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श्री साई वाक्सुधा

वादावदी नाहीं बरी। नेको कुणाची बरोबरी।
नसतां श्रद्धा आणि सबूरी।
परमार्थ तिळभरी साधेना।।

मग जो गाई वाडेंकोडें। माझे चरित्र माझे
पावडे। तयाचिया मी मागें पुढ़ें। चोहींकडे उभाच।।

जो मजलागी अनन्य शरण।
विश्रासयुक्तकरी मद्भजन। माझें चिंतन माझें।।

कृतांताच्या दाढ़ेंतून। काढ़ीन मी
निजभक्ता ओढून। करितां केवळ मत्कथा।
श्रवण। रोगनिरसन होईल।।

'माझिया भक्तांचे धामी। अन्नवस्त्रास नाहीं कमी।
ये अर्थों श्रीसाई दे हमी। भक्तांसी नेहमीं अवगत।।

'मज भजती जे अनन्यपणें। सेविती नित्याभिमुक्तनें।
तयांचा योगक्षेम।चालविणें। ब्रीद हे जाणें मी माझें।।

सोडूनियां लाख चतुराई। स्मरा निरंतर साई साई।
'बेडा पार' होईल पाहीं। संदेह कांहीं न धरावा।।

मी माझिया भक्तांचा अंकिला। आहें पासीच उभा ठाकला।
प्रेमाचा मी सदा भुकेला। हाख हाकेला देतेसें।।

'साईं साईं' नित्य म्हणाल। सात समुद्रकरीन न्याहाल।
याबोला विश्वास ठेवाल। पावाल कलत्याण निश्चयें।।

सद्भावें दर्शना जे जे आले। ते ते स्वानंदरस प्याले।
अंतरी आनंद निर्भर धाले। डोलूं लागले प्रेमसुखें।।

ज्या माझे नामाची घोकणी। झालाची तयाचे पापाची धुणी।
जो मज गुणियाहूनिगुणी। ज्या गुणीगुणी मन्नामीं।।

'जो जो जैसे जैसे करील। तो तो तैसें तैसें भरील।'
ध्यानांत ठेवी जो माझे बोल। सौख्‍य अमोल पावेल तो।।