भाग 37
नानक को तो हमने इस तरह भुला दिया जैसे अमीर लोग किसी से कुछ वादा करके उसे भुला देते हैं। आज अकस्मात् नानक की याद आयी है, अकस्मात् काहे, बल्कि यों कहना चाहिए कि यकायक आ पड़ने वाली आवश्यकता ने नानक की याद दिला दी है।
जमानिया प्रान्त से भागे हुए स्वार्थी नानक ने वहां से बहुत दूर जाकर अपना डेरा बसाया और यही सबब है कि आज मिथिलेश की अमलदारी में एक छोटे से शहर के मामूली मुहल्ले में मंगनी का मकान लेकर लापरवाही के साथ दिन बिताते हुए नानक को हम देखते हैं। यह शहर यद्यपि छोटा है मगर दो-तीन पढ़े-लिखे विद्यानुरागी रईसों और अमीरों के कारण जिन पर यहां की रिआया का बहुत बड़ा प्रेम है, अंगूठी का सुडौल नगीना हो रहा है।
नानक यद्यपि कंगाल नहीं था मगर बहुत ही खुदगर्ज और साथ-साथ कंजूस भी होने के कारण अपने को छिपाये हुए बहुत ही साधारण ढंग से रहा करता था, अर्थात् उसके घर में (कुत्ते-बिल्ली को छोड़) एक नौकर, एक मजदूरनी और एक उसकी जोरू के सिवाय जिसे वह न मालूम कहां से उठा लाया या ब्याह लाया था, और कोई भी नहीं रहता था। लोगों का कथन तो यही था कि नानक ने ब्याह कर अपनी गृहस्थी बसाई है मगर कई आदमियों को जो नानक के साथ ही साथ रामभोली के किस्से से भी अच्छी तरह जानकार थे, इस बात का विश्वास नहीं होता था।
नानक के लिए यह शहर नया नहीं है। जब से उसका नाम इस किस्से में आया है उसके पहले भी समय-समय पर कई दफे वह इस शहर में आकर रह चुका है। अबकी दफे यद्यपि उसे इस शहर में आए बहुत दिन नहीं हुए मगर वह इस ढंग से रह रहा है जैसे पुराना वाशिन्दा हो। वह यह भी सोचे हुए है कि उसका गुमनाम बाप, अर्थात् भूतनाथ जिसका असल हाल थोड़े ही दिन हुए, उसे मालूम हुआ है, बहुत जल्द वीरेन्द्रसिंह की बदौलत मालामाल होकर शहर में आवेगा और उस समय हम लोग बड़ी खुशी से जिन्दगी बितावेंगे मगर उसकी इस आशा को बड़ा भारी धक्का लगा जैसा कि आगे चलकर मालूम होगा।
रात पहर भर के लगभग जा चुकी है। नानक अपने मकान के अन्दर वाले दालान को बिछावन आसन और रोशनी के सामान से इस तरह सजा रहा है जैसे किसी नए या बहुत ही प्यारे मेहमान की अवाई सुनकर जाहिरदारी के शौकीन लोग सजाया करते हैं। उसकी स्त्री भी खाने-पीने के सामान की तैयारी में चारों तरफ मटकती फिरती है और थालियों को तरह-तरह के खाने तथा कई प्रकार के मांस से सजा रही है। उसकी सूरत-शक्ल और चाल-ढाल से यह भी पता लगता है कि उसे अपने मेहमान के आने की खुशी नानक से भी ज्यादा है। खैर, इस टीमटाम के बयान को तो जाने दीजिये, मुख्तसर यह है कि बात की बात में सब सामान दुरुस्त हो गया और नानक की स्त्री ने अपनी लौंडी से कहा - “अरे, जरा आगे बढ़के देख तो सही, गज्जू बाबू आते हैं या नहीं!”
लौंडी - (धीरे से, जिसमें दूसरा कोई सुनने न पावे) बीबी जल्दी क्यों करती हो, वे तो यहां आने के लिए तुमसे भी ज्यादा बेचैन हो रहे होंगे।
बीबी - (मुस्कुराकर धीरे से) कम्बख्त - यह तू कैसे जानती है?
लौंडी - तुम्हारी और उनकी चाल से क्या मैं नहीं जानती क्या उस एकादशी की रात वाली बात भूल जाऊंगी (अपना बाजू दिखाकर) देखो यह तुम्हारी...।
लौंडी अपनी बात पूरी भी न करने पाई थी कि मटकते हुए नानक भी उसी तरफ आ पहुंचे और लाचार होकर लौंडी को चुप रह जाना पड़ा।
नानक - (सजी हुई थालियों की तरफ देख के) अरे, इसमें मुरब्बा तो रक्खा ही नहीं!
बीबी - मुरब्बा क्या खाक रखती! न मालूम कहां से सड़ा हुआ मुरब्बा उठा लाये! वह उनके खाने लायक भी है लखपती आदमी की थाली में रखते शर्म तो नहीं मालूम पड़ती!
नानक - मेरा तो दो आना पैसा उसमें लग गया और तुम्हें पसन्द ही नहीं। क्या मैं अंधा था जो सड़ा हुआ मुरब्बा उठा लाता!
बीबी - तुम्हारे अंधे होने में शक ही क्या है ऐसे ही आंख वाले होते तो रामभोली, अपनी मां और अपने बाप को पहचानने में वर्षों तक काहे झख मारते रहते?
नानक - (चिढ़कर) तुम्हारी बातें तो तीर की तरह लगती हैं! तुम्हारे तानों ने तो कलेजा पका दिया! रोज-रोज की किचकिच ने तो नाकों दम कर दिया! न मालूम कहां की कम्बख्ती आयी थी जो तुम्हें मैं अपने घर में ले आया।
बीबी - (अपने मन में) कम्बख्ती नहीं आई थी बल्कि तुम्हारा नसीब चमका था जो मुझे अपने घर में लाए! अगर मैं न आती तो ऐसे-ऐसे अमीर तुम्हारे दरवाजे पर थूकने भी नहीं आते! (प्रकट) तुम्हारी कम्बख्ती तो नहीं मेरी कम्बख्ती आई थी जो इस घर में आई! जने-जने के सामने मुंह दिखाना पड़ता है। तुम्हें तो ऐसा मकान भी न जुड़ा जिसमें मरदानी बैठक तो होती और तुम्हारे दोस्तों की खिदमत से मेरी जान छूटती। अच्छा तो तभी होता जब वही गूंगी तुम्हारे घर आती और दिन में तीन दफे झाडू दिलवाती। चलो, दूर हो जाओ मेरे सामने से, नहीं तो अभी भण्डा फोड़ के रख दूंगी।
लौंडी - बीबी, रहने भी दो, तुम तो बड़ी भोली हो, जरा-सी बात में रंज हो जाती हो!
बड़ी मुश्किल से लौंडी ने लड़ाई बन्द करवाई और इतने ही में दरवाजे पर से किसी के पुकारने की आवाज आयी। नानक दौड़ा हुआ बाहर गया। दरवाजा खोलने पर मालूम हुआ कि पांच-सात नौकरों के साथ गज्जू बाबू आ पहुंचे हैं। इनका असल नाम 'गजमेन्दुपाल' था मगर अमीर होने के कारण लोग इन्हें गज्जू बाबू के नाम से पुकारा करते थे।
नौकरों को तो बाहर छोड़ा और अकेले गज्जू बाबू आंगन में पहुंचे। नानक ने बड़ी खातिरदारी से इन्हें बैठाया और थोड़ी देर तक गपशप के बाद खाने की सामग्री उनके आगे रक्खी गई।
गज्जू बाबू - अरे, तो क्या मैं अकेला ही खाऊंगा?
नानक - और क्या!
गज्जू बाबू - नहीं, सो नहीं होगा, तुम भी अपनी थाली ले आओ और मेरे सामने बैठो।
नानक - भला खाइए तो सही, मैं आपके सामने ही तो हूं, (बैठकर) लीजिए बैठ जाता हूं।
गज्जू बाबू - कभी नहीं, हरगिज नहीं, मुमकिन नहीं! ज्यादा जिद करोगे तो मैं उठकर चला जाऊंगा!
नानक - अच्छा आप खफा न होइए, लीजिए मैं भी अपनी थाली लाता हूं।
लाचार नानक को भी अपनी थाली लानी पड़ी। लौंडी ने गज्जू बाबू के सामने नानक के लिए आसन बिछा दिया और दोनों आदमियों ने खाना शुरू किया।
गज्जू बाबू - वाह गोश्त तो बहुत ही मजेदार बना है - जरा और मंगाना।
नानक - (लौंडी से) अरे जा, जल्दी से गोश्त का बरतन उठा ला।
गज्जू बाबू - वाह-वाह, क्या दाई परोसेगी?
नानक - क्या हर्ज है?
गज्जू बाबू - वाह, अरे हमारी भाभी साहिबा कहां हैं बुलाओ साहब। जब हमारी-आपकी दोस्ती है तो पर्दा काहे का?
नानक - पर्दा तो कुछ नहीं है मगर उसे आपके सामने आते शर्म मालूम होगी।
गज्जू बाबू - व्यर्थ! भला इसमें शर्म काहे की हां अगर आप कुछ शर्माते हों तो बात दूसरी है!
नानक - नहीं, भला आपसे शर्म काहे की आप-हम तो एक-दिल एक-जान ठहरे! आपकी दोस्ती के लिए मैंने बिरादरी के लोगों तक की परवाह नहीं की।
गज्जू बाबू - ठीक है और मैंने भी अपने भाई साहब के नाक-भौं चढ़ाने का कुछ खयाल न किया और तुम्हें साथ लेकर अजमेर और मक्के चलने के लिए तैयार हो गया।
नानक - ठीक है, (अपनी स्त्री से) अजी सुनो तो सही-जरा गोश्त का बर्तन लेकर यहां आओ।
गज्जू बाबू - हां - हां, चली आओ, हर्ज क्या है। तुम तो हमारी भाभी ठहरी - अगर जिद हो तो हमसे मुंह-दिखाई ले लेना!
इतना सुनते ही छमछम करती हुई बीबी साहिबा पर्दे से बाहर निकलीं और गोश्त का बर्तन बड़ी नजाकत से लिए दोनों महापुरुषों के पास आ खड़ी हुईं।
हम यहां पर बीबी साहिबा का हुलिया लिखना उचित नहीं समझते और सच तो यह है कि लिख भी नहीं सकते क्योंकि उनके चेहरे का खास-खास हिस्सा नाममात्र के घूंघट में छिपा हुआ था। खैर जाने दीजिये, ऐसे तम्बाकू पीने के लिए छप्पर फूंकने वाले लोगों का जिक्र जहां तक कम आये अच्छा है। हम तो आज नानक को ऐसी अवस्था में देखकर हैरान हैं और कमलिनी तथा तेजसिंह की भूल पर अफसोस करते हैं। यह वही नानक है जिसे हमारे ऐयार लोग नेक और होनहार समझते थे और अभी तक समझते होंगे मगर अफसोस, इस समय यदि किसी तरह कमलिनी को इस बात की खबर हो जाती कि नानक के धर्म तथा नेक चालचलन के लम्बे-चौड़े दस्तावेज को दीमक चाट गए, अब उसका विश्वास करना या उसे सच्चा ऐयार समझना, अपनी जान के साथ दुश्मनी करना है तो बहुत अच्छा होता। यद्यपि किशोरी, कामिनी, लाडिली, लक्ष्मीदेवी और वीरेन्द्रसिंह के ऐयारों का दिल भूतनाथ से फिर गया है मगर नानक पर कदाचित् अभी तक उनकी दया-दृष्टि बनी हुई है।
नानक की स्त्री ने बर्तन में से दो टुकड़ा गोश्त निकालकर गज्जू बाबू की थाली में रक्खा और पुनः निकालकर थाली में रखने के लिए झुकी ही थी कि बाहर से किसी आदमी ने बड़े जोर से पुकारा, “अजी नानकजी हैं!” इस आवाज को सुनते ही नानक चौंक गया और उसने दाई की तरफ देख के कहा, “जल्दी जा, देख तो सही कौन पुकार रहा है!”
दाई दौड़ी हुई दरवाजे पर गई। दरवाजा खोलकर जब उसने बाहर की तरफ देखा तो एक नकाबपोश पर उसकी निगाह पड़ी जिसने चेहरे की तरह अपने तमाम बदन को भी काले कपड़े से ढंक रक्खा था। उसके तमाम कपड़े इतने ढीले थे कि उसके अंग-प्रत्यंग का पता लगाना या इतना भी जान लेना कि यह बुड्ढा है या जवान बड़ा ही कठिन था।
दाई उसे देखकर डरी। यदि गज्जू बाबू के कई सिपाही उसी जगह दरवाजे पर मौजूद न होते तो वह निःसन्देह चिल्लाकर मकान के अन्दर भाग जाती मगर गज्जू बाबू के नौकरों के रहने से उसे कुछ साहस हुआ और उसने नकाबपोश से पूछा –
दाई - तुम कौन हो और क्या चाहते हो?
नकाबपोश - मैं आदमी हूं और नानक परसाद से मिलना चाहता हूं।
दाई - अच्छा तुम बाहर बैठो वह भोजन कर रहे हैं, जब हाथ-मुंह धो लेंगे तब आवेंगे।
नकाबपोश - ऐसा नहीं हो सकता! तू जाकर कह दे कि भोजन छोड़कर जल्दी से मेरे पास आवें। जा देर मत कर। यदि थाली की चीजें बहुत स्वादिष्ट लगती हों और जूठा छोड़ने की इच्छा न होती हो तो कह दीजियो कि 'रोहतासगढ़ का पुजारी' आया है।
यह बात नकाबपोश ने इस ढंग से कही कि दाई ठहरने या पुनः कुछ पूछने का साहस न कर सकी। किवाड़ बन्द करके दौड़ती हुई नानक के पास गई और सब हाल कहा। 'रोहतासगढ का पुजारी' आया है इस शब्द ने नानक को बेचैन कर दिया। उसके हाथ में इतनी भी ताकत न रही कि गोश्त के टुकड़े को उठाकर अपने मुंह तक पहुंचा देता। लाचार उसने घबड़ाई हुई आवाज में गज्जू बाबू से कहा - “आधे घण्टे के लिए मुझे माफ कीजिये। उस आदमी से बातचीत करना कितना आवश्यक है सो आप इसी से समझ सकते हैं कि घर में आप ऐसा दोस्त और सामने की भरी थाली छोड़कर जाता हूं, आपकी भाभी साहिबा आपको खुले दिल से खिलावेंगी। (अपनी स्त्री से) दो-चार गिलास आसव का भी इन्हें देना।”
इतना कहकर अपनी बात का बिना कुछ जवाब सुने ही नानक उठ खड़ा हुआ। अपने हाथ से गगरी उंडेल हाथ-मुंह धो दरवाजे पर पहुंचा और किवाड़ खोलकर बाहर चला गया। यद्यपि इस समय नानक ने तकल्लुफ की टांग तोड़ डाली थी तथापि उसके चले जाने से गज्जू बाबू को किसी तरह का रंज न हुआ, बल्कि एक तरह की खुशी हुई और उन्होंने अपने दिल में कहा, 'चलो इनसे भी छुट्टी मिली।'
दरवाजे के बाहर पहुंचकर नानक ने उस नकाबपोश को देखा और बिना कुछ कहे उसका हाथ पकड़के मकान से कुछ दूर ले गया। जब ऐसी जगह पहुंचा जहां उन दोनों की बातें सुनने वाला कोई दिखाई नहीं दिया तब नानक ने बातचीत आरंभ की।
नानक - मैं तो आवाज ही से पहचान गया था कि मेरे दोस्त आ पहुंचे, मगर लौंडी को इसलिए दरवाजे पर भेजा था कि मालूम हो जाय कि आप किस ढंग से आए हैं और किस प्रकार की खबर लाए हैं। जब लौंडी ने आपकी तरफ से 'रोहतासगढ़ के पुजारी' का परिचय दिया, बस कलेजा दहल उठा, मालूम हो गया कि खबर जरूर भयानक होगी।
नकाबपोश - बेशक ऐसी ही बात है। कदाचित् तुम्हें यह सुनकर आश्चर्य होगा कि तुम्हारा बहुत दिनों का खोया हुआ बाप अर्थात् भूतनाथ अब मैदान की ताजी हवा खाने योग्य नहीं रहा।
नानक - हैं, सो क्यों?
नकाबपोश - उसका दुर्दैव जो बहुत दिनों तक पारे में चांदी की तरह छिपा हुआ था, एकदम प्रकट हो गया। उसने तुम्हारी मां को भी अष्टम चन्द्रमा की तरह कृपा-दृष्टि से देख लिया और साढ़ेसाती के कठिन शनि को भी तुमसे जैगोपाल करने के लिए कहला भेजा है, पर इससे यह न समझना कि ज्योतिषियों के बताये हुए दान का फल बनकर मैं तुम्हारी रक्षा के लिए आया हूं। अब तुम्हें भी यह उचित है कि आजकल के ज्योतिषियों के कर्म-भण्डार से फलित विद्या की तरह जहां तक हो सके, जल्द अन्तर्धान हो जाओ।
नानक - (डरकर) अफसोस, तुम्हारी आदत किसी तरह कम नहीं होती। दो शब्दों में पूरी हो जाने वाली बात को भी बिना हजार शब्दों का लपेट दिए तुम नहीं रहते। साफ क्यों नहीं कहते कि क्या हुआ?
नकाबपोश - अफसोस, अभी तक तुम्हारी बुद्धि की कतरनी को चाटने के लिए शान का पत्थर नहीं मिला। अच्छा, तब मैं साफ-साफ ही कहता हूं सुनो। तुम्हारे बाप का छिपा हुआ दोष बरसात की बदली में छिपे हुए चन्द्रमा की तरह यकायक प्रकट हो गया। इसी से तुम्हारी मां भी दुश्मन के काबू में, शेर के पंजे में बेचारी हिरनी की तरह पड़ गई और उसी कारण से तुम पर भी उल्लू के पीछे शिकारी बाज की तरह धावा हुआ ही चाहता है। सम्भव है कि चारपाई के खटमल की तरह जब तक कोई ढूंढ़ने के लिए तैयार हो, तुम गायब हो जाओ। मगर मेरी समझ में फिर भी गरम पानी का डर बना ही रहेगा।
नानक - (चिढ़कर) आखिर तुम न मानोगे! खैर, मैं समझ गया कि मेरे बाप का कसूर वीरेन्द्रसिंह को मालूम हो गया। परन्तु उनके, तेजसिंह के और कामिनी के मुंह से निकले हुए 'क्षमा' शब्द पर मुझे बहुत भरोसा था। यद्यपि दोष जान लेने के पहले ही उन्होंने ऐसा किया था।
नकाबपोश - नहीं-नहीं, तुम्हारे बाप ने वीरेन्द्रसिंह का जो कुछ कसूर किया था वह तो उनके ऐयारों को पहले ही मालूम हो गया था। मगर इन नये-नये प्रकट भये हुए दोषों के सामने वे दोष ऐसे थे, जैसे सूर्य के सामने दीपक, चन्द्रमा के सामने जुगनू, दिन के आगे रात या मेरे मुकाबले में तुम।
नानक - अगर तुममें यह ऐब न होता तो तुम बड़े काम के आदमी थे। देख रहे हो कि हम लोग सड़क पर बेमौके खड़े हैं, मगर फिर भी संक्षेप में बात पूरी नहीं करते!
नकाबपोश - इसका सबब यही है कि मेरा नाम संक्षेप में या अकेले में नहीं है। गोपी और कृष्ण इन दोनों शब्दों से मेरा नाम बड़े लोगों ने ठोंक मारा है। अस्तु बड़े लोगों की इज्जत का ध्यान करके मैं अपने नाम को स्वार्थ की पदवी देने के लिए सदैव उद्योग करता रहता हूं। इसी से गोपियों के प्रेम की तरह मेरी बातों का तौल नहीं होता और जिस तरह कृष्णजी त्रिभंगी थे, उसी तरह मेरे मुख से निकला प्रत्येक शब्द त्रिभंगी होता है। हां, यह तुमने ठीक कहा कि सड़क पर खड़े रहना भले मनुष्यों का काम नहीं है। अस्तु, थोड़ी दूर आगे बढ़ चलो और नदी के किनारे बैठकर मेरी बात इस तरह ध्यान देकर सुनो जैसे बीमार लोग वैद्य के मुंह से अपनी दवा का अनुपान सुनते हैं। बस, जल्द बढ़ो देर न करो, क्योंकि समय बहुत कम है, कहीं ऐसा न हो कि विलम्ब हो जाने के कारण वीरेन्द्रसिंह के ऐयार लोग आ पहुंचें और उस चरणानुरागी पात्र की मजबूती का इल्जाम तुम्हारे माथे ठोंकें, जिसके कारण जंगली कांटों और कंकड़ियों से बचकर यहां तक वे लोग पहुंचेंगे।
नानक - (झुंझलाकर) बस माफ कीजिए, बाज आए आपकी बातें सुनने से। जिस सबब से हम पर आफत आने वाली है, उसका पता हम आप लगा लेंगे। मगर द्रौपदी के चीर की तरह समाप्त न होने वाली बातें तुमसे न सुनेंगे।
नकाबपोश - (हंसकर) शाबाश-शाबाश, जीते रहो! अब मैं तुमसे खुश हो गया, क्योंकि अब तुम भी अपनी बातों में उपमालंकार की टांग तोड़ने लगे। सच तो यों है कि तुम्हारा झुंझलाना मुझे उतना ही अच्छा लगता है, जितना इस समय भूख की अवस्था में फजली आम और अधावट दूध से भरा हुआ चौसेरा कटोरा मुझे अच्छा लगता।
नानक - तो साफ - साफ क्यों नहीं कहते कि हम भूखे हैं जब तक पेट भरकर खा न लेंगे, तब तक असल मतलब न कहेंगे।
नकाबपोश - शाबाश, खूब समझे। बेशक मैंने यही सोचा था कि तुम्हारे यहां दक्षिणा के सहित भोजन करूंगा और उन बातों का रत्ती-रत्ती भेद बता दूंगा जिनकी बदौलत तुम कुम्भीपाक में पड़ने से भी ज्यादा दुःख भोगना चाहते हो, मगर नहीं, दरवाजे पर पहुंचते ही देखता हूं कि फोड़ा फूट गया और सड़ा मवाद बह निकला है। अब तुम इस लायक न रहे कि तुम्हारा छूआ पानी भी पीया जाय। खैर, हम तुम्हारे दोस्त हैं, जिस काम के लिए आये हैं, उसे अवश्य ही पूरा करेंगे। (कुछ सोचकर) कभी नहीं, छिः-छिः, तुम नालायक से अब हम दोस्ती रखना नहीं चाहते। जो कुछ ऊपर कह चुके हैं, उसी से जहां तक अपना मतलब निकाल सको, निकाल लो और जो कुछ करते बने करो, हम जाते हैं!
इतना कहकर नकाबपोश वहां से रवाना हो गया। नानक ने उसे बहुत समझाया और रोकना चाहा। मगर उसने एक न सुनी और सीधे नदी के किनारे का रास्ता लिया तथा नानक भी अपनी बदकिस्मती पर रोता हुआ घर पहुंचा। उस समय मालूम हुआ कि उसके नौजवान अमीर दोस्त को अच्छी तरह अपनी नायाब ज्याफत का आनन्द लेकर गये हुए आधी घड़ी बीत चुकी है।