बचपन का प्रेम
चित्रांगदा ने इससे पहले अपने को कभी इतना अपमानित महसूस नहीं किया था। उसने शिकार का इरादा छोड़ दिया और तुरन्त अपने महल में लौट आई। उसने शिकार के लिए पहना हुआ पुरुष वेश उतार दिया और स्त्रियों के सुन्दर वस्त्र और आभूषण पहन लिये। उसके बाद उसने स्वयं को दर्पण में देखा। उसने अनुभव किया कि वह एकदम सुन्दर नहीं है और अर्जुन जैसा पुरुष उसकी बिलकुल पर वह नहीं करेगा । उसे इतनी निराशा हुई कि वह पलंग पर गिर कर रोने लगी।
यह सच है कि चित्रांगदा सुन्दर नहीं थी। वास्तव में वह बदसूरत थी। उसके पिता के कोई बेटा नहीं था। इसलिए उसने अपनी बेटी को वह सब शिक्षा दी थी जो सामान्यतः एक राजकुमार को दी जाती है। वह अच्छी घुड़सवार थी और सब तरह के घोड़ों को नियन्त्रित कर सकती थी। हथियार चलाने में वह अपने पिता के सिपाहियों से कहीं अधिक निपुण थी। वह शिकार खेलने की शौकीन थी। वह शत्रुओं के विरुद्ध राजा की सेना का नेतृत्व करती थी। उसने चोरों और डाकुओं को, जो जनता को तंग करते थे बड़ी सख्ती से दबा दिया था। कभी-कभी वह अकेली ही उनसे लोहा लेती थी। इन सब बातों के कारण चित्रांगदा तेजस्वी और पुरुषों जैसी लगती थी।
राजा ने उसे अपना उत्तराधिकारी और अपनी सेना का सेनाध्यक्ष नियुक्त किया था। उसके सिपाही, दरबारी और राजकुमार सब उसके साहस और उसकी निपुणता की सराहना करते थे। अपने तरीके से वह उसकी पूजा तक करते थे लेकिन किसी ने भी उससे विवाह का प्रस्ताव नहीं किया था। कोई भी ऐसी बदसूरत और मरदाना स्त्री को अपनी पत्नी नहीं बनाना चाहता था । चित्रांगदा बिस्तर पर पड़ी सारी रात रोती रही। उसकी मुँह लगी सेविका ने यह पता लगाने की बहुत कोशिश की कि राजकुमारी क्यों दुखी है।
बहुत खुशामद करने के बाद चित्रांगदा ने अपने मन की बात उसे बताई, "मैं अर्जुन से प्यार करती हूँ|” उसने अपनी सेविका को बताया।
“बचपन से ही वह मेरे मन में बसे हुए हैं। इतने वर्षों तक उनकी प्रतीक्षा करना मुझे बुरा नहीं लगा। अन्त में मैं जब उनसे मिली तो उन्होंने बुरी तरह मेरी उपेक्षा की। अब मुझे ऐसा लगता है कि इसके बाद मेरा जीवित रहना व्यर्थ है| मेरे सबसे बहादुर मनुष्य के समान बहादुर होने से क्या लाभ?”
उसने रोते-रोते कहा, “आधी दुनिया पुरुषों से भरी है। उनमें से अनेक राजा और योद्धा हैं लेकिन वीरता में कोई मेरी बराबरी नहीं कर सकता, परन्तु मैं एक योद्धा बनकर ही सन्तुष्ट नहीं हूँ। अब मैं अनुभव करती हूँ कि मैं स्त्री भी हूँ। मैं चाहती हूँ कि पुरुष मुझे स्त्री समझे और वैसा ही व्यवहार करे, लेकिन देखो और की तो बात ही क्या अर्जुन ने भी मेरा कैसा तिरस्कार किया। मैंने पहले कभी अपने को इतना अपमानित, पराजित और दुखी अनुभव नहीं किया जितना अब। काश मैं मर गई होती...!" चित्रांगदा सुबकने लगी और देर तक वह बुरी तरह रोती रही।