सोमू-रामू
सोमू रामू गहरे दोस्त
वे थे सदा विचरते मस्त।
साथ स्कूल को जाते थे।
साथ साथ घर आते थे।
साथ साथ वे पढ़ते थे
और पेड़ पर चढ़ते थे।
खेल अनेक रचाते थे,
ऊधम खूब मचाते थे।
बात एक दिन की, पथ पर
खेल रहे दोनों मिल कर
झगड़ा इक उठ खड़ा हुआ,
बात बात में बड़ा हुआ।
सोमू ने थप्पड़ कस कर
जड़ दिया दोस्त के मुंह पर
राम ने भी दो घुसे
लगा दिए बस गुस्से से
खूब मची अब चीख-पुकारः
गूंज उठा सारा बाज़ार ।
दोनों के पिता आए
दौड़ घरों से झल्लाए ।
वे दो लगे झगड़ने अब-
'कैसे शुरू हुआ यह सब?'
'है कसुर यह रामु का!'
'नहीं नहीं! यह सोमू का!"
बात यहीं पर नहीं रुकी;
जीभे उनकी नहीं थकी।
शुरू हुई हाथा - पाई।
थी उनकी शामत आई।
यों झगड़ते बड़ों को देख
मित्रों को फिर हुआ विवेक।
मन में अचरज करते वे-
क्यों इस तरह झगड़ते थे?
दोनों हाथ मिला कर
तब पिछली याद भुला कर
सब चले गए झट निज निज घर,
बातें करते हंस हंस कर।
इधर बड़ों का यह संग्राम
चला देर तक यों अविराम।
आखिर वे भी शरमा कर
चले गए थक कर निज घर