आनन्दमठ भाग-1
बहुत विस्तृत जंगल है। इस जंगल में अधिकांश वृक्ष शाल के हैं, इसके अतिरिक्त और भी अनेक प्रकार के हैं। फुनगी-फुनगी, पत्ती-पत्ती से मिले हुए वृक्षों की अनंत श्रेणी दूर तक चली गई है। घने झुरमुट के कारण आलोक प्रवेश का हरेक रास्ता बंद है। इस तरह पल्लवों का आनंद समुद्र कोस-दर-कोस-- सैकड़ों-हजारों कोस में फैला हुआ है, वायु की झकझोर झोंके से बह रही हैं। नीचे घना अंधेरा, माध्याह्न के समय भी प्रकाश नहीं आता-- भयानक दृश्य! उत्सव जंगल के भीतर मनुष्य प्रवेश तक नहीं कर सकते, केवल पत्ते की मर्मर ध्वनि और पशु-पक्षियों की आवाज के अतिरिक्त वहां और कुछ भी नहीं सुनाई पड़ता। एक तो यह अति विस्तृत, अगम्य, अंधकारमय जंगल, उस पर रात्रि का समय! पतंग उस जंगल में रहते हैं लेकिन कोई चूं तक नहीं बोलता है। शब्दमयी पृथ्वी की निस्तब्धता का अनुमान किया नहीं जा सकता है; लेकिन उस अनंत शून्य जंगल के सूची-भेद्य अंधकार का अनुभव किया जा सकता है। सहसा इस रात के समय की भयानक निस्तब्धता को भेदकर ध्वनि आई-- मेरा मनोरथ क्या सिद्ध न होगा ।...... इस तरह तीन बार वह निस्तब्ध-अंधकार अलोडि़त हुआ- तुम्हारा क्या प्रण है? उत्तर मिला- मेरा प्रण ही जीवन-सर्वस्व है? प्रति शब्द हुआ- जीवन तो तुच्छ है, सब इसका त्याग कर सकते हैं! तब और क्या है..और क्या होना चाहिए? उत्तर मिला- भक्ति! बंगाब्द सन् 1176 के गरमी के महीने में एक दिन, पदचिन्ह नामक एक गांव में बड़ी भयानक गरमी थी। गांव घरों से भरा हुआ था, लेकिन मनुष्य दिखाई नहीं देते थे। बाजार में कतार-पर-कतार दुकानें विस्तृत बाजार में लंबी-चौड़ी सड़कें, गलियों में सैकड़ों मिट्टी के पवित्र गृह, बीच-बीच में ऊंची-नीची अट्टालिकाएं थीं। आज सब नीरव हैं; दुकानदार कहां भागे हुए हैं, कोई पता नहीं। बाजार का दिन है, लेकिन बाजार लगा नहीं है, शून्य है। भिक्षा का दिन है, लेकिन भिक्षुक बाहर दिखाई नहीं पड़ते। जुलाहे अपने करघे बंद कर घर में पड़े रो रहे हैं। व्यवसायी अपना रोजगार भूलकर बच्चों को गोद में लेकर विह्वल हैं। दाताओं ने दान बंद कर दिया है, अध्यापकों ने पाठशाला बंद कर दी है, शायद बच्चे भी साहसपूर्वक रोते नहीं है। राजपथ पर भीड़ नहीं दिखाई देती, सरोवर पर स्नानार्थियों की भीड़ नहीं है, गृह-द्वार पर मनुष्य दिखाई नहीं पड़ते हैं, वृक्षों पर पक्षी दिखाई नहीं पड़ते, चरनेवाली गौओं के दर्शन मिलते नहीं हैं, केवल श्मशान में स्यार और कुत्ते हैं, एक बहुत बड़ी आट्टालिका है, उसकी ऊंची चहारदीवारी और गगन-चुंबी गुंबद दूर से दिखाई पड़ते हैं। वह अट्टालिका उस गृह-जंगल में शैल-शिखर-सी दिखाई पड़ती है। उसकी शोभा का क्या कहना है- लेकिन उसके दरवाजे बंद है, गृह मनुष्य-समागम से शून्य है, वायु-प्रवेश में भी असुविधा है। उस घर के अंदर दिन-दोपहर के समय अंधेरा है; अंधकार में रात के समय एक कमरे में, फू ले हुए दो पुष्पों की तरह एक दंपति बैठे हुए चिंतामगन् हैं। उनके सामने अकाल का भीषण रूप है। 1174 में फसल अच्छी नहीं हुई, अत: ग्यारह सौ पचहत्तर में अकाल आ पड़ा- भारतवासियों पर संकट आया। लेकिन इस पर भी शासकों ने पैसा-पैसा, कौड़ी-कौड़ी वसूल कर ली। दरिद्र जनता ने कौड़ी-कौड़ी करके मालगुजारी अदा कर दिन में एक ही बार भोजन किया। ग्यारह सौ पचहत्तर बंगाब्द की बरसात में अच्छी वर्षा हुई। लोगों ने समझा कि शायद देवता प्रसन्न हुए। आनंद में फिर मठ-मंदिरों में गाना-बजाना शुरू हुआ, किसान की स्त्री ने अपने पति से चांदी के पाजेब के लिए फिर तकाजा शुरू किया। लेकिन अकस्मात आश्विन मास में फिर देवता विमुख हो गए। क्वार-कार्तिक में एक बूंद भी बरसात न हुई। खेतों में धान के पौधे सूखकर खंखड़ हो गए। जिसके दो-एक बीघे में धान हुआ भी तो राजा ने अपनी सेना के लिए उसे खरीद लिया, जनता भोजन पा न सकी। पहले एक संध्या को उपवास हुआ, फिर एक समय भी आधा पेट भोजन उन मिलने लगा, इसका बाद दो-दो संध्या उपवास होने लगा। चैत में जो कुछ फसल हुई वह किसी के एक ग्रास भर को भी न हुई। लेकिन मालगुजारी के अफसर मुहम्मद रजा खां ने मन में सोचा कि यही समय है, मेरे तपने का। एकदम उसने दश प्रतिशत मालगुजारी बढ़ा दी। बंगाल में घर-घर कोहराम मच गया। पहले लोगों ने भीख मांगना शुरू किया, इसके बाद कौन भिक्षा देता है? उपवास शुरू हो गया। फिर जनता रोगाक्रांत होने लगी। गो, बैल, हल बेचे गए, बीज के लिए संचित अन्न खा गए, घर-बार बेचा, खेती-बारी बेची। इसके बाद लोगों ने लड़कियां बेचना शुरू किया, फिर लड़के बेचे जाने लगे, इसको बाद गृहलक्षि्मयों का विक्रय प्रारंभ हुआ। लेकिन इसके बाद, लड़की, लड़के औरतें कौन खरीदता? बेचना सब चाहते थे लेकिन खरीददार कोई नहीं। खाद्य के अभाव में लोग पेड़ों के पत्ते खाने लगे, घास खाना शुरू किया, नरम टहनियां खाने लगे। छोटी जाति की जनता और जंगली लोग कुत्ते, बिल्ली, चूहे खाने लगे। बहुतेरे लोग भागे, वे लोग विदेश में जाकर अनाहार से मरे। जो नही भागे, वे अखाद्य खाकर, उपवास और रोग से जर्जर हो मरने लगे। महेंद्र चले गए। कल्याणी अकेली बालिका को लिए हुए प्राय: जनशून्य स्थान में, घर के अंदर अंधकार में पड़ी चारों तरफ देखती रही। उसके मन में भय का संचार हो रहा था। कहीं कोई नहीं, मनुष्य मात्र का कोई शब्द सुनाई नहीं पड़ता है केवल कुत्तों और स्यारों की आवाज सुनाई पड़ जाती है। सोचने लगी-क्यों उन्हें जाने दिया? न होता, थोड़ी और भूख-प्यास बर्दाश्त करती। फिर सोचा--चारों तरफ के दरवाजे बंद कर दूं। लेकिन एक भी दरवाजे में किवाड़ दिखाई न दिया। इस तरह चारों तरफ देखते-देखते सहसा उसे सामने के दरवाजे पर एक छाया दिखाई दी-- मनुष्याकृति जैसा, कंकाल मात्र और कोयले की तरह काला, नगन्, विकटाकार मनुष्य जैसा कोई आकार दरवाजे पर खड़ा था। कुछ देर बाद छाया ने मानो अपना एक हाथ उठाया और हाथों की लंबी सूखी उंगलियों से संकेत कर किसी को अपने पास बुलाया। कल्याणी का प्राण सूख गया। इसके बाद वैसी ही एक छाया और- सूखी-काली, दीर्घाकार, नगन्- पहली छाया के पास आकर खड़ी हो गई। इसके बाद ही एक और एक और... इस तरह कितने ही पिशाच आकर घर के अंदर प्रवेश करने लगे। वहां का एकांत श्मशान की तरह भयंकर दिखाई देने लगा। वह सब प्रेत जैसी मूर्तियां कल्याणी और उसकी कन्या को घेरकर खड़ी हो गई- देखकर कल्याणी भय से मूर्छित हो गई। काले नरकंकालों जैसे पुरुष कल्याणी और उसकी कन्या को उठाकर बाहर निकले और बस्ती पार कर एक जंगल में घुस गए। कुछ देर बाद महेंद्र उस हंडि़या में दूध लिए हुए वहां आए। उन्होंने देखा कि वहां कोई नहीं है। इधर-उधर खोजा; पहले कन्या का नाम और फिर स्त्री का नाम लेकर जोर-जोर से पुकारने लगे। लेकिन न तो कोई उत्तर मिला और न कुछ पता ही लगा। जिस वन में डाकू कल्याणी को लेकर घुसे, वह वन बड़ा ही मनोहर था। यहां रोशनी नहीं कि शोभा दिखाई दे, ऐसी आंखें भी नहीं कि दरिद्र के हृदय के सौंदर्य की तरह उस वन का सौंदर्य भी देख सकें। देश में आहार द्रव्य रहे या न रहे- वन में फूल है; फूलों की सुगंध से मानो उस अंधकार में प्रकाश हो रहा है। बीच की साफ-सुकोमल और पुष्पावृत जमीन पर डाकुओं ने कल्याणी और उसकी कन्या को उतारा और सब उन्हें घेरकर बैठ गए। इसके बाद उन सब में यह बहस चली कि इन लोगों का क्या किया जाए? कल्याणी को जो कुछ गहने थे, उन्हें डाकुओं ने पहले ही हस्तगत कर लिया। एक दल उसके हिस्से-बखरे में व्यस्त हो गया। गहनों के बंट जाने पर एक डाकू ने कहा-हम लोग सोना-चांदी लेकर क्या करेंगे? एक गहना लेकर कोई मुझे भोजन दे, भूख से प्राण जाते हैं-आज सबेरे केवल पत्ते खाए हैं। एक के यह करने पर सभी इसी तरह हल्ला मचाने लगे- भारत दो, हम भूख से मर रहे हैं, सोना-चांदी नहीं चाहते।.. दलपति उन्हें शांत करने लगा, लेकिन कौन सुनता है; क्रमश: ऊंचे स्वर में बातें शुरू हुई, फिर गाली-गलौच शुरू हुई, मार-पीट की भी तैयारी होने लगी। जिसे-जिसे हिस्से में गहने मिले थे, वे लोग अपने-अपने हिस्से के गहने खींच-खीचकर दलपति के शरीर पर मारने लगे। दलपति ने भी दो-एक को मारा। इस पर सब मिलकर आक्रमण कर दलपति पर आघात करने लगे। दलपति अनाहार से कमजोर और अधमरा तो आप ही था, दो-चार आघार में ही गिरकर मर गया। उन भूखे, पीडि़त, उत्तेजित और दयाशून्य डाकुओं में से एक ने कहा--स्यार का मांस खा चुके हैं, भूख से प्राण जा रहा है, आओ भाई आज इसी साले को खा लें। इस पर सबने मिलकर जयकाली कहकर जयघोष किया--जय काली! आज नर-मांस खाएंगे। यह कहकर वह सब नरकंकाल रूपधारी खिलखिलाकर हंस पड़े और तालियां बजाते हुए नाचने लगे। एक दलपति के शरीर को भूनने के लिए आग जलाने का इंतजाम करने लगा। लता-डालियां और पत्ते संग्रह कर, उसने चकमक पत्थर द्वारा आग पैदा कर उसे धधकाया; धधक कर आग जल उठी। आग की लपट के पास के आम, खजूर, पनस, नींबू आदि के वृक्षों के कोमल हरे पत्ते चमकने लगे। कहीं पत्ते जलने लगे, कहीं घास पर रोशनी से हरियाली हुई तो कहीं अंधेरा और गाढ़ा हो गया। आग जल जाने पर कुछ लोग दलपति के कंकाल को आग में फेंकने के लिए घसीटकर लाने लगे। इसी समय एक बोल उठा-ठहरो, ठहरो! अगर यह मांस ही खाकर आज भूख मिटानी है, तो इस सूखे नरकंकाल को न भूनकर, आओ इस कोमल लड़की को ही भूनकर खाया जाए एक बोला-जो हो, भैया ! एक को भूनो ! हम तो भूख से मर रहे हैं। इस पर सबने लोलुप दृष्टि से उधर देखा, जिधर अपनी कन्या को लिए हुए कल्याणी पड़ी थी। उस सबने देखा कि वह स्थान सूना था, न कन्या थी और न माता ही। डाकुओं के आपसी विवाद और मारपीट के समय सुयोग पाकर कल्याणी गोद में बच्ची को चिपकाए वन के भीतर भाग गई। शिकार को भागा देखकर वह प्रेत-दल मार-मार करता हुआ चारों तरफ उन्हें पकड़ने के लिए दौड़ पड़ा। अवस्था विशेष में मनुष्य पशुमात्र रह जाता है। रोग को भी अवसर मिला- ज्वर, हैजा, क्षय, चेचकफैल पड़ा। विशेषत: चेचक का बड़ा प्रसार हुआ। घर-घर लोग महामारी से मरने लगे। कौन किसे जल देता है- कौन किसे छूता? कोई किसी की चिकित्सा नहीं करता, कोई किसी को नहीं देखता था। मर जाने पर शव कोई उठाकर फेंकता नहीं था। अति रमणीय गृह-स्थान आप ही सड़कर बदबू करने लगे। जिस घर में एक बार चेचक हुआ, रोगी को छोड़कर घरवाले भाग गए। महेंद्र सिंह पदचिन्ह के बड़े धनी व्यक्ति हैं-- लेकिन आज धनी-गरीब सब बराबर हैं। इस दु:खपूर्ण अकाल के समय रोगी होकर उसके आत्मीय-स्वजन, दासी-दास सभी चले गए हैं। कोई मर गया, कोई भाग गया। उस वृहत परिवार में उनकी स्त्री, वे और गोद में एक शिशु-कन्या मात्र रह गई है। इन्हीं लोगों की बात कह रहा हूं। उनकी भार्या कल्याणी ने चिंता छोड़कर गोशाला में जाकर गाय दुही। इसके बाद दूध गर्म कर कन्या को पिलाया और गऊ को घास खाने के लिए डाल दिया। वह लौटकर जब काई तो महेंद्र ने कहा-इस तरह कितने दिन चलेगा? कल्याणी बोली-- ज्यादा दिन नहीं! जितने दिन चले, जितने दिन मैं चला पाती हूं, चला रही हूं। इसके बाद तुम लड़की को लेकर शहर चले जाना। महेंद्र- अगर शहर ही चलना है तो तुम्हें ही इतनी तकलीफ क्यों दी जाय? चलो न, अभी चलें! इसके बाद दोनों अनेक तर्क-वितर्क हुए। कल्याणी- शहर में जाने से क्या विशेष उपकार होगा? महेंद्र- वह स्थान भी शायद ऐसे ही जन शून्य, प्राणरक्षा के उपाय से रहित है कल्याणी-मुर्शिदाबाद, कासिम बाजार या कलकत्ता जाने से प्राणरक्षा हो सकेगी। इस स्थान से तो त्याग देना हर तरह से उचित है? महेंद्र ने कहा-यह घर बहुत दिनों से वंशानुक्रम से संचित धन से परिपूर्ण है, इन्हें तो चोर लूट ले जाएंगे। कल्याणी-यदि वह लोग लूटने के लिए आएं तो क्या हम दो जन रक्षा कर सकते है? प्राण ही न रहा तो धन कौन भोगेगा? चलो, अभी से ही सब बंद-संद करके चल चलें। अगर जिंदा रह गए तो फिर आकर भोग करेंगे। महेंद्र ने पूछा- क्या तुम राह चल सकोगी? कहार सब मर ही गए हैं। बैल हैं तो गाड़ी नहीं है और गाड़ी है तो बैल नहीं है। कल्याणी -तुम चिंता न करो, मैं पैदल चलूंगी। कल्याणी ने मन-ही-मन निश्चय किया- न होगा, राह में मरकर गिर पड़ूंगी; यह दोनों जन तो बचे रहेंगे। दूसरे दिन सबेरे, साथ में कुछ धन लेकर घर-द्वार में ताला बंद कर, गायों को मुक्त कर और कन्या को गोद में लेकर दोनों जन राजधानी के लिए चल पड़े। यात्रा के समय महेंद्र ने कहा- राह बड़ी भयानक है। कदम-कदम पर डाकू और लुटेरे छिपे हैं; खाली हाथ जाना उचित नहीं है। यह कहकर महेंद्र ने फिर घर में वापस जाकर बंदूक, गोली बारूद साथ में ले ली। यह देखकर कल्याणी ने कहा-अगर अस्त्र की बात याद की है तो जरा लड़की को गोद में सम्हाल लो, मैं भी हथियार ले लूं यह कहकर कल्याणी ने लड़की महेंद्र की गोद में देकर घर के भीतर प्रवेश किया। महेंद्र ने पूछा-तुम कौन-सा हथियार लोगी कल्याणी ने घर में जाकर विष की एक डिबिया अपने कपड़ों के अंदर छिपा ली। जेठ का महीना है। भयानक गर्मी से पृथ्वी अगिन्मय हो रही है; हवा में आग की लपट दौड़ रही है, आकाश गरम तवे की तरह जल रहा है, राह की धूल आग की चिनगारी बन गई है। कल्याणी के शरीर से पसीने की धार बहने लगी; कभी पीपल के नीचे, कभी बड़ के नीचे, कभी खजूर के नीचे छाया देखकर तिलमिलाती हुई बैठ जाती है। सूखे हुए तालाबों का कीचड़ से सना मैला जल पीकर वे लोग राह चलने लगे। लड़की महेंद्र की गोद में है- समय समय पर वे उसे पंखा हांक देते हैं। कभी घने हरे पत्तों से दाएं, सुगंधित फूलों वाले वृक्ष से लिपटी हुई लता की छाया में दोनों जन बैठकर विराम करते हैं। महेंद्र ने कल्याणी को इतना सहनशील देखकर आश्चर्य किया। पास के ही एक जलाशय से वस्त्र को जल से तर कर महेंद्र ने उससे कन्या और पत्नी का जलता माथा और मुंह धोकर कुछ शांत किया। इससे कल्याणी कुछ आश्वस्त अवश्य हुई, लेकिन दोनों ही भूख से बड़े विह्वल हुए। वे लोग तो उसे भी सहने लगे, लेकिन बालिका की भूख-प्यास उनसे बर्दाश्त न हुई, अत: वहां अधिक देर न ठहरकर वे लोग फिर चल पड़े। उस आग के सागर को पार कर संध्या से पहले वे एक बस्ती में पहुंचे। महेंद्र के मन में बड़ी आशा थी कि बस्ती में पहुंचकर वे अपनी पत्नी और कन्या की शीतल जल से तृप्त कर सकेंगे और प्राणरक्षा के निमित्त अपने मुंह में भी कुछ आहार डाल सकेंगे। लेकिन कहां? बसती में तो एक भी मनुष्य दिखाई नहीं पड़ता। बड़े-बड़े घर सूने पड़े हुए हैं, सारे आदमी वहां से भाग गए हैं। इधर-उधर देखकर एक घर के भीतर महेंद्र ने स्त्री-कन्या को बैठा दिया। बाहर आकर उन्होंने जोरों से पुकारना शुरू किया, लेकिन उन्हें कोई भी उत्तर सुनाई न पड़ा। तब महेंद्र ने कल्याणी से कहा-तुम जरा साहसपूर्वक अकेली रहो; देखूं शायद कहीं कोई गाय दिखाई दे जाए। भगवान श्रीकृष्ण दया कर दें तो दूध ले आएं। यह कहकर महेंद्र एक मिट्टी का बरतन हाथ में लेकर निकल पड़े। बहुतेरे बरतन वहीं पड़े हुए थे।