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दुष्टपाल का विनाश

जब दुष्टपाल ने सुना कि उसका भाँजा जिंदा ही लौट आया है तो उसे अपने कानों पर विश्वास न हुआ। तो भी उसने बनावटी खुशी दिखाते हुए उसकी अगवानी की और बूढ़े की ओर देख कर पूछा

 

‘ये कौन हैं ?'

 

'मैं इन्हीं की मदद से यह काम पूरा करके जिंदा लौट सका। अगर ये न होते तो मेरी जान कभी न बचती। मैंने राक्षस को मार कर उसके सिर इन्हीं की सलाह से इस थैली में बंद कर दिए हैं। लेकिन आप उनको नहीं देख सकते।' धीरसेन ने जवाब दिया।

 

' 'क्यों? मैं उन्हें क्यों नहीं देख सकता? इसमें कौन सा रहस्य छिपा है ?' दुष्टपाल ने तुरंत पूछा।

थैली खोलने में बड़ा भारी ख़तरा है। बात यह है कि मरने के बाद भी छः महीने तक इन सिरों में जान रहती है। इस बीच में जो उनको देखता है वह तुरंत पत्थर बन जाता है। इसलिए उन्हें देखने के लिए आपको छः महीने तक ठहरना पड़ेगा।' धीरसेन ने जवाब दिया।

 

‘अगर तुम्हारी बात सच है तो तुम उसे देखे बिना कैसे मार सके ? हमें तो ऐसा मालूम होता है कि तुम झूठ-मूठ की डींग हाँक रहे हो। उन सिरों को देखे बिना मैं यह कभी विश्वास नहीं कर सकता कि तुमने सचमुच राक्षस को मार डाला है। मैं वह थैली जरूर खोल कर देलूँगा।'

 

राजा दुष्टपाल ने कहा। मंत्रियों ने भी हाँ में हाँ मिलाई–

 

'हाँ, वह थैली जरूर खोल कर देखनी चाहिए।  हमें भी इसकी बातों पर बिलकुल विश्वास नहीं होता।'

 

तब बूढ़े और उसकी भाँजी ने भी राजा को बहुत समझाया। उन्होंने कहा-

 

'आप क्यों बेकार हठ करते हैं ? उन सिरों पर नज़र पड़ते ही आप सभी तुरंत पत्थर बन जाएँगे।' लेकिन राजा ने उनकी भी न सुनी। मंत्रियों ने भी न माना।

 

'जैसी आपकी मर्जी! हमें जो कुछ कहना था कह चुके। अगर आप न मानें तो उसकी जिम्मेवारी हम पर नहीं।'

 

यह कह कर बूढ़े ने फिर धीरसेन और अपनी माँजी के सिर पर जादू के मुकुट रख दिए। तुरंत वे अदृश्य हो गए। उनकी जगह सिर्फ दो मुकुट दिखाई देने लगे। यह देख कर दरबारी सभी चकित हो गए।

 

तब बूढ़े ने फिर कहा-

 

‘मैं फिर आखिरी बार चेता रहा हूँ कि आप अपना हठ छोड़ दीजिए। नहीं तो पल भर में आपकी जगह पत्थर की मूरतें खड़ी हो जाएँगी।'

 

लेकिन राजा और उसके दरबारियों को उसकी बात पर यकीन न हुआ। उन सब ने एक स्वर से कहा—

 

‘जो भी हो, हम उन सिरों को जरूर देखेंगे।'

 

तब बूढ़े ने जान लिया कि उन्हें समझाने-बुझाने से कोई फायदा नहीं। उसने थैलो जमीन पर रख दी और धीरसेन से  कहा-

 

‘मैं बाहर जाता हूँ। तुम मेरी पहले की बातों पर ध्यान रख कर थैली खोल दो। उनको दिखा कर फिर तुरंत उसका मुँह बाँध देना! तब मुझे पुकारना ! मैं अंदर आ जाऊँगा।‘

 

यह कह कर बूढ़ा अपनी भाँजी के साथ बाहर चला गया। वहाँ वे दोनों पीठ फेर कर खड़े हो गए।

 

'मामा! अलविदा!' यह कह कर धीरसेन ने अपनी ढाल में परछाईं देखते हुए थैली का मुँह खोला। तुरंत राक्षस के तीनों सिर जमीन पर लुढ़क पड़े। उन्हें देखते ही राजा, मंत्री और दरबारी सभी जहाँ के तहाँ पत्थर बन गए।

 

तब धीरसेन ने अपनी माँ के पास जाकर सारा किस्सा कह सुनाया। वह बहुत ही खुश हुई। कुछ दिन बाद धीरसेन ने बूढ़े की भाँजी से ब्याह कर लिया और गद्दी पर बैठा। उसके राज में सब लोग सानंद रहने लगे।