इसके बाद पीढ़ा-पानी रखकर एक थाली में भात, अरहर की दाल, परवल की तरकारी, रोहू मछली का रसा और दूध लाकर रख दिया। खाने के लिए बैठकर जीवानंद ने कहा-निमाई बहन! कौन कहता है कि देश में अकाल है? तेरे गांव में शायद अकाल घुसा ही नहीं!
निमी बोली-भला अकाल क्यों न होगा- भयंकर अकाल है! हमलोग दो ही प्राणी तो हैं, बहुत कुछ है, दे-दिलाकर भी भगवान एक मुट्ठी चना ही देते हैं। हमलोगों के गांव में पानी बरसा था- याद नहीं है- तुम्हीं तो कह गए थे कि वन में पानी बरस रहा है, यहां भी बरसेगा! इसलिए हमारे गांव में धान हो गया। गांववाले और लोग तो शहर में चावल बेच आए, हमलोगों ने नहीं बेचा।
जीवानंद ने पूछा-जीजाजी कहां हैं?
निमी ने गर्दन टेढ़ी कर कहा-दो-तीन सेर चावल बांधकर क्या जाने किसको देने गए हैं। किसी ने चावल मांगा था।
इधर जीवानंद के भाग्य में ऐसा भोजन कभी मिला न था। व्यर्थ बातचीत में समय न गंवाकर जीवानंद दनादन गपागप-सपासप आवाज करते हुए क्षण भर में सारा भोजन उदरस्थ कर गए। श्रीमती निमाई मणि ने केवल अपने और पति के लिए पकाया था, अपना हिस्सा उसने भाई को खिला दिया था, थाली सूनी देखकर शर्म से अपने पति का हिस्सा लाकर थाली में डाल दिया। जीवानंद ने सब ख्याल छोड़कर उस स्वादिष्ट भोजन को भी उदर नामक महागर्त में भर लिया। अब निमाई ने पूछा-दादा! और कुछ खाओगे?
जीवानंद ने डकार लेते हुए कहा-और क्या है?
निमाई बोली-एक पक्का कटहल है।
निमाई ने कटहल भी ला रखा। विशेष कोई आपत्ति न कर जीवानंद गोस्वामी ने उसे भी ध्वंसपुर भेज दिया। अब हंसकर निमाई ने पूछा-दादा! और कुछ नहीं?
दादा ने कहा-अब रहने दे फिर किसी दिन आकर खाऊंगा।
अंत में निमाई ने दादा को हाथ-मुंह धोने को पानी दिया। जल ढालते हुए निमाई ने पूछा-दादा! मेरी एक बात रख लोगे?
जीवानंद-क्या?
निमाई-तुम्हें मेरी कसम!
जीवानंद-अरे बोल न कलमुंही
निमाई-बात रक्खोगे?
जीवानंद-अरे पहले बता भी तो सही।
निमाई-तुम्हें मेरी कसम, हाथ जोड़ती हूं।
जीवानंद-अरे बाबा मंजूर है! बता तो सही, क्या कहती है?
अब निमाई गर्दन टेढ़ी कर एक हाथ से दूसरे हाथ की ऊंगली तोड़ती हुई, शर्माती हुई, कभी नीचे जमीन देखती हुई बोली- एक बार भाभी को बुला दूं, मुलाकात कर लो।
जीवानंद ने हाथ धुलाने वाले लोटे को निमी पर मारने के लिए उठाया, फिर बोले-लौटा दे, मेरी लड़की! तेरा अन भी किसी दिन वापस कर जाऊंगा। तू बंदरी है, कलमुंही है। तुझे जो बात न कहनी चाहिए, वही बात मेरे सामने कहती है।
निमी बोली-अच्छा मैं ऐसी ही सही पर भैया! एक बार कह दो, मैं भाभी को बुला लाऊं।
जीवानंद-तो लो मैं जाता हूं।
यह कहकर जीवानंद उठकर द्वार की तरफ बढ़े। किंतु शीघ्रता-पूर्वक निमाई ने दौड़कर किवाड़ बंद कर दिए और स्वयं किवाड़ से लगकर खड़ी हो गई। बोली-मुझे मारकर ही बाहर जा सकते हो, भैया! आज भाभी से बिना मुलाकात किए जाने न पाओगे।
उस स्त्री की उम्र यही कोई पच्चीस वर्ष के लगभग है, लेकिन देखने में निमाई से अधिक उम्र की नहीं जान पड़ती। मैले पैबंद की धोती पहनकर भी, जब वह घर में घुसी तो जान पड़ा कि जैसे घर में उजाला हो गया। जान पड़ा, जैसे बहुतेरी कलियों का गुच्छा पत्तों से ढंका रहने पर भी, पत्ते हटते ही खिल उठा हो मानो गुलाब-जल की शीशी एकाएक मुंह खुल जाने से महक गयी हो-सुलगतीे हुई आग में जैसे किसी ने धूप-धूना छोड़ दिया हो और कमरे का वातावरण ही बदल जाए। पहले तो घर में घुसकर स्त्री ने पति को देखा नहीं, फिर एकाएक निगाह पड़ी कि आंगन में लगे छोटे आम के नीचे खड़े होकर जीवानंद रो रहे हैं। सुंदरी ने धीर-धीरे उनके पास पहुंचकर उनका हाथ पकड़ लिया। यह कहना भूल गया कि उनकी आंखों में जल नहीं आया। भगवान ही जानते हैं कि उसकी आंखों से आंसू की वह धारा निकलती कि शायद जीवानंद उसमें डूब जाते। लेकिन युवती ने अपनी आंखों में आंसू नहीं आने दिए। जीवानंद का हाथ पकड़कर उसने कहा-छि:! छि:! रोते क्यों हो? मैं समझी कि तुम मेरे लिए रोते हो। मेरे लिए न रोना! तुमने मुझे जिस तरह रखा है, मैं उसी में सुखी हूं।
जीवानंद ने माथ उठाकर आंसू पोंछते हुए स्त्री से पूछा-शंति! तुम्हारे शरीर पर यह सैकड़ों पैबन्द की धोती क्यों है? तुम्हें तो खाने-पहनने की कोई तकलीफ नहीं है! शांति ने कहा-तुम्हारा धन तुम्हारे ही लिए है? रुपये लेकर क्या करना चाहिए, मैं नहीं जानती। जब तुम आओगे- जब तुम मुझे ग्रहण करोगे... जीवानंद-ग्रहण करूंगा-शांति! मैंने क्या तुम्हें त्याग दिया है? शांति-त्याग नहीं, जब तुम्हारा व्रत पूरा होगा, जब तुम फिर मुझे प्यार करोगे.... बात समाप्त होने के पहले ही जीवानंद ने शांति के छाती से लगा लिया और उसके कंधों पर माथा रख बहुत देर तक चुप रहे। इसके बाद एक ठंडी सांस लेकर बोले-क्यों मुलाकात की?
शांति -क्या तुम्हारा व्रत भंग हो गया?
जीवानंद-हो व्रत भंग, उसका प्रायश्चित भी है। उसके लिए शोक नहीं है। लेकिन तुम्हें देखकर तो फिर लौटते नहीं बन पड़ता। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष और सारा संसार, व्रत-होम, योग-यज्ञ यह सब एक तरफ है और दूसरी तरफ तुम हो। मैं किसी तरह भी समझ नहीं पाता हूं कि कौन-सा पलड़ा भारी है? देश तो अशांत है, मैं देश लेकर क्या करूंगा। तुम्हारे साथ एक बीघा भूमि लेकर भी बड़े आनंद से मेरा जीवन बीत सकता है। तुम्हें लेकर मैं स्वर्ग गढ़ सकता हूं। क्या करना है मुझे देश लेकर? देश की उस संतान का अभाग्य है जो तुम्हारी जैसी गृहलक्ष्मी प्राप्त कर भी सुखी हो न सके। मुझसे बढ़कर देश में कौन दु:खी होगा? तुम्हारे शरीर पर ऐसा कपड़ा देखकर मुझे लोग देश में सबसे दरिद्र ही समझेंगे। मेरे सारे धर्मो की सहायता तो तुम हो उसके सामने फिर सनातन-धर्म क्या है? मैं किस धर्म के लिए देश-देश, वन-वन बंदूक कंधे पर लेकर प्राणी-हत्या कर इस पाप का भार संग्रह करूं? पृथ्वी संतानों की होगी या नहीं, कौन जानता है? लेकिन तुम मेरी हो- तुम पृथ्वी से भी बड़ी हो- तुम्हीं मेरा स्वर्ग हो। चलो घर चलें, अब वापस न जाऊंगा!
शांति कुछ देर तक बोल न सकी। इसके बाद बोली-छी:! तुम वीर हो-मुझे इस पृथ्वी पर सबसे बड़ा सुख यही है कि मैं वीर-पत्नी हूं! तुम अधम स्त्री के लिए वीर-धर्म का परित्याग करोगे? तुम अपने वीर-धर्म का कभी परित्याग न करना! देखो मुझे एक बात बताते जाओ, इस व्रत के भंग का प्रायश्चित क्या है?
जीवानंद ने कहा-प्रायश्चित है-दान, उपवास-12 कानी कौडि़यां।
शांति मुस्कराई और बोली-जो प्रायश्चित हैं मैं जानती हूं। लेकिन एक अपराध पर जो प्रायश्चित है- वही क्या शत अपराधों पर भी है?
जीवानंद ने विस्मित और विवश होकर कहा-लेकिन यह सब क्यों पूछती हो?
शांति-एक भिक्षा है। कहो- मेरे साथ बिना मुलाकात किए प्रायश्चित न करोगे!
जीवानंद हंसकर कहा-इस बारे में निश्चित रहो- बिना तुम्हें देखे, मैं न मरूंगा। मरने की ऐसी कोई जल्दी भी नहीं है। अब मैं अधिक यहां न ठहरूंगा, लेकिन आंख भरकर तुम्हें देख न सका। फिर भी एक दिन अवश्य देखूंगा। एक दिन हम लोगों के मन की कामना जरूर पूरी होगी! मैं अब चला तुम मेरे एक अनुरोध की रक्षा करना- इस वेश-भूषा का त्याग कर दो। मेरे पैतृक मकान में जाकर रहो।
शांति ने पूछा-इस समय कहां जाओगे?
जीवानंद-इस समय मठ में ब्रह्मचारीजी की खोज में जाऊंगा। वे जिस भाव से नगर गए हैं, उससे कुछ चिंता होती है। मठ में मुलाकात न हुई तो नगर जाऊंगा।
घर में पहुंचते ही जीवानंद ने आंगन के ओसरे में रखे को उठा लिया और भनन्-भनन् उसे चलाने लगे। छोटी लड़की ने चरखे की आवाज कभी सुनी न थी। विशेषत: माता के छूटने के बाद से वह रो रही थी। चरखे की आवाज सुनकर वह भयभीत हो और सप्तम स्वर में गला ऊंचा कर रोने लगी। रोने की आवाज सुनकर एक कमरे से सत्रह-अठारह वर्ष की युवती बाहर आई। युवती बाएं बाएं हाथ पर बायां गाल रखे, गर्दन झुकाए ही खड़ी होकर देखने लगी। बोली-यह क्या दादा! चरखा क्यों कात रहे हो? यह लड़की कहां से पायी दादा? तुम्हें लड़की हुई है क्या? दूसरी शादी की है क्या?
जीवानंद उठे और लड़की को उसकी गोद में देकर चपत मारते चले। बोले-बंदरी कहीं की! मुझे रंडुआ-भंडुआ समझ लिया है क्या? घर में दुध है?
इस पर युवती ने कहा-भला दूध क्यों न होगा? आऊं पियोगे
जीवानंद ने कहा-हां पिऊंगा!
व्यवस्त होकर युवती घर में दूध गरम करने लगी। तब तक जीवानंद बैठकर चरखा कातने लगे। लड़की ने युवती की गोद में जाकर रोना बंद कर दिया था। उसने क्या समझा, नहीं कहा जा सकता। शायद इस युवती को खिले पुष्प देखकर सोचा हे, कि यही मेरी मां है। वह केवल एक बार रोई, वह भी शायद आग की आंच खाकर। लड़की का रोना सुनकर जीवानंद ने आवाज लगाई-अरे निमी! अरी कलमुहीं बंदरी! तेरा दूध गरम नहीं हुआ क्या? उसने भी कहा-हो गया। यह कहकर वह एक पथरी में दूध ढालकर जीवानंद के पास लाकर रख बैठ गई। जीवानंद ने बनावटी क्रोध दिखाकर कहा-मन करता है, यही गरम दूध की पथरी तेरे ऊपर उंडेल दूं। तूने क्या समझा कि मैं पियूंगा?
निमी ने पूछा-तब कौन पिएगा?
जीवानंद-यह लड़की पिएगी। देखती नहीं, अभी दूध पीनेवाली निरी बच्ची है!
यह सुनकर निमी पलथी मारकर कन्या को गोद में लेकर चम्मच से दूध पिलाने बैठी। एकाएक उसकी आंखों से कई बूंद आंसू लुढ़क पड़े। बात यह थी कि उसे पहले एक बालक हुआ था, जो मर गया था। उसे इस तरह दूध पिलाने में अपने बच्चे की याद आ गई।
निमी ने तुरंत अपने आंसू पोंछकर हंसते-हंसते जीवानंद से पूछा-हैं दादा! बताओ, यह किसकी लड़की है?
जीवानंद ने कहा-अरी बंदरी! तुझे क्या पड़ी है?
निमी ने कहा-लड़की मुझे दोगे?
जीवानंद-तू लेकर क्या करेगी?
निमी-मैं लड़की को दूध पिलाऊंगी, गोद में लेकर खिलाऊंगी, बड़ी करूंगी।
कहते-कहते निमी की आंखों से आंसू ढुलक पड़े। आंसू पोंछकर वह फिर दांत निकालकर हंसने लगी। जीवानंद ने कहा-तू लेकर क्या करोगी? तुझे आप ही कितने बाल-बच्चे होंगे।
निमी-जब होंगे तब होंगे। अभी इस लड़की को मुझे दे दो! न हो, बाद में फिर ले जाना।
जीवानंद-तो ले ले, लेकर मर! मैं बीच-बीच में आकर देख जाया करूंगा। यह कायस्थ की लड़की है। मैं अब चला..।
निमी-वाह दादा! भला खाओगे नहीं? समय हो गया, तुम्हें मेरी कसम, खाकर तब जाना।
जीवानंद-तेरी कसम टालकर तुझे खाऊं, या भात खाऊं! फिर बोले-रहने दे, तुझे न खाऊंगा, भात ही खाऊंगा, ला भात!
भवानंद मठ में बैठे हुए हरिगान में तल्लीन थे, ऐसे ही समय दु:खी चेहरे से ज्ञानानन्द नामक एक तेजस्वी संतान उनके पास आ पहुंचे। भवानंद ने कहा-गोस्वामी! चेहरा इतना उतरा हुआ क्यों है?
ज्ञानानंद ने कहा-कुछ गड़बड़ी जान पड़ती है। कल के कांड से सरकारी आदमी जिसे हल्दी-गेरुआ वस्त्रधारी देखते हैं, उसे गिरफ्तार कर लेते हैं। करीब-करीब सभी संतानों ने आज अपना गैरिक वस्त्र उतार दिया है। केवल सत्यानंद प्रभु गेरुवा पहने हुए ही शहर की तरफ गए हैं। कौन जाने कहीं मुसलमानों के हथ पड़ जाए! भवानंद बोले-उन्हें बंदी कर रखे, बंगाल में अभी ऐसा कोई मुसलमान नहीं है। मैं जानता हूं, धीरानंद उसके पीछे-पीछे गए हैं। फिर भी मैं एक बार नगर घूमने जाता हूं, मठ की रक्षा तुम्हें सौंप जाता हूं।
यह कहकर भवानंद स्वामी ने एक अलग कोठरी में जाकर कितने ही तरह के कपड़े निकाले। भवानंद जब उस कोठरी से निकले तो उन्हें पहचानना कठिन था। गेरुआ वस्त्रों के बदले इनके पैरों में चूड़ीदार पायजामा, शरीर पर अचकन, माथे पर कंगूरेदार पगड़ी और पैरों में नागौरी जूता था। अब उनके ललाट पर का चंदन-त्रिपुण्ड साफ हो गया था, उनका चेहरा अपूर्व शोभा पा रहा था। उन्हें देखने से किसी पठान जातीय मुसलमान का ही भान होता था। इस तरह से सशस्त्र होकर भवानंद मठ के बाहर हुए। मठ के कोई एक कोस उत्तर दो छोटी पहाडि़यां बगल-बगल में थीं। पहाड़ी जंगल से भरी हुई थी। वहीं एक निर्जन स्थान में संस्थानों की अश्वशाला थी। भवानंद ने वहां से एक घोड़ा निकाला और जीन आदि कसवाकर उस पर सवार हो, सीधे राजधानी की तरफ चल पड़े।
जाते-जाते एकाएक उनकी गति में बधा पड़ी। उसी राह की बगल में नदी के किनारे वृक्ष के नीचे उन्होंने आकाश से गिरी बिजली की तरह दीप्तिमान एक स्त्री को पड़ी हुई देखा। उन्होंने देखा, उसमें जीवन के कोई लक्षण दिखाई नहीं पड़ते- विष की खाली डिबिया पास में पड़ी हुई है। भवानंद विस्मित, क्षुब्ध और भीत हुए। जीवानंद की तरह भवानंद ने भी महेंद्र की स्त्री-कन्या हो सकती है, भवानंद के सामने संदेह के लिए वे कारण भी न थे- उन्होंने ब्रह्मचारी और महेंद्र को बंदी रूप में ले जाते भी देखा न था। कन्या भी वहां न थी। केवल डिबिया देखकर उन्होंने समझा कि इस स्त्री ने विष खाकर आत्म-हत्या की है। भवानंद उस शव के पास बैठ गए, बैठकर उसके माथे पर हाथ रखकर बहुत देर तक परीक्षा करते रहे। नाड़ी-परीक्षा, हृदय-परीक्षा आदि अनेक प्रकार से और दूसरे अपरिज्ञात तरीकों से परीक्षा कर मन-ही-मन कहा-अभी मरी नहीं है-अभी भी समय है- बचाई जा सकती है। लेकिन बचाकर करना भी क्या है? इस तरह कुछ क्षण तक विचार करते रहे और इसके बाद वे उठकर एकाएक वन के अंदर चले गए। वहां से वे एक लता की थोड़ी पत्ती तोड़ लाए। उसी पत्ती को हथेली पर मसलकर उन्होंने रस निकाला और अंगुलियों से दांत खोल रस को मुंह में टपकाया कान में डाला और थोड़ा मस्तक पर मल दिया। इसके बाद थोड़ा रस उन्होंने नाक में भी डाल दिया। इसी तरह उन्होंने बार-बार किया और बीच-बीच में नाक के पास हाथ ले जाकर देखते जाते थे कि कुछ श्वास चली या नहीं। पहले- पहल तो भवानंद को निराशा होने लगी, लेकिन इसके बाद उनका मुंह प्रसन्नता से खिल उठा- अंगुली में निश्वास की हलकी अनुभूति हुई। उत्साहित हो उन्होंने बारम्बार वही प्रक्रिया की, अब श्वास मजे में आने-जाने लगी। नाड़ी देखी चल रही थी। इसके बाद ही क्रमश: प्रभात-कालीन अरुणोदय की तरह, प्रभात के समय कमल खिलने की तरह, प्रथम प्रेमानुभव की तरह कल्याणी अपनी आंखें खोलने लगी। यह देखकर भवानंद ने कल्याणी के अर्धजीवित शरीर को घोड़े पर रखा और स्वयं पैदल ही नगर की तरफ निकल गए।