मुर्गा और अंगीठी
किसी गाँव में रहती बच्चो! एक अकेली बुढिया;
उसके यहाँ एक मुर्गा था और अंगीठी बढियाँ ।
सुन मुर्गे की माँग रोज यह तडके ही उठ जावी;
डाल कोयला अंगीठी में झटपट आग जलाती ।
मुर्गे की कु-कु-कू सुनकर पडोसिनें भी आती,
इधर उधर की बातें करके आग माँग ले जाती ।
इसी तरह कुछ दिन जब बीते, बुढिया ने यह समझा
'मेरा मुर्गा ही दुनियों को रोज़ जगाया करता ।
और अंगीठी मेरी जलकर चूल्हे सभी जलाती ।
यह सब तो करती हूँ मैं, पर बदले में क्या पाती।
मुर्गा और अंगीठी लेकर बुढिया चली वहाँ से।
दूर पहाडी के नीचे जा रहने लगी खुशी से ।
कुछ दिन बीते; उसी गाँव का धोबी चला उधर से,
उसे देख बूढिया ने पूछा-'आता है क्या घर से ?
कह तो क्या दुनिया अब भी हर रोज़ सबेरे जगती?
क्या अब भी सबके घर पहले सी ही आग सुलगती ?"
सुन बुढिया की बातें धोबी खडा रहा मुँह बाये
ये भोले सवाल उसकी कुछ भी न समझ में आये ।
बुढ़िया ने फिर फिर पूछा तो बोला डरते डरते-
'हाँ; सब तडके जगकर चूल्हे रोज़ जलाया करते।'
मुर्गे और अंगीठी से अब मैं ने धोखा खाया!'
कह बुढ़िया ने फोड अंगीठी, मुर्गे को मरवाया ! '
मैं ही यह संसार चलाता। कुछ यों सोचा करते
और गर्व से फूल अंत में बुढिया सा कुढ मरते ।