शनि सहस्त्रनाम स्तोत्र 3
मुचुकुन्दार्चितपदो महारूपो महायशा:।
महाभोगी महायोगी महाकायो महाप्रभु:।।
महेशो महदैश्वर्यो मन्दार-कुसुमप्रिय:।
महाक्रतुर्महामानी महाधीरो महाजय:।।
महावीरो महाशान्तो मण्डलस्थो महाद्युति:।
महासुतो मेहादारो महनीयो महोदय:।।
मैथिलीवरदायी च मार्ताण्डस्य द्वितीयज:।
मैथिलीप्रार्थनाकल्प्त दशकण्ठ शिरोपहृत्।।
मरामरहराराध्यो महेन्द्रादि सुरार्चित।
महारथो महावेगो मणिरत्नविभूषित:।।
मेषनीचो महाघोरो महासौरि र्मनुप्रिय:।
महादीर्घो महाग्रासो महदैश्चर्यदायक:।।
महाशुष्को महारौद्रो मुक्तिमार्ग प्रदर्शक:।
मकर-कुम्भाधिपश्चैव मृकण्डुतनयार्चित:।।
मन्त्राधिष्ठानरूपश्च मल्लिका-कुसुमप्रिय:।
महामन्त्र स्वरूपश्च महायन्त्र-स्थितस्तथा।।
महाप्रकाशदिव्यात्मा महादेवप्रियस्तथा।
महाबलि समाराध्यो महर्षिगणपूजित:।।
मन्दचारी महामायी माषदानप्रियस्तथा।
माषोदान प्रीतचित्तो महाशक्तिर्महागुण:।।
यशस्करो योगदाता यज्ञांगोSपि युगन्धर:।
योगी योग्यश्च याम्यश्च योगरूपी युगाधिप:।।
यज्ञभृद्यजमानश्च योगो योगविदां वर:।
यक्ष-राक्षस-वेताल कूष्माण्डादिप्रपूजित:।।
यमप्रत्यधिदेवश्च युगपत् भोगदायक:।
योगप्रियो योगयुक्तो यज्ञरूपो युगान्तकृत्।।
रघुवंश समाराध्यो रौद्रो रौद्राकृति स्तथा।
रघुनन्दन सल्लापो रघुप्रोक्त जपप्रिय:।।
रौद्ररूपी रथारूढो राघवेष्ट वरप्रद:।
रथी रौद्राधिकारी च राघवेण समर्चित:।।
रोषात् सर्वस्वहारी च राघवेण सुपूजित:।
राशिद्वयाधिपश्चैव रघुभि: परिपूजित:।।
राज्यभूपाकरश्चैव राजराजेन्द्र वन्दित:।
रत्नकेयुरभूषाढ्यो रमानन्दनवन्दित:।।
रघुपौ षसन्तुष्टो रघुस्तोत्रबहुप्रिय:।
रघुवंशनृपै पूज्यो रणन्मंजीरनूपुर:।।
रविनन्दन राजेन्द्रो रघुवंशप्रियस्तथा।
लोहजप्रतिमादानप्रियो लावण्यविग्रह:।।
लोकचूडामणिश्चैव लक्ष्मीवाणीस्तुतिप्रिय:।
लोकरक्षो लोकशिक्षो लोकलोचनरंजित:।।
लोकाध्यक्षो लोकवन्द्योक्ष्मणाग्रजपूजित:।
वेदवेद्यो वज्रदेहो वज्रांकुशधरस्तथा।।
विश्ववन्द्यो विरूपाक्षो विमलांगविराजित:।
विश्वस्थो वायसारूढो विशेषसुखकारका।।
विश्वरूपी विश्वगोप्ता विभावसु सुतस्तथा।
विप्रप्रियो विप्ररूपो विप्राराधन तत्पर:।।
विशालनेत्रो विशिखो विप्रदानबहुप्रिय:।
विश्वसृष्टि समुद्भूतो वैश्वानरसमद्युति:।।
विष्णुर्विरिंचिर्विश्वेशो विश्वकर्ता विशाम्पति:।
विराडाधारचक्रस्थो विश्वभुग्विश्वभावन:।।
विश्वव्यापारहेतुश्च वक्र क्रूर-विवर्जित:।
विश्वो वो विश्वकर्मा विश्वसृष्टि विनायक:।।
विश्वमूलनिवासी च विश्वचित्रविधायक:।
विश्वधारविलासी च व्यासेन कृतपूजित:।।
विभीषणेष्ट वरदो वांचितार्थ-प्रदायक:।
विभीषणसमाराध्यो विशेषसुखदायक:।।
विषमव्ययाष्ट जन्मस्थोप्येकादशफलप्रद:।
वासवात्मजसुप्रीतो वसुदो वासवार्श्चित:।।
विश्वत्राणैकनिरतो वाड्भनोतीतविग्रह:।
विराण्मन्दिरमूलस्थो वलीमुखसुखप्रद:।।
विपाशो विगतातंको विकल्पपरिवर्जित:।
वरिष्ठो वरदो वन्द्यो विचित्रांगो विरोचन:।।
शुष्कोदर: शुक्लवपु: शान्तरूपी शनैश्चर:।
शूली शरण्य: शान्तश्च शिवायामप्रियंकर:।।
शिवभक्तिमतां श्रेष्ठ: शूलपाणिश्युचिप्रिय:।
श्रुतिस्मृतिपुराणज्ञ: श्रुतिजालप्रबोधक:।।
श्रुतिपारग संपूज्य: श्रुतिश्रवणलोलुप:।
श्रुत्यन्तर्गतमर्मज्ञ: श्रुत्येष्टवरदायक:।।
श्रुतिरूप: श्रुतिप्रीत: श्रुतीस्प्सितफलप्रद:।
शुचिश्रुत: शांतमूर्ति: श्रुति: श्रवण कीर्तन:।।
शमीमूलनिवासी च शमीकृतफलप्रद:।
शमीकृतमहाघोर: शरणागत – वत्सल:।।
शमीतरुस्वरूपश्च शिवमन्त्रज्ञमुक्तिद:।
शिवागमैकनिलय: शिवमन्त्रजपप्रिय:।।
शमीपत्रप्रियश्चैव शमीपर्णसमर्चित:।
शतोपनिषदस्तुत्यो शान्त्यादिगुणभूषित:।।
शान्त्यादिषड्गुणोपेत: शंखवाद्यप्रियस्तथा।
श्यामरक्तसितज्योति: शुद्धपंचाक्षरप्रिय:।।
श्रीहालास्यक्षेत्रवासी श्रीमान् शक्तिधरस्तथा।
षोडशद्वयसम्पूर्णलक्षण: षण्मुखप्रिय:।।
षड्गुणैश्वर्यसंयुक्त: षडंगावरणोज्वल:।
षडक्षरस्वरूपश्च षट्चक्रोपरि संस्थित:।।
षोडसी षोडशांतश्च षट्छक्तिव्यक्त-पूर्तिमान्।
षड्भावरहितश्चैव षडंगश्रुतिपारग:।।
षट्कोणमध्यनिलय: षट्छास्त्रस्मृतिपारग:।
स्वर्णेन्द्रनीलमुकुट: सर्वाभीष्टप्रदायक:।।
सर्वात्मा सर्वदोषघ्न: सर्वगर्वप्रभंजन:।
समस्तलोकाभयद: सर्वदोषांगनाशक:।।
समस्तभक्तसुखद: सर्वदोषनिवर्तक:।
सर्वनाशक्षमस्सौम्य: सर्वक्लेशनिवारक:।।
सर्वात्मा सर्वदा तुष्ट: सर्वपीडानिवारक:।
सर्वरूपी सर्वकर्मा सर्वज्ञ: सर्वकारक:।।
सुकृती सुलभश्चैव सर्वाभीष्टफलप्रद:।
सूरात्मजस्सदातुष्ट: सूर्यवंशप्रदीपन:।।
सप्तद्वीपाधिपश्चैव सुरा – सुरभयंकर:।
सर्वसंक्षोभहारी च सर्वलोकहितंकर:।।
सर्वौदार्यस्वभावश्च सन्तोषात् सकलेष्टद:।
समस्तऋषिभिसंस्तुत्य: समस्तगणपावृत:।।
समस्तगणसंसेव्य: सर्वारिष्टविनाशन:।
सर्वसौख्यप्रदाता च सर्वव्याकुलनाशन:।।
सर्वसंक्षोभहारी च सर्वारिष्ट-फलप्रद:।
सर्वव्याधिप्रशमन: सर्वमृत्युनिवारक:।।
सर्वानुकूलकारी च सौन्दर्यमृदुभाषित:।
सौराष्ट्रदेशोद्भवश्च स्वक्षेत्रेष्ट्रवरप्रद:।।
सोमयाजि समाराध्य: सीताभीष्ट वरप्रद:।
सुखासनोपविष्टश्च सद्य: पीडानिवारक:।।
सौदामनीसन्निभश्च सर्वानुल्लड्घ्यशासन:।
सूर्यमण्डलसंचारी संहाराश्त्रनियोजित:।।
सर्वलोकक्षयकर: सर्वारिष्टविधायक:।
सर्वव्याकुलकारी च सहस्त्र-जपसुप्रिय:।।
सुखासनोपविष्टश्च संहारास्त्रप्रदर्शित:।
सर्वालंकार संयुक्तकृष्णगोदानसुप्रिय:।।
सुप्रसन्नस्सुरश्रेष्ठ सुघोष: सुखदस्सुहृत्।
सिद्धार्थ: सिद्धसंकल्प: सर्वज्ञस्सर्वदस्सुखी।।
सुग्रीवस्सुधृतिस्सारस्सुकुमार स्सुलोचन:।
सुव्यक्तस्सच्चिदानन्द: सुवीरस्सुजनाश्रय:।।
हरिश्चन्द्रसमाराध्यो हेयेपादेयवर्जित:।
हरिश्चन्द्रेष्टवरदो हन्समन्त्रादि संस्तुत:।।
हन्सवाह समाराध्यो हन्सवाहवरप्रद:।
ह्र्द्यो हृष्टो हरिसखो हन्सो हन्सगतिर्हवि:।।
हिरण्यवर्णोहितकृद्धर्षदो हेमभूषण:।
हविर्होता हन्सगति र्हंसमन्त्रादिसंस्तुत:।।
हनूमदर्चितपदो हलधृत् पूजितसदा।
क्षेमद: क्षेमकृत्क्षेम्य: क्षेत्रज्ञ: क्षामवर्जित:।।
क्षुद्रघ्न क्षान्तिद: क्षेम: क्षितिभूष: क्षमाश्रय:।
क्षमाधर: क्षयद्वारो नाम्रामष्टसहस्त्रकम् ।।
वाक्येनैकेन् वक्ष्यामि वांचितार्थ प्रयच्छति।
तस्मात् सर्वप्रयत्नेन नियमेन जपेत् सुधी:।।