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हिरनी की प्राण-रक्षा

निग्रोधमिग जातक की गाथा 

केवल निग्रोध मृग के ही साथ रहना और शाखा मृग का साथ मत करना। निग्रोध मृग के साथ रहकर, हे पुत्र! मरना भी श्रेयस्कर है, परन्तु शाखा-मृग के साथ दीर्घ जीवन भी वांछनीय नहीं है।

वर्तमान कथा – गर्भवती भिक्षुणी की कहानी
राजगृह के एक धनी सेठ की कन्या परम धर्मनिष्ठ तथा पवित्र आचरण वाली थी। आयु के साथ-साथ ही अर्हत पद प्राप्त करने की उसकी इच्छा भी प्रबल हुई। आत्मज्ञान होने पर उसमें त्याग की भावना जागृत हुई। उसने एक दिन अपने माता-पिता से कहा, “मेरा मन सांसारिक सुखों से विरत हो रहा है। मैं भगवान बुद्ध से दीक्षा लेना चाहती हूँ।”

माता-पिता कन्या के प्रस्ताव को सुनकर चौंक पड़े। उन्होंने कहा, “हमारा एक धनी और प्रतिष्ठित परिवार है। तू ही हमारी एकमात्र संतान है। हम तुझे इस कार्य की अनुमति देने में असमर्थ हैं।”

जब बार-बार प्रयत्न करने पर भी वह अपने माता-पिता की अनुमति न पा सकी तो उसने सोचा कि विवाह के उपरान्त दूसरे परिवार में जाकर मैं अपने पति की अनुमति से दीक्षा लूंगी।

इस प्रकार कन्या का विवाह बड़ी धूमधाम से सम्पन्न हो गया। अपने नए घर में जाकर वह कन्या परम पतिपरायणा, सती और दयावती नारी सिद्ध हुई। एक बार नगर में बहुत बड़ा उत्सव था। सारे नगर में सजावट और धूम-धाम दिखाई देती थी, परन्तु सेठ की पत्नी ने उस दिन कोई शृंगार नहीं किया। नित्य की भांति साधारण वस्त्र पहने तथा बिना अलंकारों के वह घर का काम-काज कर रही थी। सेठ ने आश्चर्य भाव से पूछा, “अरे यह क्या? आज भी तुम इसी वेष में रहोगी क्या? शृंगार क्यों नहीं किया?”

सती ने उत्तर दिया, “इस मलयुक्त नश्वर शरीर के शृंगार से क्या लाभ? जरा और मृत्यु का ग्रास यह शरीर क्या शृंगार करने योग्य है ? श्मशान की धरोहर, वासनाओं का क्रीड़ास्थल, रोगों का आवास और कर्मों का संचित कोष-मात्र ही तो है यह शरीर। भीतर से मल युक्त होने से यह बाहर भी मलों का ही प्रसार करता है। इसका शृंगार एक मलपात्र के शृंगार के समान है।”

पति को यह उपदेश कुछ अच्छा न लगा। उसने कहा, “यदि तुम इस शरीर को इतना पापमय समझती हो तो भिक्षुणी क्यों नहीं हो जाती?”

पत्नी ने सहज भाव से उत्तर दिया, “यदि मुझे स्वीकार कर लिया जाय तो मैं आज ही व्रत लेने को तयार हूँ।”

पत्नी की अत्यधिक रुचि देखकर सेठ उसे विहार में ले गया और वहाँ बहुत-सा दान देकर उसे भिक्षुणी के व्रत में दीक्षित करा दिया। इस प्रकार भिक्षुणी हो जाने पर उसे देवदत्त के आश्रम में अन्य भिक्षुणियों के साथ रखने की व्यवस्था कर दी गई।

संयोग से जिस समय सेठ की पत्नी आश्रम में आई उस समय उसे गर्भ था परन्तु इसका उसे ज्ञान न था। धीरे-धीरे गर्भ के लक्षण प्रत्यक्ष होने लगे। भिक्षुणियों में इससे बड़ी चिन्ता फैल गई और उन्होंने देवदत्त से इसकी चर्चा की। देवदत्त ने बदनामी के डर से उसे आश्रम से निकाल देने का आदेश दे दिया। परन्तु वह नई भिक्षुणी दृढ़ संकल्प और साहस वाली थी। उसने अपनी संगिनियों से कहा, “मैंने दीक्षा तथागत से ली है। देवदत्त तो बुद्ध नहीं है। मुझे दीक्षा बड़ी कठिनता से प्राप्त हुई है, तुम मुझे उससे वंचित मत करो और मुझे तुरन्त तथागत के समीप ले चलो।”

जब भिक्षुणियों का दल जेतवन पहुँचा और तथागत के समक्ष सारा वृत्तान्त रखा, तो उन्होंने उपालि से कहा, “इस विषय का निर्णय एक सभा में होना उचित है। आशा है तुम सब व्यवस्था ठीक-ठीक कर लोगे।”

दूसरे दिन कोशल-नरेश प्रसेनजित, अनाथपिंडक, विशाखा तथा कोशल के अनेक भक्तगण जेतवन के विहार में उपस्थित हुए। उपालि ने विशाखा को इस विषय की जाँच करने का कार्य सौंपा कि गर्भ दीक्षा लेने से पूर्व का है या उसके बाद का। विशाखा ने भिक्षुणी को एकांत में ले जाकर उससे बात की तथा उसकी परीक्षा करके यह घोषणा की कि गर्भ दीक्षा से पूर्व का है। इस प्रकार वह भिक्षुणी निर्दोष मानी जाकर पुनः आश्रम में भेज दी गई।

समय पर उसके एक पुत्र हुआ। एक दिन मगध के राजा को आश्रम में एक बालक के रोने का शब्द सुनाई दिया। उन्होंने जब यह जाना कि एक भिक्षुणी माता हुई है तो उस बालक को माँग कर ले गए। मगध के राजमहल में बालक का राजकुमारों की भांति लालन-पालन हुआ। इस बालक में असाधारण ज्ञान के लक्षण बहुत थोड़ी आयु में ही प्रगट हो गए और सात वर्ष का होने पर उसे तथागत ने अपनी शरण में ले लिया। यही ज्ञानी भिक्षु कश्यप अथवा राजकुमार कश्यप के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

भगवान बुद्ध के समक्ष चर्चा चलने पर उन्होंने कहा, “तथागत ने इसी जन्म में माता और पुत्र की रक्षा नहीं की है, इससे पूर्व भी उन्होंने ऐसा ही किया था। भिक्षुणी रूपी हिरनी की प्राण-रक्षा भगवान् ने की थी। ऐसा कहकर उन्होंने पूर्व जन्म की कथा सुनाई।

अतीत कथा – हिरनी और हिरनौटे की प्राण-रक्षा
एक बार, जब काशी में राजा ब्रह्मदत्त राज्य करता था बोधिसत्व का जन्म एक मृग के रूप में हुआ। जन्म से ही इस मृग का शरीर सोने के रंग का था, उसकी आँखें रत्नों की भांति दमकती थीं, उसके सींग चांदी की भांति श्वेत रंग के थे, उसका मुख रक्त-वस्त्र की पोटली के समान तथा उसको पूंछ सुरागाय की पूंछ के सदृश थी। उसके साथ ५०० तरुण हिरनों तथा हिरनियों का समूह था। लोग उसे निग्रोध मृगराज कहते थे। निकट में ही मृगों का एक दूसरा समूह रहता था उसके सरदार के शरीर का भी रंग सोने का था। उसे लोग शाखा मृग कहकर पुकारते थे।

काशी के राजा को आखेट बहुत प्रिय था। वह अपना राज-काज छोड़ कर प्रायः ही आखेट को चला जाया करता था। राज्य के लोगों ने सोचा कि राजा मृगया के लिये राज्य का सब काम छोड़ कर चला जाता है, इससे हम सबको असुविधा होती है। क्यों न हम लोग राजा के उद्यान में ही वन के मृगों को हाँक लावें। ऐसा सोचकर उन्होंने उद्यान में बहुत-सी घास बो दी और मृगों के पीने के लिये पानी की भी व्यवस्था कर दी। इसके पश्चात् वे जंगल में गए और मृगों को घेरकर उद्यान में कर दिया। फाटक बंद हो जाने से अब कोई मृग बाहर न जा सकता था। एक बार राजा उद्यान में गया वहाँ उसने अन्य मृगों के साथ बोधिसत्व (स्वर्ण मृग) को भी देखा। उस मृग के रूप और गुणों से प्रभावित हो उसने उसके वध का निषेध कर दिया। परन्तु वह स्वयम् धनुष-बाण लेकर उद्यान में जाता था और अन्य मृगों का शिकार नित्य ही किया करता था।

बोधिसत्व ने मृगों की प्राण रक्षा के लिये एक उपाय निकाला। शाखामृग को बुलाकर उसने सलाह की और यह निश्चय किया कि आखेट की प्रथा बन्द की जाय। एक मृग वध-भूमि पर नित्य नियम पूर्वक भेज दिया जाय। नियम मान्य हो गया और राजा ने मृगों का शिकार बन्द कर दिया। एक दिन एक गर्भिणी मृगी ने शाखामृग से कहा, “आज मेरी बारी वध भूमि में जाने की है, परन्तु मैं गर्भवती हूँ। मेरे साथ एक मृग की और भी हत्या हो जायगी। आप मेरे स्थान पर किसी दूसरे मृग को भेज देने की व्यवस्था कर दें।” परन्तु शाखा-मृग ने कहा, “नहीं, आदेश का पालन करना तुम्हारा कर्तव्य है। बार-बार आदेश बदलने से व्यवस्था नष्ट हो जाती है।” इस क्रूर निर्णय को सुनकर मृगी निराश हो गई, परन्तु उसने साहस नहीं छोड़ा और बड़ी आशा के साथ बोधिसत्व से अपनी व्यथा निवेदन की। बोधिसत्व ने कहा, “तू निर्भय रह। मैं दूसरी व्यवस्था कर दूंगा।” मृगी प्रसन्न होकर चली गई।

दूसरे दिन वधिक ने राजा से निवेदन किया, “महाराज वध-भूमि पर आज निग्रोध मृग उपस्थित है जिसे मारने का आपने निषेध किया है। राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ। वह हाथी पर चढ़कर वधभूमि पर पहुँचा। निग्रोध मृग को देखकर राजा ने कहा, “हे मृगराज! मैंने तुम्हें प्राणदान दिया था। फिर तुम्हारे इस स्थान पर आने का क्या कारण है?”

बोधिसत्व ने कहा, “हे राजन्! मेरे पास एक मृगी ने आकर कहा कि मैं गर्भवती हूँ अतः मेरे स्थान पर किसी दूसरे मृग को भेजने की व्यवस्था की जाय। उसकी जीवन रक्षा के लिये मैं स्वेच्छापूर्वक अपने को अर्पित कर रहा हूँ। आप इसका कुछ और अर्थ न समझें।”

राजा ने कहा, “हे मृगराज! मैंने इतना बड़ा त्याग करने वाला व्यक्ति मनुष्यों में भी नहीं देखा है। तुम धन्य हो। मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ और तुम्हारे साथ उस मृगी को भी अभय करता हूँ। अब तुम्हारी और उस हिरनी की प्राण-रक्षा करना मेरा कर्तव्य है।”

बोधिसत्व ने कहा, “हे राजन्! दो की प्राण रक्षा से क्या होगा। शेष तो मृत्यु मुख में जायेंगे ही।”

राजा ने कहा, “अच्छा, मैंने उन सबको भी अभय किया।”

बोधिसत्व ने फिर कहा, “इससे तो उद्यान के हिरनों की प्राण-रक्षा हुई। परन्तु उद्यान से बाहर वाले बाणों का लक्ष्य बनेंगे ही।”

राजा ने कहा, “अच्छी बात है। मैंने सम्पूर्ण मृग जाति को अभय किया।”

बोधिसत्व ने कहा, “हे राजन्! तेरी दया अपार है। परन्तु दया में कृपणता अच्छी नहीं। मृगों की रक्षा होने पर भी अन्य चतुष्पद विपत्तिग्रस्त रहेंगे।”

राजा ने कहा, “हे लोक कल्याण-कामी, तेरी प्रसन्नता के लिये मैं समस्त चतुष्पद जगत् को अभय देता हूँ।”

इसी प्रकार बोधिसत्व ने राजा से जलचर, नभचर और थलचर समस्त जीवों को अभयदान दिला दिया। अंत में बोधिसत्व से पंचशील का उपदेश प्राप्त कर राजा अपने महल को लौट गया। बोधिसत्व जीवों को अभयदान दिलाकर अपने अनुयायियों सहित पुनः वन में चले गए।

समय आने पर मृगी ने एक सुन्दर शावक को जन्म दिया। जब वह बड़ा हुआ तो उसकी माँ ने उसे उपदेश रूप में उपरोक्त कथा सुनाई और बताया कि बोधिसत्व ने कैसे हिरनौटे और हिरनी की प्राण-रक्षा की थी।

इस जातक कथा के अंत में भगवान ने कहा, “इस जन्म का देवदत्त ही उस जन्म में शाखामृग था। आनन्द काशी का राजा था। भिक्षुणी गर्भिणी हिरणी थी और उसका बालक राजकुमार कश्यप मृग-शावक था। मैं स्वयं तो निग्रोधमृग था ही।”