सज़ा कितनी खामोशी से
खामोश होते खामोशियों की
सज़ा कितनी खामोशी से
पल -पल घुल रही ज़िन्दगी को
संजोने की अदा
कितनी खामोशी से..
मैं ही मैं मे
मैं ना रहा शामिल
फिर भी रहा शामिल
दुनिया की भीड़ में
कितनी खामोशी से..
जब भी जो वक़्त गुजरा
वक़्त की तारीखों से
मैं चला वक़्त की
गुमनाम गलियों में
कितनी खामोशी से..
खींची हाथ पे
वक़्त की लकीरें लिए
मैं खड़ा बेबस
खुदगर्ज़ साहिल सा
आती खुशियां लहरों सी
छू के सिमट जाती रही
कितनी खामोशी से..
फेर ली थी निगाहें
मिटती हर धुँधली तस्वीरों से
थक गया था वजूद
सिमटती हाथ की लकीरों से
बंद कर ही ली थी ऑंखे के
फिर उभरे हर अधूरे ख्वाब
खेल खेलती रही तक़दीरें
सुलगती रही वक़्त के बाहों मे
मेरी हर बेबस रात
कितनी खामोशी से..
छीना तूने क्या वक़्त
मांगा मैंने क्या
शामिल रहा तुझमे हर वक़्त
फिर मैं इतना बेगाना क्या
ढूंढ लिया था इक अक्स
रंग बदलती दुनिया के
पैमानों से
तूने वो आईना भी तोड़ा
कितनी खामोशी से..
ये बनावट की आंधी थी
जिसमे मैं संभालने लगा
ये वो अनदिखि हवा थी
जिसपे मैं दास्तान लिखने लगा
यूँ तो उतरना था
मीलों रूह सा
फिर भी हर मंजिल पे
मिटाता रहा अपना पता
कितनी खामोशी से..
साथ मेरे तेरा
इक लम्हा न जाएगा
तय है अपनी भी मंजिल
साथ छोड़ तू भी निकल जायेगा
फिर भी सांस दर सांस जोड़ के
आस दिलाऊँ खुद को
मेरे बाद इक दिन
बिखरी मेरी यादें
ऐ वक़्त तेरे पन्नो पे
उतर जाएंगी
कितनी खामोशी से..
* Isob amit shekher *