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आनन्दमठ भाग-4

सबेरा हो गया है। वह जनहीन कानन अब तक अंधकारमय और शब्दहीन था। अब आलोकमय प्रात: काल में आनंदमय कानन के आनंद-मठ सत्यानंद स्वामी मृगचर्म पर बैठे हुए संध्या कर रहे है। पास में भी जीवानंद बैठे हैं। ऐसे ही समय महेंद्र को साथ में लिए हुए स्वामी भवानंद वहां उपस्थित हुए। ब्रह्मचारी चुपचाप संध्या में तल्लीन रहे, किसी को कुछ बोलने का साहस न हुआ। इसके बाद संध्या समाप्त हो जाने पर भवानंद और जीवानंद दोनों ने उठकर उनके चरणों में प्रणाम किया, पदधूलि ग्रहण करने के बाद दोनों बैठ गए। सत्यानंद इसी समय भवानंद को इशारे से बाहर बुला ले गए। हम नहीं जानते कि उन लोगों में क्या बातें हुई। कुछ देर बाद उन दोनों के मंदिर में लौट आने पर मंद-मंद मुसकाते हुए ब्रह्मचारी ने महेंद्र से कहा-बेटा! मैं तुम्हारे दु:ख से बहुत दु:खी हूं। केवल उन्हीं दीनबंधु प्रभु की ही कृपा से कल रात तुम्हारी स्त्री और कन्या को किसी तरह बचा सका। यह उन्हीं ब्रह्मचारी ने कल्याणी की रक्षा का सारा वृत्तांत सुना दिया। इसके बाद उन्होंने कहा-चलो वे लोग जहां हैं वहीं तुम्हें ले चलें!

यह कहकर ब्रह्मचारी आगे-आगे और महेंद्र पीछे देवालय के अंदर घुसे। प्रवेश कर महेंद्र ने देखा- बड़ा ही लंबा चौड़ा और ऊंचा कमरा है। इस अरुणोदय काल में जबकि बाहर का जंगल सूर्य के प्रकाश में हीरों के समान चमक रहा है, उस समय भी इस कमरे में प्राय: अंधकार है। घर के अंदर क्या है- पहले तो महेंद्र यह देख न सके, किंतु कुछ देर बाद देखते-देखते उन्हें दिखाई दिया कि एक विराट चतुर्भुज मूर्ति है, शंख-चक्र-गदा-पद्यधारी, कौस्तुभमणि हृदय पर धारण किए, सामने घूमता सुदर्शनचक्र लिए स्थापित है। मधुकैटभ जैसी दो विशाल छिन्नमस्तक मूर्तियां खून से लथपथ सी चित्रित सामने पड़ी है। बाएं लक्ष्मी आलुलायित-कुंतला शतदल-मालामण्डिता, भयत्रस्त की तरह खड़ी हैं। दाहिने सरस्वती पुस्तक, वीणा और मूर्तिमयी राग-रागिनी आदि से घिरी हुई स्तवन कर रही है। विष्णु की गोद में एक मोहिनी मूर्ति-लक्ष्मी और सरस्वती से अधिक सुंदरी, उनसे भी अधिक ऐश्वर्यमयी- अंकित है। गंधर्व, किन्नर, यक्ष, राक्षसगण उनकी पूजा कर रहे हैं। ब्रह्मचारी ने अतीव गंभीर, अतीव मधुर स्वर में महेंद्र से पूछा-सब कुछ देख रहे हो?

महेंद्र ने उत्तर दिया-देख रहा हूं

ब्रह्मचारी-विष्णु की गोद में कौन हैं, देखते हो?

महेंद्र-देखा, कौन हैं वह?

ब्रह्मचारी -मां!

महेंद्र -यह मां कौन है?

ब्रह्मचारी ने उत्तर दिया -हम जिनकी संतान हैं।

महेंद्र -कौन है वह?

ब्रह्मचारी -समय पर पहचान जाओगे। बोलो, वंदे मातरम्! अब चलो, आगे चलो!

ब्रह्मचारी अब महेंद्र को एक दूसरे कमरे में ले गए। वहां जाकर महेंद्र ने देखा- एक अद्भुत शोभा-संपन्न, सर्वाभरणभूषित जगद्धात्री की मूर्ति विराजमान है। महेंद्र ने पूछा-यह कौन हैं?

ब्रह्मचारी-मां, जो वहां थी।

महेंद्र-यह कौन हैं?

ब्रह्मचारी -इन्होंने यह हाथी, सिंह आदि वन्य पशुओं को पैरों से रौंदकर उनके आवास-स्थान पर अपना पद्यासन स्थापित किया। ये सर्वालंकार-परिभूषिता हास्यमयी सुंदरी है- यही बालसूर्य के स्वर्णिम आलोक आदि ऐश्वर्यो की अधिष्ठात्री हैं- इन्हें प्रणाम करो!

महेंद्र ने भक्तिभाव से जगद्धात्री-रुपिणी मातृभूमि-भारतमाता को प्रणाम किया। तब ब्रह्मचारी ने उन्हें एक अंधेरी सुरंग दिखाकर कहा-इस राह से आओ! ब्रह्मचारी स्वयं आगे-आगे चले। महेंद्र भयभीत चित्त से पीछे-पीछे चल रहे थे। भूगर्भ की अंधेरी कोठरी में न जाने कहां से हलका उजाला आ रहा था। उस क्षीण आलोक में उन्हें एक काली मूर्ति दिखाई दी।

ब्रह्मचारी ने कहा-देखो अब मां का कैसा स्वरूप है!

महेंद्र ने कहा-काली?

ब्रह्मचारी-हां मां काली- अंधकार से घिरी हुई कालिमामयी समय हरनेवाली है इसीलिए नगन् हैं। आज देश चारों तरफ श्मशान हो रहा है, इसलिए मां कंकालमालिनी है- अपने शिव को अपने ही पैरों तले रौंद रही हैं। हाय मां! ब्रह्मचारी की आंखें से आंसू की धारा-बहने लगी।

आनंद-वन से बाहर निकल आने पर कुछ दूर तक राह चलने में तो जंगल उनके एक बाजू रहा। जंगल की बगल से ही शायद वह राह गई है। एक जगह जंगल में से ही एक छोटी नदी कलकल कर बहती है। जल बहुत ही साफ है, लेकिन देखने पर जंगल की छाया से जल भी काला दिखाई देता है। नदी के दोनों बाजू सघन बड़े-बड़े वृक्ष मनोरम छाया किए हुए हैं, विभिन्न पक्षी उन पेड़ों पर बैठे कलरव कर रहे हैं। उनका कलरव-कूजन, नदी की कलकल-ध्वनि से मिलकर अपूर्व श्रुतिमधुर जान पड़ता है। वैसे ही वृक्ष के रंग से नदी-जल का रंग भी वैसा ही झलक रहा है। कल्याणी का मन भी शायद उस रंग में मिल गया। कल्याणी नदी तट के एक वृक्ष से लगकर बैठ गई। उन्होंने अपने पति को भी बैठने को कहा। कल्याणी अपने पति के हाथों को अपने हाथों में लिए बैठी रही। फिर बोली-तुम्हें आज बहुत उदास देखती हूं। विपद जो आयी थी, उससे तो उद्धार मिल गया है, अब इतना दु:ख क्यों?

महेंद्र ने एक ठंढी सांस लेकर कहा-मैं अब अपने आपे में नहीं हूं। मैं क्या करूं- कुछ समझ में नहीं आता।...

कल्याणी-क्यों?

महेंद्र-तुम्हारे खो जाने पर मेरा क्या हाल हुआ, सुनो!...

यह कहकर महेंद्र ने अपनी सारी कहानी सविस्तार वर्णन कर दी।

कल्याणी ने कहा-मुझे भी बड़ी विपदों का सामना करना पड़ा, बहुत तकलीफ उठाई। तुम उन्हें सुनकर क्या करोगे! इतने दु:खों पर भी मुझे कैसे नींद आई थी, कह नहीं सकती- कल आखिर रात भी मैं सोई थी। नींद में मैंने स्वपन् देखा। देखा- नहीं कह सकती, किस पुण्यबल से मैं एक अपूर्व स्थान में पहुंच गई हूं। वहां मिट्टी नहीं है, केवल प्रकाश- अति शीतल- बादल हट जाने पर जैसा प्रकाश रहता है, वैसा ही प्रकाश! वहां मनुष्य नहीं थे, केवल प्रकाशमय मूर्तियां थी, वहां शब्द नहीं होता था, केवल दूर अपूर्व संगीत जैसी ध्वनि सुनाई पड़ती थी। सदाबहार मल्लिका-मालती-गंधराज की अपूर्व सुगंध फैली थी। वहां सबसे ऊंचे दर्शनीय स्थान पर कोई बैठा था, मानो आग में तपा हुआ नील-कमल धधकता हुआ बैठा हो। उसके माथे पर सूर्य के प्रकाश जैसा मुकुट था; उसके चार हाथ थे। उसके दोनों बाजू कौन था, मैं पहचान न सकी, लेकिन कोई स्त्री-मूर्ति थी। लेकिन उनमें इतनी ज्योति, इतना रूप, इतना सौरभ था कि मैं उधर देखते ही विह्वल हो गई- उधर ताक न सकी, देख न सकी कि वे कौन है? उन्हीं चतुर्भुज के सामने एक स्त्री और खड़ी थी- वह भी ज्योतिर्मयी थी, लेकिन चारों तरफ मेघ जैसा छाया था, आभा पूरी तरह दिखाई नहीं देती थी। अस्पष्ट रूप में जान पड़ता था कि वह नारीमूर्ति अति दुर्बल, मर्मपीडि़त, अनन्य-सुंदरी, लेकिन रो रही है। वहां के मंद-सुगंध पवन ने मानों मुझे घुमाते-फिराते वहां चतुर्भुज मूर्ति के सामने ला खड़ा किया। उस मेधमंडिता दुर्बल स्त्री ने मुझे देखकर कहा- यही है, इसी के कारण महेंद्र मेरी गोद में आता नहीं है।....

इसके बाद ही एक अपूर्व वंशी जैसी मधुर ध्वनि सुनाई पड़ी। वह शब्द उन चतुर्भुज का था, उन्होंने मुझे कहा-तुम अपने पति को छोड़कर मेरे पास चली आओ! यह तुम लोगों की मां है महेंद्र इसकी सेवा करेगा। तुम यदि पति के पास रहोगी तो वह इनकी सेवा न कर सकेगा। तुम चली जाओ। मैंने रोकर कहा-पति को छोड़कर मैं कैसे चली आऊं? इसके बाद ही फिर उसी अपूर्व स्वर में उन्होंने कहा-मैं ही स्वामी, मैं ही पुत्र, मैं ही माता, मैं ही पिता और मैं ही कन्या हूं, मेरे पास आओ! मैंने क्या उत्तर दिया, मुझे याद नहीं, लेकिन इसके बाद ही नींद खुल गई। यह कहकर कल्याणी चुप हो रही।

ब्रह्मचारी -हमलोग संतान हैं। अपनी मां के हाथों में अभी केवल अस्त्र रख दिए हैं। बोलो- वन्देमातरम् !

वन्देमातरम्- कहकर महेंद्र ने मां काली को प्रणाम किया।

अब ब्रह्मचारी ने कहा-इस राह से आओ! यह कहकर वे दूसरी सुरंग में चले। सहसा उन लोगों के सामने प्रात: सूर्य की किरणें चमक उठीं, चारों तरफ मधुर से पक्षी कूंज उठे। सामने देखा, एक संगमर्मर से निर्मित विशाल मंदिर के बीच सुवर्ण-निर्मित दशभुज-प्रतिमा नव-अरूण की किरणा से ज्योतिर्मयी होकर हंस रही हैं। ब्रह्मचारी ने प्रणाम कर कहा-ये हैं मां, जो भविष्यत में उनका रूप होगा। इनके दशभुज दशों दिशाओं में प्रसारित हैं, उनमें नाना आयुधरूप में नाना शक्तियां शोभित हैं। पैरों के नीचे शत्रु दबे हुए हैं, पैरों के निकट वीर-केशरी भी शत्रु-निपीड़न से मगन् है। दिक्भुजा-कहते-कहते सत्यानंद गद्गद् हो रोने लगे-दिक्भुजा- नानाप्रहरणधारिणी, शत्रुविमर्दिनी, वीरेन्द्रपृष्ठविहारिणी, दाहिने लक्ष्मी भाग्यरूपिणी, बाएं वाणी विद्याविज्ञानदायिनी- साथ में शक्ति के आधार कार्तिकेय, कार्यसिद्विरूपी गणेश- आओ, हम दोनों मां को प्रणाम करें! इस पर दोनों ही हाथ जोड़कर माता का रूप निहारते हुए प्रार्थना करने लगे-

सर्वमंगलमांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके।
शरण्ये ˜यम्बके गौरी नारायणि नमोस्तुते॥

दोनों के भक्ति-भाव से प्रणाम कर चुकने के बाद, भरे हुए गले से महेंद्र ने पूछा- मां की ऐसी मूर्ति कब देखने को मिलेगी?

ब्रह्मचारी ने कहा -जिस दिन मां की सारी सन्तानें एक साथ मां को बुलाएंगी, उसी दिन मां प्रसन्न होंगी।

एकाएक महेंद्र ने पूछा -मेरी स्त्री-कन्या कहां हैं?

ब्रह्मचारी-चलो, देखोगे? चलो!

महेंद्र -उन लोगों से भी एक बार मैं मिलूंगा, इसके बाद उन्हें बिदा कर दूंगा।....

ब्रह्मचारी-क्यों बिदा करोगे?

महेंद्र -मैं भी यह महामंत्र ग्रहण करूंगा!

ब्रह्मचारी -उन्हें कहां विदा करोगे?

महेंद्र ने विचारकर कहा-मेरे धर पर कोई नहीं है, मेरा दूसरा कोई स्थान भी नहीं है। इस महामारी के समय और कहां स्थान मिलेगा।

ब्रह्मचारी-जिस राह से यहां आये हो, उसी राह से मंदिर से बाहर जाओ! मंदिर के दरवाजे पर तुम्हें स्त्री-कन्या दिखाई देंगी। कल्याणी अभी तक निराहार है। जहां वे दोनों बैठी हैं वहीं भोजन की सामग्री पाओगे। उसे भोजन कराके तुम्हारी जो इच्छा हो करना। अब हम लोगों में से किसी से कुछ देर मुलाकात न होगी। यदि तुम्हारा मन इधर होगा तो समय पर मैं तुमसे मिलूंगा।

इसके बाद ही किसी तरह से एकाएक ब्रह्मचारी अंतर्हित हो गए। महेंद्र ने पूर्व-परिचित राह से लौटकर देखा- नाटय मंदिर में कल्याणी कन्या को लिए हुए बैठी है।

इधर सत्यानंद एक दूसरी सुरंग में जाकर एक अकेली भूगर्भस्थित कोठरी में उतर पड़े। वहां जीवानन्द और भुवानंद बैठे हुए रुपये गिन-गिनकर रख रहे थे। उस कमरे में ढेरों सोना, चांदी, तांबा, हीरे, मोती, मूंगे रखे हुए थे। गत रात खजाने की लूट का माल ये लोग गिन-गिनकर रख रहे थे।

सत्यानंद ने कमरे में प्रवेश कर कहा-जीवानंद! महेंद्र हमारे साथ आएगा। उसके आने से संतानों का विशेष कल्याण होगा। कारण आने से उसके पूर्वजों का संचित धन मां की सेवा में अर्पित होगा। लेकिन जब तक वह तन-मन-वचन से मातृभक्त न हो, तब तक उसे ग्रहण न करना। तुम लोगों के हाथ का काम समाप्त होने पर तुम लोग भिन्न-भिन्न समय में उसका अनुसरण करना, उचित समय पर उसे श्रीविष्णुमंडप में उपस्थित करना, और समय हो या कुसमय हो, उन लोगों की रक्षा अवश्य करना। कारण, जैसे दुष्टों का दमन और दलन संतानों का धर्म है, वैसे ही शिष्टों की रक्षा करना भी संतानों का धर्म है!

अनेक दु:खों के बाद महेंद्र और कल्याणी में मुलाकात हुई। कल्याणी रोकर पछाड़ खा गिरी। महेंद्र और भी रोए। रोने-गाने के बाद आंखों के पोंछने की धूम मच गई। जितने बार आंखें पोंछी जाती थी, उतनीही बार आंसू आ जाते थे। आंसू बंद करने के लिए कल्याणी ने भोजन की बात उठाई। ब्रह्मचारीजी के अनुचर जो खाना रख गए थे, कल्याणी ने उसे खाने के लिए महेंद्र से कहा। दुर्भिक्ष के दिनों में इधर अन्न भोजन की कोई संभावना नहीं थी, फिर भी आसपास जो कुछ है, संतानों के लिए वह सुलभ है। वह जंगल साधारण मनुष्यों के लिए अगम्य है जहां जिस वृक्ष में जो फल होते हैं, उन्हें भूखे लोग तोड़कर खाते हैं, किंतु इस अगम्य वन के वृक्षों का फल कोई नहीं पाता इसलिए ब्रह्मचारी के अनुचर ढेरों फल और दूध लाकर रख जाने में समर्थ हुए। संन्यासीजी की सम्पत्ति में अनेक गौएं भी हैं। कल्याणी के अनुरोध पर महेंद्र ने पहले कुछ भोजन किया, इसके बाद बचा हुआ भोजन अकेले में बैठकर कल्याणी ने खाया। उन लोगों ने थोड़ा दूध कन्या को पिलाया, बाकी बचा हुआ रख लिया- फिर पिलाने की आशा ही तो माता-पिता का संतान के प्रति धर्म है। इसके बाद थकावट और भोजन के कारण दोनों ने निंद्राभिभूत होकर आराम किया।

नींद से उठने के बाद दोनों विचार करने लगे-अब कहां चलना चाहिए? कल्याणी ने कहा-घर पर विपद की संभावना समझकर हमने गृहत्याग किया था, लेकिन अब देखती हूं कि घर से भी अधिक कष्ट बाहर है। न हो तो चलो, घर ही लौट चलें! महेंद्र की भी यही इच्छा थी। महेंद्र की इच्छा है कि कल्याणी को घर पर बैठाकर, कोई एक विश्वासी अभिभावक नियुक्त कर, इस परमरमणीय, अपार्थिव पवित्र मातृसेवा-व्रत को ग्रहण करेंगे। अत: इस बात पर वे सहज ही सहमत हो गए। अब दोनो ही प्राणियों ने थकावट दूर होने पर कन्या को गोद में लेकर फिर पदचिन्ह की तरफ यात्रा की।

किंतु पदचिन्ह जाने के लिए किस राह से जाना होगा- उस दुर्भेद्य वन में वे कुछ भी समझ न सके। उन्होंने समझा था कि जंगल पार होते ही हमें राह मिल जाएगी और पदचिन्ह पहुंच सकेंगे। लेकिन वहां तो बन का ही थाह नहीं लगता है। बहुत देर तक वे लोग वन के अंदर इधर-उधर चक्कर लगाते रहे और बार-बार घूम-फिरकर वे लोग मठ में ही पहुंच जाते थे। उन्हें जंगल से पार होनेवाली राह मिलती ही न थी। यह देखते हुए सामने एक वैष्णव वेशधारी खड़े हंस रहे थे। यह देखकर महेंद्र ने रुष्ट होकर उनसे कहा-गोस्वामी! खड़े-खड़े हंसते क्यों हो?

गोस्वामी बोले-तुमलोग इस वन में आए कैसे?

महेंद्र बोले-जैसे भी हो आ ही गए हैं!

गोस्वामी-प्रवेश कर सके तो बाहर क्यों नहीं निकल पाते हो? यह करकर वैष्णव फिर हंसने लगे।

महेंद्र ने वैसे ही रुष्ट स्वर में कहा-हंसते तो हो, लेकिन क्या तुम इसके बाहर निकल सकते हो?

वैष्णव ने कहा-मेरे साथ आओ, मैं राह बता देता हूं। अवश्य ही तुम लोग ब्रह्मचारीजी के संग आए होंगे, अन्यथा न तो कोई यहां आ सकता है, न निकल ही सकता है। अपरिचितों के लिए यह भूल-भुलैया है।

यह सुनकर महेंद्र ने कहा-आप भी सन्तान हैं?

वैष्णव ने कहा-हां, मैं भी सन्तान हूं। मेरे साथ आओ। तुम्हें राह दिखाने के लिए ही मैं यहां खड़ा हूं।

महेंद्र ने पूछा -आपका नाम क्या है?

वैष्णव ने उत्तर दिया-मेरा नाम धीरानंद स्वामी है।

यह कहकर धीरानंद आगे-आगे चले और कल्याणी के साथ महेंद्र पीछे-पीछे। धीरानंद ने एक बड़ी सी दुर्गम राह से उन्हें जंगल के बाहर कर दिया और आगे की राह बता दी। इसके बाद वे फिर जंगल में पलटकर गायब हो गए।

बुरी बात ही मां-बाप के मुंह से पहले निकलती है- जहां अधिक प्रेम होता है, वहां भय भी बहुत अधिक होता है। महेंद्र ने यह कभी देखा न था कि टिकिया पहले कितनी बड़ी थी। अब उन्होंने टिकिया अपने हाथ में उठाकर मजे में उसे देखकर कहा-मालूम तो होता है कि कुछ खा गई है।

कल्याणी को कुछ ऐसा ही विश्वास हुआ। टिकिया हाथ में लेकर बहुत देर तक वह भी उसकी जांच करती रही। इधर कन्या ने दो-एक घूंट रस जो चूस लिया था, उससे उसकी दशा बिगड़ने लगी- वह छटपटाने लगी, रोने लगी, अंत में कुछ बेहोश सी हो पड़ी। तब कल्याणी ने पति से कहा-अब क्या देखते हो? जिस राह पर भगवान ने बुलाया है, उसी राह पर सुकुमारी चली, मुझे भी वही राह लेनी पड़ेगी।

यह कहकर कल्याणी ने उस टिकिया को उठाकर मुंह में डाल लिया और एक क्षण में निगल गई।

महेंद्र रोने लगे-क्या किया, कल्याणी! अरे तुमने यह क्या किया है?....

कल्याणी ने कोई उत्तर न देकर पति के पैरों की धूलि माथे लगाई, फिर बोली-प्रभु! बात बढ़ाने से बात बढ़ेगी...मैं चली।

कल्याणी! यह क्या किया?- कहकर महेंद्र चिल्लाकर रोने लगे।

बड़े ही धीमे स्वर में कल्याणी बोली-मैंने अच्छा ही किया है, इस नाचीज औरत के पीछे तुम अपनी मातृभूमि की सेवा से वंचित रहते। देखो मैं देववाक्य का उल्लंघन कर रही थी, इसलिए मेरी कन्या गई। थोड़ी और अवहेलना करने से तुम पर विपत्ति आती।

महेंद्र ने रोते हुए कहा-अरे, तुम्हें कहीं बैठाकर मैं चला जाता, कल्याणी!- कार्य सिद्ध हो जाने पर फिर हम लोग मिलकर सुखी होते। कल्याणी! मेरी सर्वस्व! तुमने यह क्या!! जिस भुजा के बल पर मैं तलवार पकड़ता, हाय! तुमने वही भुजा काट दी। तुम्हें खोकर मैं क्या रह पाऊंगा।....

कल्याणी-कहां मुझे ले जाते?- कहां स्थान है? मां-बाप, सगे-संबंधी सब इस दुर्दिन में चले गए हैं। किसके घर में जगह है, कहां जाने का विचार है? कहां ले जाओगे? मैं कालग्रह हूं- मैंने मरकर अच्छा ही किया है! मुझे आशीर्वाद दो, मैं उस आलोकमय लोक में जाकर तुम्हारी प्रतीक्षा में रहूं और फिर तुम्हें पाउं।

यह कहकर कल्याणी ने फिर स्वामी का पदरेणु ग्रहण किया। महेंद्र कोई उत्तर न देकर रोते ही रहे। कल्याणी फिर अति मृदु, अति मधुर, अतीव स्नेहमय कंठ से बोली-देखो, देवताओं की इच्छा, किसकी मजाल है कि उसका उल्लंघन कर सके! मुझे जाने की आज्ञा उन्होंने दी है, तो क्या मैं किसी तरह भी रुक सकती हूं? मैं स्वयं न मरती तो कोई मार डालता! मैंने आत्महत्या कर अच्छा ही किया है। तुमने देशोद्धार का जो व्रत लिया है, उसे तन-मन-धन से पूरा करो- इसी में तुम्हें पुण्य होगा- इसी पुण्य से मुझे भी स्वर्गलाभ होगा। हम दोनों ही साथ-साथ अक्षय स्वर्गमुख का उपभोग करेंगे।

इधर बालिका एक बार दूध की उल्टी कर सम्भलने लगी। उसके पेट में जिस परिमाण में विष गया था, वह घातक नहीं था। लेकिन महेंद्र का ध्यान उस समय उधर न था। उन्होंने कन्या को कल्याणी की गोद में दे दोनों का प्रगाढ़ अलिंगन कर फूट-फूटकर रोना शुरू किया। उसी समय वन में से मधुर किंतु मेघ-गंभीर शब्द सुनाई पड़ने लगा-

हरे मुरारे मधुकैटभारे!

गोपाल गोविंद मुकुंद शौरे!

उस समय कल्याणी पर विष का प्रभाव हो रहा था, चेतना कुछ लुप्त हो चली थी। उन्होंने अवचेतन मन से सुरा, मानो वैकुण्ठ से यह अपूर्व ध्वनि उभरकर गूंज रही है-

हरे मुरारे मधुकैटभारे!
गोपाल गोविंद मुकुंद शौरे!

तब कल्याणी ने अप्सरानिंदित कंठ से बड़े ही मोहक स्वर में गाया-

हरे मुरारे मधुकैटभारे!

वह महेंद्र से बोली- कहो हरे मुरारे मधुकैटभारे!

वन में गूंजने वाले मधुर स्वर और कल्याणी के मधुर स्वर पर विमुग्ध होकर कातर हृदय से एक मात्र ईश्वर को ही सहाय समझाकर महेंद्र ने भी पुकारा-

हरे मुरारे मधुकैटभारे!.....

तब मानो चारों तरफ से ध्वनि होने लगी--

हरे मुरारे मधुकैटभारे!....

और मानो वृक्ष के पत्तों से भी आवाज निकलने लगी-

हरे मुरारे मधुकैटभारे!....

नदी के कलकल ध्वनि में भी वही शब्द हुआ-

हरे मुरारे मधुकैटभारे!....

अब महेंद्र अपना शोक संताप भूल गए, उन्मत्त होकर वे कल्याणी के साथ एक स्वर से गाने लगे-

हरे मुरारे मधुकैटभारे!....

जंगल में से भी उसके स्वर से मिली हुई वाणी निकली-

हरे मुरारे मधुकैटभारे!....

कल्याणी का कंठ क्रमश: क्षीण होने लगा, फिर भी वह पुकार रही थी-

हरे मुरारे मधुकैटभारे!....

इसके बाद ही उसका कंठ क्रमश: निस्तब्ध होने लगा, कल्याणी के मुंह से अब शब्द नहीं निकलता- आंखें ढंक गई, अंग शीतल हो गए। महेंद्र समझ गए कि कल्याणी ने हरे मुरारे कहते हुए बैकुंठ प्रयाण किया। इसके बाद ही पागलों की तरह उच्च स्वर से वन को कम्पित करते हुए पशु-पक्षियों को चौंकाते हुए महेंद्र पुकारने लगे-

हरे मुरारे मधुकैटभारे!....

इसी समय किसी ने आकर उनका अलिंगन किया और उसी स्वर में वह भी कहने लगा-

हरे मुरारे मधुकैटभारे!....

तब उस अनंत ईश्वर की महिमा से, उस अनंत वन में अनंत पथगामी शरीर के सामने दोनों जन अनंत नाम-स्मरण करने लगे। पशु-पक्षाी नीरव थे, पृथ्वी अपूर्व शोभामयी थी- इस परम पावन गीत के उपयुक्त मंदिर था वह। सत्यानंद महेंद्र को बांहों में संभाल कर बैठ गए।

महेंद्र विस्मित, स्तम्भित होकर चुप हो रहे। ऊपर पेड़ पर कोई पक्षी बोल उठा, पपीहा अपनी बोली से आकाश गुंजाने लगा, कोकिल सप्त-स्वरों में गाने लगी, भृंगराज की झनकार से जंगल गूंज उठा। पैरों के नीचे तरिणी मृदु कल्लोल कर रही थी। बहुतेरे वन्य पुष्पों के सौरभ से मन हरा हो रहा था। कहीं-कहीं नदी-जल को सूर्य-रश्मि चमका रही थी। कहीं ताड़ के पत्ते हवा के झोंके से मरमरा रहे थे। दूर नीली पर्वत-श्रेणी दिखाई पड़ रही थी। दोनों ही जन मुग्ध-नीरव हो यह सब देखते रहे। बहुत देर बाद कल्याणी ने फिर पूछा-क्या सोच रहे हो?

महेंद्र-यही सोचता हूं कि क्या करना चाहिए? यह स्वपन् केवल विभीषिका मात्र है, अपने ही हृदय में पैदा होकर अपने ही में लीन हो जाता है। चलो, घर चलें!

कल्याणी-जहां ईश्वर तुम्हें जाने को कहते हैं, तुम वहीं जाओ!

यह कहकर कल्याणी ने कन्या अपने पति की गोद में दे दी। महेंद्र ने उसे अपने गोद में लेकर पूछा-और तुम...तुम कहां जाओगी?

कल्याणी अपने दोनों हाथों से दोनों आंखों को ढंके हुए, साथ ही मस्तक पकडे़ हुए बोली-मुझे भी भगवान ने जहां जाने को कहा है वहीं जाऊंगी।

महेंद्र चौंक उठे। बोले-वहां कहां? कैसे जाओगी?

कल्याणी ने अपने पास की वही जहर की डिबिया दिखाई।

महेंद्र ने डरते हुए भौंचक्का होकर कहा-यह क्या? जहर खाओगी?

कल्याणी-मन में तो सोचा था, खाऊंगी, लेकिन...

कल्याणी चुप होकर विचार में पड़ गई, महेंद्र उसका मुंह ताकते रहे- प्रति निमेश वर्ष-सा प्रतीत होने लगा। उन्होंने देखा कि कल्याणी ने बात पूरी न कही, अत: बोले-लेकिन के बाद आगे क्या कह रही थीं?

कल्याणी-मन में था कि खाऊंगी, लेकिन तुम्हें छोड़कर, सुकुमारी कन्या को छोड़कर बैकुंठ जाने की भी मेरी इच्छा नहीं होती। मैं न मरूंगी!

यह कहकर कल्याणी ने विष की डिबिया जमीन पर रख दी। इसके बाद दोनों ही पत्‍‌नी-पुरुष भूत-भविष्य की अनेक बातें करने लगे। बातें करते हुए दोनों ही अन्यमनस्क हो उठे। इसी समय खेलते-खेलते सुकुमारी कन्या ने विष की डिबिया उठा ली। उसे किसी ने न देखा।

सुकुमारी ने मन में सोचा कि बढि़या खेलने की चीज है। उसने इस डिबिया को एक बार बाएं हाथ में लेकर दाहिने हाथ से खींचा। इसके बाद दाहिने हाथ से पकड़कर बाएं हाथ से खींचा। इसके बाद दोनों हाथों से उसे खींचना शुरू किया। फल यह हुआ कि डिबिया खुल गई, उसमें से जहर की टिकिया बाहर गिर पड़ी।

बाप के कपड़े के ऊपर वह टिकिया गिरी- सुकुमारी ने उसे देखा, मन में सोचा, कि यह एक दूसरी खेलने की चीज है डिबिया के दोनों ढक्कन उसने छोड़ दिए और उस टिकिया को उठा लिया।

डिबिया को सुकुमारी ने मुंह में क्यों नहीं डाला, नहीं कहा जा सकता। लेकिन टिकिया में उसने जरा भी विलम्ब न किया? प्रप्तिमात्रेण भोक्तव्य-- सुकुमारी ने उस जहर की टिकिया को मुंह में डाल लिया।

क्या खाया? अरे क्या खाया? गजब हो गया!...

यह कहती हुई कल्याणी ने कन्या के मुंह में उंगली डाल दी। उसी समय दोनों ने देखा कि विष की डिबिया खाली पड़ी हुई है। सुकुमारी ने सोचा कि यह भी खेल की चीज है, अत: उसने उसे दांतों से दबा लिया और माता का मुंह देखकर मुस्कराने लगी। लेकिन जान पड़ता है, इसी समय जहर का कड़वा स्वाद उसे मालूम पड़ा और उसने मुंह बिगाड़कर खोल दिया- वह टिकिया दांतों में चिपकी हुई थी। माता ने तुरंत निकाल कर उसे जमीन पर फेंक दिया। लड़की रोने लगी।

टिकिया उसी तरह पड़ी रही। कल्याणी तुरंत नदी-तट पर जाकर अपना आंचल भिगो लाई और लड़की के मुंह में जल देकर उसने धुलवा दिया। बड़ी ही कातर वाणी से कल्याणी ने महेंद्र से पूछा-क्या कुछ पेट में गया होगा?