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कर्तव्य कर्म

सबके अंत में आती है पाँचवीं सीढ़ी, जिसे गीता में केवल कर्तव्य-बुद्धिपूर्वक या कर्तव्य समझ के कर्म करना कहते हैं। जब सारा भेद मिट गया और अद्वैतबुद्धि - 'एकोऽहं द्वितीयो नास्ति' की भावना - हो गई और वह निरंतर बनी रहती है, उसका विलोप कभी भी जब होता नहीं, तो फिर ईश्वरार्थ कर्म का प्रयोजन क्या है - मतलब क्या है? ब्रह्म या ईश्वर या भगवान के लिए कर्म करने का तब तो कोई मतलब रही नहीं जाता। भगवान उन कर्मों को ले के आखिर करेगा क्या? उसे तो उनका प्रयोजन कुछ भी रही नहीं गया। इसीलिए भगवदर्पण कर्म के कुछ मानी दरअसल हैं नहीं। जब तक अद्वैत भावना दृढ़ न हो और उसमें रह-रह के विराम आ जाता हो, तब तक तो इसके मानी कुछ हो भी सकते हैं। तब तक पहले वाला ऊँचे उठना और ऊपर चढ़ना अपने स्थान पर रह सकता है। मगर जब इस भावना और धारणा की पूर्ति हो गई, तब ब्रह्मार्पण कहना बेमानी है।

इसीलिए उस हालत में जो कुछ भी कर्म होता है वह केवल कर्तव्य समझ के ही होता है। जिसे अंग्रेजी में 'डयूटी फॉर डयूटीज सेक' (duty for duty`s sake) कहते हैं वही है कर्तव्य बुद्धि से कर्म करने का अर्थ। 'कार्यमित्येव' (18 । 9), 'यष्टव्यमेवेति' (17 । 11), 'दातव्यमिति' (17 । 20) आदि गीतोक्त वचनों का यही मतलब है। (चाहे किसी का कुछ भी प्रयोजन हो या न हो, मगर कर्म तो इस सृष्टि का नियम (law) है। क्रिया ही तो सृष्टि है। इसलिए कर्म तो होता ही रहेगा जब तक संसार बना है, सृष्टि बनी है। इससे छुटकारा तो किसी को मिल सकता है नहीं। हाथ-पाँव आदि इंद्रियों की तो यही बात है कि उनसे कोई न कोई क्रिया होती ही है। नहीं तो वे रहे ही नहीं। इसीलिए यह आत्मदर्शी पुरुष कर्मों की नाहक की उधेड़-बुन में तो पड़ता नहीं कि उनका प्रयोजन क्या है। उसे इसकी फुरसत कहाँ? उसका मन, उसका दिलदिमाग इस तुच्छ चीज के पास फटकने भी क्यों पाए? उसे आगा-पीछा सोचने की फुरसत ही नहीं होती - उसके पास इस चीज की गुंजाइश होती ही नहीं। इसलिए जो कुछ होता है उसे वह रोकता नहीं, होने देता है। इसे ही पुराने लोगों ने 'प्रवाहपतित कर्म' भी कहा है। इसका अर्थ वही है जो कर्तव्यबुद्धिपूर्वक कर्म का है।

(असल में बहुत समय तक यज्ञार्थ या ब्रह्मार्पण बुद्धि से कर्म करते-करते उस मनुष्य का कुछ स्वभाव ही ऐसा हो जाता है कि बिना किसी खयाल के भी वह ऐसे ही काम करता रहता है जिससे लोगों का कल्याण हो। अनजान में भी उससे दूसरे प्रकार का कर्म हो ही नहीं सकता। उसके जरिए ऐसा काम होने की संभावना रही नहीं जाती जिससे संसार में अमंगल हो, दुनिया का अनिष्ट हो, या सांसारिक लोग देखादेखी पथभ्रष्ट हों। उसने तो दीर्घकाल तक दुखी लोगों के ऊपर दयादृष्टि करके ही कर्म किया है। फलत: उसका अंग-प्रत्यंग दयार्द्र हो गया है। मैत्री, करुणा वगैरह दैवी संपत्तियाँ और उदात्त गुण उसके भीतर इस कदर प्रविष्ट हो गए हैं कि उनसे वह अनजान में भी लाख यत्न करने पर भी अलग हो नहीं सकता है। इसीलिए जहाँ पहले लोगों की भलाई का खयाल करके ही वह काम करता था, तहाँ अब बिना उस खयाल के ही काम करता ही है। ऐसे की कर्मों को 'लोकसंग्रहार्थ' कर्म कहते हैं, जैसा कि गीता ने कहा है - 'लोकसंग्रहमेवापि सम्पश्यन कर्तुमर्हसि'। यही कर्म पहले मनोयोगपूर्वक होते थे और अब स्वभाव से ही होते रहते हैं) दोनों ही दशा में ये रहते हैं 'लोकसंग्रह' के लिए ही। मगर पीछे उनमें और भी उदात्तता आ जाती है, वे और भी ऊँचे दर्जे के हो जाते हैं। क्योंकि ऐसे पहुँचे हुए महान पुरुषों की स्वरसवाही प्रवृत्तियों के फलस्वरूप होने के कारण उनमें कृत्रिमता नहीं रह जाती। इसीलिए उनमें ऐसा आकर्षण होता है कि जन-साधारण उधर ही बलात खिंच जाते हैं, एक प्रकार से उन्हीं कर्मों के साथ बँध जाते हैं और उन्हीं को करने लगते हैं। 'लोकसंग्रह' में जो संग्रह शब्द है उसका अर्थ है बाँधना या जमा करना और यह बात तभी चरितार्थ होती है। पहुँचे पुरुषों के कर्मों में तब अपूर्व शक्ति हो जाती है जिसका जादू आम लोगों पर होता है, हो के ही रहता है।