अन्तिम अध्याय
“चारुदत्त..!” न्यायाधीश बोले,“हम तुम्हारे उत्तर के लिए और प्रतीक्षा नहीं कर सकते।
“श्रीमान,” चारुदत्त ने शान्तिपूर्वक कहा, “संस्थानक ने जो कुछ कहा है वह सब सच है।”
संस्थानक उछल पड़ा और चिल्लाया,“यह सत्य है। श्रीमान क्या मैंने पहले ही नहीं कहा था कि चारुदत्त ने वसन्तसेना को मारा है।"
मैत्रेय अपने मित्र की उस गलत बात को नहीं सह सका। वह उसकी ओर लपका और चिल्लाया, “यह तुमने क्या किया? तुम सच क्यों नहीं बोलते हो?"
यदि अब चारुदत्त चुप खड़ा रहा। मैत्रेय ने न्यायाधीश की ओर मुड़कर विनती की, “श्रीमान जी, कृपा कर के मेरी बात सुन लीजिए। मेरा मित्र वसन्तसेना की मृत्यु के दुख से पागल हो गया है। उसके कहने का विश्वास मत कीजिए। ज़रा मेरी बात सुनिए। मैं आपको सच बात बताऊंगा।”
“यह उसका साथी है। मैं आप से फिर कहता हूँ|” संस्थानक चिल्लाया।
"शान्ति, शान्ति, चुप रहिए,” न्यायाधीश ने आदेश दिया, “कोई कुछ और बोलेगा तो मैं अदालत का कमरा खाली करवा दूंगा। मैत्रेय, तुम्हारे मित्र चारुदत्त ने अपना अपराध स्वीकार कर लिया है और सब साक्षियाँ भी उसकी बात का अनुमोदन करती हैं। मारनेवाले और खासकर स्त्री को मारनेवाले की सज़ा मौत ही होनी चाहिए। लेकिन चारुदत्त की भद्रता और नगर के कामों में उसका योगदान और उसके उपकारों को देखते हुए मैं उसे मौत की सजा देने का निश्चय नहीं कर सका। मैं राज्यपाल से सिफारिश कर सकता हूँ कि हालाँकि वह मौत की सजा का अधिकारी है फिर भी उसकी सज़ा हल्की कर दी जाय, उसे नगर से बाहर निकाल दिया जाय।"
चारुदत्त के मुकदमे में राज्यपाल का अन्तिम निर्णय दूसरे दिन ही आ गया। उसने चारुदत्त को मौत की सज़ा देने का फैसला सुनाया और वह भी अगले ही दिन। नगर के लोगों--पुरुषों, स्त्रियों और बच्चों को चारुदत्त के अपराध स्वीकार करने पर दुख था। उन सबको विश्वास था कि चारुदत्त निरपराध है और संस्थानक ने उस पर गलत आरोप लगाया है। वे सब संस्थानक से घृणा करते थे। नगर में बहुत हलचल और क्षोभ था लेकिन लोग फैसले को बदलवा सकने में असमर्थ थे। फांसी वाले दिन चारुदत्त को न्यायाधीश, उसके अधिकारी और जल्लाद पैदल ही फाँसी देने वाले स्थान पर ले गये। यह एक लम्बा और शान्त जलूस था। लोग चारुदत्त के साथ साथ चल रहे थे। उनको आशा थी कि कोई न कोई अद्भुत बात होगी और चारुदत्त बच जायेगा। हाँ, कुछ ऐसा ही हुआ। जैसे ही चारुदत्त, न्यायाधीश और अधिकारी फांसी देने के स्थान पर पहुंचे एक ओर बहुत शोर होने लगा।
“रोको...! रोको...! चारुदत्त निर्दोष है” और “वसन्तसेना जीवित है” की आवाजें आने लगीं।
“वसन्तसेना को रास्ता दो।"
“शान्ति!” न्यायाधीश ने आदेश दिया। वसन्तसेना कहाँ है ?"
“आगे आने दो जिससे हम सब भी उसे देख सकें।”
वसन्तसेना ने आगे आकर न्यायाधीश का अभिवादन किया, "श्रीमान जी, मैं वसन्तसेना हूँ। यहाँ बहुत से लोग मुझे पहचान लेंगे।"
“हाँ, हाँ, हाँ, यह वसन्तसेना ही है। यह वसन्तसेना है|" भीड़ में से बहुत से स्वर उठे।
“तुम वसन्तसेना हो?” न्यायाधीश ने कहा, “तुम्हें क्या हुआ था ?"
“सबसे पहले चारुदत्त के ऊपर से यह आरोप हटा लिया जाय कि उसने मेरी हत्या की है|” वह बोली, "और उसे तत्काल छोड़ दिया जाय।"
“चारुदत्त को छोड़ दो....! चारुदत्त को छोड़ दो...!” भीड़ चिल्लाने लगी।
“चारुदत्त को छोड़ दिया जाय," न्यायाधीश ने आदेश दिया।चारुदत्त को छोड़ दिया गया।
“अच्छा, अब हम सब यह सुनें कि वसन्तसेना को क्या हुआ था उसे? संस्थानक महोदय ने मरा हुआ कैसे देखा था?" न्यायाधीश ने कहा।
"मेरी बात सुनिए,” वसन्तसेना ने शुरू किया। संस्थानक महोदय मुझे मेरे घर छोड़ देने के लिए अपने साथ बैलगाड़ी में ले गये । जैसे ही बैलगाड़ी चली संस्थानक ने जानना चाहा कि चारुदत्त के साथ मेरा क्या संबंध है? मैंने उसे बताया कि हम गहरे मित्र हैं। उसने मुझसे पूछा, रात तुम उसके घर पर रही थीं? मैंने स्वीकार किया कि मैं वहाँ रही थी।"
'तुम,' संस्थानक चिल्लाया," उसके साथ रहीं। तुम उसे मुझ से अधिक पसन्द करती हो ? मूर्ख औरत?''
"मैंने उससे साफ साफ कह दिया कि मैं उससे घृणा और चारुदत्त से प्रेम करती हूँ । वह क्रोध से पागल हो गया और उसने मुझे तथा चारुदत्त को मारने की धमकी दी। वह गुस्से से काँप रहा था। जैसे ही बैलगाड़ी नगर को छोड़कर एक सूनी सड़क पर आई उसने मुझे खींचकर बाहर निकाल लिया और एक झाड़ी में ले गया। अब उसने मेरी गर्दन अपने दोनों हाथों से पकड़ ली और मेरा गला घोंटने लगा। मैं अपनी पूरी शक्ति लगाकर उससे लड़ी। वह मेरे से बलवान था और एक लम्बी कशमकश के बाद मैं बेहोश हो गई।”
“उसके बाद मुझे उस समय तक कुछ पता नहीं चला जब तक मुझे एक बौद्ध विहार में होश नहीं आया। वहाँ के भिक्षु ने मुझे बताया कि कुछ गाँववाले उसके पास गये और बताया कि एक सुन्दर युवती की लाश झाड़ियों में पड़ी है। अपने कुछ शिष्यों के साथ वे वहाँ पहुंचे और देखा कि मैं मरी नहीं थी। वे मुझे अपने विहार में ले गये। उन्होंने मेरा इलाज किया और अच्छी तरह से देखभाल की। आज सुबह मैं बिल्कुल ठीक हो गयी। उसके बाद जब मैंने यह सुना कि आज चारुदत्त को, मुझे मारने के अपराध में, फांसी मिल रही है तो मेरा हृदय दहल गया। मैंने भिक्षु को बताया कि मैं ही वसन्तसेना हूँ। भिक्षु और उसके मित्र जल्दी जल्दी मुझे यहाँ ले आये जिससे कि मैं चारुदत्त को बचा सकू।"
“संस्थानक को फांसी दो..!! संस्थानक को फांसी दो..!!” भीड़ चिल्लाने लगी।
लेकिन संस्थानक वहाँ से कैसे खिसक गया कोई नहीं जान सका। थोड़ी देर बाद ही आर्यक एक भारी सेना लेकर वहाँ आ पहुंचा और उसने शहर पर अधिकार कर लिया। लोगों ने उसका पूरे मन से स्वागत किया। वहाँ के राज्यपाल को देश से निकाल दिया गया और आर्यक ने एक नये सुव्यवस्थित राज्य की स्थापना की।
नई सरकार में चारुदत्त को एक महत्वपूर्ण पद मिला। उसने वसन्तसेना से विवाह कर लिया और उसके बाद वे आनन्द से रहने लगे।