लालची व्यापारी की कथा
कूट वाणिज जातक की गाथा – [पण्डित नाम ही अच्छा है, प्रति पण्डित नहीं। मेरे इस बेटे ने अति पण्डित होकर मुझे लगभग भस्म ही कर डाला था।]
वर्तमान कथा – लालची व्यापारी की कथा
श्रावस्ती में दो व्यापारी रहते थे। दोनों ने समान पूंजी लगाकर वाणिज्य किया और खूब धन कमाया। जब उस धन के बटवारे का प्रश्न उठा, तब एक की नीयत बिगड़ गई। वह अपने लिये अधिक भाग चाहता था। दोनों भगवान बुद्ध की सेवा में उपस्थित हुए। उनकी बातें सुनकर भगवान ने कहा–
यह वणिक अपने को इसी जन्म में अति चतुर समझता है, ऐसा नहीं है। इससे पूर्व भी यह ऐसा ही कर चुका है। लोगों के पूछने पर उन्होंने पिछले जन्म की लालची व्यापारी की कथा इस प्रकार सुनाई।
अतीत कथा – पंडित और अतिपंडित का विवाद
एक बार बोधिसत्व का जन्म वाराणसी में एक बनिए के घर में हुआ। लक्षण देखकर विद्वानों ने उसका नाम पण्डित रखा। बड़े होने पर उन्होंने एक दूसरे बनिए को अपना साझीदार बनाकर वाणिज्य प्रारम्भ किया। इस दूसरे बनिए का नाम था अतिपण्डित।
वाणिज्य में खूब लाभ होने पर धन के बंटवारे का प्रश्न उपस्थित हुआ। पण्डित ने कहा, “जो कुछ भी है उसे दो बराबर भागों में बाँट लो, क्योंकि हम दोनों का मूलधन समान है और हमने काम भी समान रूप से ही किया है।”
परन्तु अति-पण्डित इस तर्क को स्वीकार न करता था। वह कहता था, “यदि दोनों को बराबर-बराबर मिला तो पण्डित और अति पण्डित में भेद ही क्या रहा? मैं अति पण्डित हूँ, इसीलिये मुझे पण्डित से दूना मिलना उचित है।” विवाद चलता रहा और कोई निर्णय न हो सका।
अति पण्डित ने घर आकर अपने वृद्ध पिता को सलाह दी “देखिये पिताजी, मैं आपको एक वृक्ष के खोखले में बिठा दूंगा। जब मैं उस पण्डित को लेकर वृक्ष के नीचे आकर पुकारूँ, “हे वृक्ष देव, पंडित और अति पंडित में धन का बँटवारा किस प्रकार होना उचित है, तब आप स्वर बदल कर कहना कि अति पण्डित को पण्डित से दूना मिलना उचित है।”
पिता भी लोभी था। पुत्र के प्रस्ताव को उसने स्वीकार कर लिया और वृक्ष के खोखले में छिपकर बैठ गया।
इधर अतिपंडित ने जाकर पंडित से कहा, “भाई, देख इस गांव के बाहर एक वृक्ष देवता है जो सदा उचित ही बात बताता है। क्यों न हम अपने झगड़े का निर्णय उसी से करा लें?”
पंडित को वृक्ष देवता की बात पर विश्वास न था, परंतु इस विषय में उसे कुतूहल अवश्य था। इसीसे उसने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया।
नगर में समाचार फैल गया। वृक्ष देवता का चमत्कार देखने को बहुत-से लोग एकत्र हो गए। वृक्ष के नीचे खड़े होकर अति पंडित ने कहा, “हे वृक्ष देव, मेरा नाम अति पंडित है। मैं वाणिज्य करता हूं, जिसमें पंडित नाम का एक साझीदार है। कृपा कर यह निर्णय कर दीजिए कि हम दोनों में धन का बँटवारा किस प्रकार हो?”
थोड़ी देर सन्नाटा रहा। उसके पश्चात वृक्ष में से मनुष्य-कण्ठ का-सा शब्द हुआ–
“हे नगर वासियो, तुम्हें आपस में लड़ना नहीं चाहिए और जिसका जो भाग हो उसे देने में हीला-हवाला नहीं करना चाहिए। मैं निर्णय देता हूँ कि पण्डित को एक भाग तथा अति पण्डित को दो भाग मिलना चाहिए।”
वृक्ष को मनुष्य की भाँति बोलते देख बहुत-से लोगों को आश्चर्य हुआ। पण्डित ने कहा, “यदि यह देवता का निर्णय है तो मुझे स्वीकार करने में कोई आपत्ति न होगी। परन्तु बोलने वाला देवता है या मनुष्य, इसका निर्णय वृक्ष में आग लगाकर करवाऊँगा।”
देखते-देखते वृक्ष के खोखले में घास फूस भरकर आग लगा दी गई। बिचारा बूढ़ा एकदम घबड़ाकर उस खोखले का घास-फूस हटाकर अधजले हाथ पांवों से नीचे गिरा। इस प्रकार अतिपण्डित द्वारा अपने साथी को ठगने का प्रयास विफल हुआ।
अति पण्डित के पिता ने जो कुछ कहा, वही लालची व्यापारी की कथा का सार भी है। उसी का वर्णन उपरोक्त गाथा में है। उसने कहा – पण्डित नाम ही अच्छा है, प्रति पण्डित नहीं। मेरे इस बेटे ने अति पण्डित होकर मुझे लगभग भस्म ही कर डाला था।