Get it on Google Play
Download on the App Store

आरंभ

कहा जाता है कि किसी समय शाँतिनगर नामक शहर में शाँतसिंह नाम का राजा था। उसकी रानी शाँतिमती सब तरह से उसके योग्य स्त्री थी। वे दोनों अपनी प्रजा को बहुत प्यार करते थे और अपनी संतान की तरह उनकी देख भाल करते थे। उनके एक ही लड़का था जिसका नाम धीरसेन था।

 

राज करते करते शांतसिंह अचानक चल बसा। उस समय धीरसेन की उम्र छः बरस से ज्यादा न थी। इसलिए उसका मामा दुष्टपाल राजकाज देखने लगा। धीरे धीरे दुष्टपाल के मन में लोभ पैदा हुआ। उसने सोचा-

 

'मेरा भाँजा बड़ा होकर फिर अपना राज वापस ले लेगा। इसलिए किसी न किसी तरह इसको राज से निकाल देना चाहिए।'

 

इस तरह उसके मन में बुरी नीयत पैदा हो गई। लेकिन ऊपर से वह झूठ-मूठ का प्रेम दिखाता रहा।

 

इस तरह चौदह साल बीत गए। धीरसेन अब बीस साल का नौजवान हो गया था। उसने सब तरह के हथियार चलाना सीख लिया था। उसकी बहादुरी देख कर दुश्मन लोग मन ही मन डरने लगे।

 

तब एक दिन शाँतिमती ने अपने भाई दुष्टपाल से कहा-

 

'भैय्या । इतने दिन तक तुमने कष्ट उठा कर राजकाज देखा। हम इसके लिए हमेशा तुम्हारे ऋणी रहेंगे। लेकिन अब तुम्हारा भाँजा बड़ा हो गया है। इसलिए राज्य का भार शीघ्र ही  

उसे सौंप कर अब तुम निश्चिन्त हो जाओ।'

 

'बहन! तुम्हारा कहना बिलकुल ठीक है। मैं भी यही सोच रहा था। लेकिन राजा बनने के पहले धीरसेन को एक काम करना होगा। नहीं तो यह राज चौपट हो जाएगा। धीरसेन के सिवा वह काम और कोई नहीं कर सकता। जब वह यह काम पूरा करके लौटेगा, तो मैं धूम-धाम से उसका राज-तिलक करा दूंगा।'

 

दुष्टपाल ने अपनी बहन को इस तरह समझाया कि वह बेचारी आसानी से उसके जाल में फंस गई। दूसरे दिन दुष्टपाल अपने मंत्रियों को बुला कर धीरसेन को मारने का उपाय सोचने लगा।

 

उसके मंत्री उससे भी बड़े दुष्ट थे।उनमें से एक को एक उपाय सूझा। उसने कहा-

 

'यहाँ से तीन सौ मील की दूरी पर पूरब में एक भयङ्कर राक्षस रहता है। वह राक्षस कैसा है, किस जगह रहता है, यह किसी को नहीं मालूम । बड़े बड़े शूर-वीरों ने जाकर उसे मारने की कोशिश की। लेकिन कोई कामयाब न हुआ। इतना ही नहीं। उनमें से एक भी जिन्दा लौट कर न आया। उस राक्षस को मारने के लिए धीरसेन को भेजिए । विश्वास रखिए, वह कभी लौट कर नहीं आ सकेगा। फिर आप निश्चिन्त होकर राज कीजिएगा।'

 

राजा को उसकी राय बहुत पसन्द आई। उसने तुरन्त धीरसेन को बुलवाया और कहा-

 

'प्यारे भान्जे! इतने दिन से तुम नाबालिग थे। इसलिए राजकाज मैं ही देखता था । लेकिन अब तुम सयाने हो गए हो। इसलिए मैंने तुम्हें राज सौंप देने का निश्चय कर लिया है। लेकिन इसके पहले तुम्हें एक काम करना होगा। जब तुम इस काम में कामयाब हो जाओगे तब मैं अपनी लड़की से तुम्हारा व्याह कर दूंगा और तुम्हें गद्दी पर बिठा दूंगा। सुना जाता है कि यहाँ से तीन सौ मील की दूरी पर पूरबी समुन्दर के किनारे एक मायावी राक्षस रहता है। वह हर साल किसी न किसी राज पर टूट पड़ता है और प्रजा को मार कर खा जाता है। इस तरह बहुत से राज चौपट हो गए हैं।  

 

मुझे मालूम हुआ है कि अब उसकी नजर हमारे सुखी राज पर पड़ी है। इस राज की रक्षा के लिए उसे मार डालना बहुत जरूरी है। तुम कल ही यहाँ से कूच करो और उस राक्षस को जीत कर उसका सिर काट लाओ। फिर हमारे राज को कोई चिन्ता न रहेगी।

 

तुम अस्तबल से अच्छा सा घोड़ा ले लो। मैं तुम्हें एक सुन्दर ढाल और एक तेज तलवार देता हूँ। इनकी सहायता से तुम उस राक्षस को मार कर शीघ्र ही लौट आओ।'

 

यह कह कर उसने आशीर्वाद दिया। तब धीरसेन ने कहा-

'अच्छा; मामा! मैं कल ही यहाँ से कूच कर दूंगा। एक साल के पहले ही राक्षस को मार कर लौट आऊँगा। इस मीयाद के अन्दर न लौटूं, तो अगर मैं समझ लेना कि खतरे में पड़ गया हूँ।'